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उपाध्यायान्दशाचार्य आचार्याणां शत पिता /

सहस्त्र तु पितृन्माता औरवेणाति रिच्यते ।। मनुस्मृति-- 4 /2 , 445

समर्पण

मेरी वन्दनीया या को जिसकी योद मे मैने इस दुनिया ये पहली बार आँखे खोली ण्व पज्य पिताजी क) जिनसे इस दुनिया एव दुनिया के लोगो के बारे मे समझा

ओडम्‌

गजानन भूतगणदिसेवितम्‌ कपित्थजम्बू फलचारुभक्षणम्‌ उमासुतम्‌ शोक विनाशकारकम्‌

न'मामि विध्नेश्वर पाद पकजम्‌ ।।

शरणागत दीनार्त परित्राण परायणे , सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणी नमोस्तु ते।

मन्दाकिनी सलिल चन्दन चर्चिताय, नन्दीश्वर नाथ प्रमाथ महेश्वराय | मन्दार पुष्प वहुपुष्प सुपूजिताय,

तस्मे शिकाराय नम शिवाय।।

अतुलित बलधाम हेमशैलाभिदेहम्‌ दनुज बलनिधानमशनामग्रिगण्यम्‌ सकलगुणनिधानम्‌ वानराणामधीशम्‌

रघुपति प्रिय भकतम्‌ वातजातम्‌ नमामि |

जआाककथन

पूर्वमध्यकाल भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण काल था। इस काल के अतीत मे चक्रवर्ती सम्राटों एव सास्कृतिक स्वर्णयुग की सज्ञा से विभूषित गुप्तकाल था। वही इसके वर्तमान मे “हमारा पडोसी हमारा स्वाभाविक शत्रु है” की वह भावना विद्यमान थी जिसने इस पूरे काल को अनेक राज्यो एव राजवशो के इतिहास मे

बॉट कर रख दिया। इस काल को राजपूत काल के नाम से भी जाना जाता है|

परमार राजवश की उत्पत्ति, सभ्यता, सस्कृति एव उनके समाज कं बारे मे अन्य राजवशो की अपेक्षा उल्लेखनीय कार्य कम ही हुए है अत परमारों के सामाजिक सास्कृतिक जीवन के बारे में अभिलेखीय अध्ययन अत्यत आवश्यक था। मै स्वय परमार क्षत्रिय वश का हूँ अत मेरे लिये यह इतिहास जानने एव अपने वश के प्रति श्रद्धा ज्ञापित करने का एक सुअवसर भी था। मैने यह कार्य निष्ठा

पूर्वक करने का प्रयास किया है।

परमार राजवश का शासन नवी शताब्दी से चौदहवी शताब्दी के आरम्भिक वर्षों तक लगभग पाच सौ वर्षों का गौरवशाली इतिहास है। परमारो की पाच शाखाये थी -- मालव शाखा, आबू शाखा, बागड शाखा, जालौर शाखा और भिनमाल शाखा। इनमे सबसे महत्वपूर्ण मालव शाखा थी। उत्पत्ति की दृष्टि से आबू शाखा का सर्वाधिक महत्व इसलिये है क्योकि परमारो की उत्पत्ति आबू पर्वत से मानी गई जहा से ये मालवा आये और अपना साम्राज्य स्थापित किए। इन पाचों शाखाओं के अधीन एक समृद्ध भू-भाग था जिसे सलग्न मानचित्र के माध्यम से प्रदर्शित किया गया है।

यद्यपि विभिन्‍न विद्वानों ने सामाजिक जीवन, सभ्यता, सस्कृति, शिक्षा साहित्य एव आर्थिक दृष्टि से समय - समय पर महत्वपूर्ण कार्य किया है फिर भी अभिलेखो क॑ आधार पर इस सदर्भ मे पृथक रुप से कोई उल्लेखनीय कार्य सभव नहीं हो सका है। प्रस्तुत शोध प्रबन्ध इस दृष्टि से निष्ठापूर्वक किया गया एक

प्रयास है।

परमारों से सम्बन्धित लगभग 96 अभिलेख अब तक प्राप्त हुए जिनकी सूची सलगन की गई है। केवल अभिलेखिक साक्ष्यों के आधार पर अध्ययनपूर्ण नहीं हो सकता अत तत्कालीन साहित्यिक एव अन्य उपलबध ऐतिहासिक साक्ष्यो का अवलोकन किया गया है। परमारो के सम्बन्ध मे अथर्ववेद, याज्ञवल्क्यस्मृति नारद स्मृति, वृहस्पति स्मृति, उपनिषदों, पौराणिक ग्रथों एव सस्कृत ग्रथो की सहायता ली गयी है। उपरोक्त साक्ष्यो की पुष्टि के लिए विदेशी लेखको के विवरणो का भी सहारा लिया गया है। सामाजिक एव सास्कृतिक इतिहास के सम्बन्ध मे समकालीन अन्य राजवशो के सम्बधित अभिलेखिक एव साहित्यिक साक्ष्यों का भी उपयोग किया गया है। परमारो की साम्राज्य सीमा को प्रदर्शित करने के लिए जो मानचित्र सलग्न है वह (०]00७5 [5090णपा।] ॥ताट्वापा पर

आधारित है |

प्रस्तुत शोध प्रबन्ध मे कूल पाच परिच्छेद है जिसमे प्रथम परिच्छेद मे परमारो की उत्पत्ति एव उनका राजनैतिक उत्कष, द्वितीय परिच्छेद मे परमार कालीन सामाजिक जीवन वर्ण, जाति व्यवस्था, विवाह, परिवार, नारी, खान-पान, परिधान, मनोरजन तथा तृतीय परिच्छेद में परमार शासको की धार्मिक नीति - धार्मिक जीवन, व्रत, त्योहार, उत्सव एव चतुर्थ परिच्छेद मे परमार कालीन शिक्षा

साहित्य एव कला तथा अतिम परिच्छेद मे परमार कालीन आर्थिक जीवन उद्योग,

वाणिज्य एव कराधान का यथासभव विशद वर्णन किया गया है।

परमार वश पर शोध करना मेरे लिये सिर्फ शोध का ही विषय नहीं अपितु श्रद्ध। का विषय था। परमार क्षत्रिय कुल मे उत्पन्न होने से मेरे लिये अपने वश और कूल की उत्पत्ति के बारे मे जिज्ञासा आरभ से ही थी। अपने सुहृदय गुरुदेव डा० आरव०्पी० त्रिपाठी जी से मैने परमारो पर शोध करने की आज्ञा चाही

जिसे गुरुदेव ने आज्ञा प्रदान कर मुझ पर जो कृपा की उसका मै ऋणी हूँ

पूज्य गुरुदेव डा० त्रिपाठी जी ने केवल मेरे शोध सम्बन्धी निर्देशन दिया अपितु जीवनोपयोगी जो व्यावहारिक सीख दी वह एक उदारमना गुरु ही कर सकता है। गुरुदेव जितने ही मृदुभाषी है उतने ही कर्तव्यनिष्ठ एव अनुशासित व्यक्तित्व है |

पूज्यगुरुदेव सिर्फ मेरे शोध मार्ग दर्शक है अपितु मुझ पर उनकी पितृवत छाया ने जो आत्मिक सम्बल प्रदान किया। वह गुरुदेव जैसे उदार व्यक्तित्व के धनी ही कर सकते है |

शोध मे प्रवेश लेने के बाद जब मै मुरुदेव के घर आशीर्वाद लेने पहुचा तो गुरुदेव ने आशीर्वचनों के बाद कहा - मेरे निर्देशन मे शोध करने वालो मे से कोई (॥॥९॥॥०।/०/०० नही है मेरा आशीर्वाद है कि तुम शीघ्र अच्छी नौकरी पा

जाओ। गुरुदेव का यह प्रथम आशीर्वचन था।

गुरुजी के घर का वातावरण अत्यन्त पारिवारिक रहा। गुरुमाता ने जो स्नेह दिया वह अविस्मरणीय है। मेरा शोध प्रबन्ध विलम्ब हो रहा था। इसके लिए गुरुमाता ने मातृतत छिडकी भी दी और शोध प्रबन्ध शीघ्र जमा करने हेतु प्रेरित किया जिसके लिए मै मुरुमाता का आभारी हूँ।

मैने हमेशा गुरुदेव एव गुरुमाता को माता पिता तुल्य ही समझा यदि इन्हे मेरे किसी भी आचार व्यवहार से तनिक भी कष्ट हुआ हो तो मै बारम्बार क्षमाप्रार्थी हूँ। गुरुजी के परिवार मे दीपा, प्राची, नीरज एव रतन ने बार-बार प्रेरित किया कि में अपना शोध प्रबन्ध शीघ्र प्रस्तुत करू इसके लिए मै उन सभी का आभारी हूँ। रतन मेरा अनुज तुल्य मित्र है जो अपने वय से अधिक समझदार एव अत्यत विनम्र है जो गुरुजी के सानिध्य का फल है।

छात्रावास में जिन वरिष्ठ लोगो का सहयोग प्राप्त हुआ उनमे सबसे पहले श्री शोभनाथ सर का नाम लेना मेरे लिये परम आवश्यक है क्योकि छात्रावास का जब मैं अतवासी नही था तब श्री शोभनाथ सिह सर के कमरे मे रहा और शोभनाथ सर का बडप्पन यह रहा कि उन्होने मुझे अपने छोटे भाई जैसा स्नेह दिया। वे छात्रावास मे मेरे सरक्षक की तरह रहे। उन जैसा सहनशील एव उदार व्यक्ति मेरे जीवन मे अविस्मरणीय स्थान रखता है। मैने अग्रेज विज्ञान 3॥/07 की यह पक्ति पढा था। - "600 |0५८५ ५शव०॥ ०॥९७ ४०५7५" यह मेरा दुर्भाग्य है कि श्री शोभनाथ सर अब हमारे बीच नही है उनकी स्मृति को शत्‌ शत्‌

नमन्‌ |

बुजेन्द्र विद्याकर सिह मेरे उन अतिनिकट लोगो मे था जिसने मुझे बडे भाई की तरह आदर दिया। वह छात्रावास के मेरे ही ब्लाक के कक्ष स० 32 मे रहा। मेरे और विद्याकर के बीच कोई औपचारिकता कभी नहीं रही। मै जब भी छात्रावास के 32 नम्बर के सामने से गुजरता हूँ तो उसका सबोधन हलो सर | राघव सर | महसूस होता है। उसकी ढेरो स्मृतिया मेरे जेहन मे है। मेरे प्रिय विद्याकर की स्मृति को सदा मेरा प्रणाम |

छात्रावास छोडने के बाद भी मेरा सम्बध छात्रावास के जिन लोगो से

अत्यत सौहार्दपूर्ण रहा उसमे विजय राय अविस्मरणीय है। उसके और हमारे बीच ज्येष्ठता का बडा अन्तर छात्रावास मे रहा, किन्तु हमारे सम्बध अत्यत मधुर थे। उसके अचानक हमारे बीच से चले जाने का मुझे अत्यत कष्ट है। विजय की

स्मृति को मेरा नमन |

मेरे मित्र आलोक सिह “बब्लू” की स्मृति मेरे ममनस पटल पर सदैव उपस्थित रहेगी। उसकी स्मृति को प्रणाम |

छात्रावास के जिन वरिष्ठ लोगो मे श्री कौशलेन्द्र सिह जो मेरे वरिष्ठ मित्र एव पडोसी (वे कक्ष 38 मे रहते थे और मै कक्ष 39 मे) रहे। श्री प्रदीप सिह (85) जो मेरे वरिष्ठ भी रहे और मेरे मित्र भी। श्री अजय कमार सिह सर (जो कक्ष 39 मे ही रहे उनके छात्रावास छोडने के बाद मै कक्ष स39 का अत वासी बना) उनका स्नेह आज भी यथावत है वे जो राजेश सर मेरे सीनियर जो मेरे शुभचिन्तक मित्र रहे जिनके बिना मेरी मित्रमण्डली पूरी नही हो सकती थी उनमे श्री राजेश कुमार सिह (काका), कुमुदेन्दु कलाकर सिह, मारकन्डेय सिह और सबसे अलग सबसे प्रमुख गुन्नू सर जिन्हे कुछ अत वासी उनका नाम वृजेश प्रताप सिंह जान ही नही सके गुन्नू सर छात्रावास के प्रमुख लोगो मे और मेरे प्रमुख शुभेच्छ रहे और अभी भी है। अत मे राणा भाई राणा इन्द्रजीत सिह एव श्री शैलेन्द्र प्रताप सिह जो मेरे अभिन्‍न मित्र है। आप सभी के प्रति मै आभारी हूँ।

मेरे कनिष्ठ छात्रावासी अनूप कुमार सिह, प्रदीप कुमार सिंह (बिल्लू) राहुल मिश्र, विजय पाण्डेय, राघवेद्र, डी०्डी०, कुँअर अरुण प्रताप सिह, राजेश कुमार सिंह 'हीरा' अश्विनी सिह, राजीव कुमार सिह, अजय और पकज, मिथिलेश सिह एव अन्य सभी मित्रो ने जिन्होने मुझे शोध प्रबन्ध लिखने मे यथासभव सहयोग ओर प्रोत्साहन दिया इन सभी का मै आभारी हूँ। यदि अपने कनिष्ठ छात्रावासियों

और अनुजतुल्य सहयोगियो का नाम लू और प्रदीप सिह कक्षा 37 का नाम लू तो यह खुद पर विश्वास करने जैसा ही है। वास्तव मे मेरा यह शोध प्रबन्ध इतनी शीघ्रता से (जिसकी तैयारी सही मायने मे कुछ माह पूर्व से ही हुई) प्रस्तुत हो सका तो यह प्रदीप के सद्प्रयासो का फल है। छात्रावास जीवन के पूर्व के मित्र एव अभिन्न सहयोगियो मे श्री धर्मेन्द्र सिह विसेन, केसरी नन्दन मिश्रा, रवीन्द्र

मिश्र, नागेन्द्र मिश्र, अजय सिह, एवं विष्णुदत्त ओझा का मै विशेष आभारी हैँ

मेरे शैक्षिक जीवन के प्रथम शिक्षक श्री दशरथ सिह का मै हृदय से आभारी हूँ जिन्होने स्वय अत्यन्त मर्यादित रहते हुए शिक्षकों के प्रति सदैव आदरणीय भाव रखना सिखाया। श्री दशरथ सिह जी, के प्रति मे अत्यन्त कृतज्ञ

िल्मी

हूँ।

श्री राम देव सिह इण्टर कालेज कामतागज सुलतानपुर के शैक्षिक एव

पूरे स्टाफ का मै अत्यन्त आभारी हूँ।

डा० राघवेन्द्र शरण त्रिपाठी, डा० रामदल पाण्डेय, डा० मधुर नारायण

मिश्र एव डा० परमात्मा नाथ द्विवेदी का भी मै विशेषरुप से आभारी हूँ।

मेरी माँ के बाद मुझे जिसका सर्वाधिक स्नेह मिला, जिसने मुझे सदैव प्रेरित किया, जो मेरे जरा भी कष्ट मे दुख महसूस करती है। मै अपनी बहन तुला की सद्भावों को आत्मा से महसूस करता हूँ। मेरी बहन जो आयु मे मुझसे सिर्फ एक वर्ष ही बडी है परन्तु व्यवस्हार मे उसका स्नेह मुझ पर छाया की तरह सदैव रहता है उसे कोटिक चरण स्पर्श। जीजा जी श्री राजेश कुमार सिंह ने अपने व्यस्त समय से मेरी कुशलता के लिए सदैव समय निकाला और मेरी कुशलता एव प्रगति के सदैव प्रयत्न शील रहते है। ईश्वर इन दोनो को सृष्टि के अन्त तक

स्वस्थ एव सुदीर्घ रखे यह मेरी शुभकामना है।

डा० राम अजोर सिह (डी०लिट०) प्राचार्य राम नगर स्नातकोत्तर महाविद्यालय, रामनगर, बाराबकी जिनके गरिमामयी व्यक्तित्व एव उदात्त व्यवहार ने यह सिद्ध किया कि हर व्यक्ति ख्यातिलब्ध क्यो नहीं होता। डा० सिह ने मुझे अपनी सतान सा सम्बल प्रदान किया उसके लिए मै उनका अत्यत आभारी हूँ। बाबू जी डा० सिह की उदात्तता के पीछे माता जी डा० श्रीमती राधारानी सिह प्रवक्‍ता हिन्दी जवाहर लाल नेहरु स्नातकोत्तर महाविद्यालय बाराबकी की

गरिमामयी उपस्थिति मै पाता हूँ। श्रद्धेय माता जी को बारम्बार चरणस्पर्श |

डा० जे०पी०एन० सिह रीडर (बीएड) का सु० साकेत महाविद्यालय फैजाबाद एव जो मेरे जीजा जी के बडे भाई है एव दीदी ने मुझे अपने अनुज सा स्नेह दिया और मुझे शोधपत्र प्रस्तुत करने हेतु प्रेरित किया आप दोनो आदरणीय लोगो के स्वस्थ एवं दीर्घायु होने की शुभकामनाओ के साथ मै श्रद्धावनत हूँ।

अक्टूबर 2004 के बाद के अपने जीवन को मै पुनर्जन्म मानता हूँ क्योंकि मै गम्भीररुप से अस्वस्थ हुआ था और सजय गॉधी आयुविज्ञान सस्थान मे पूरे एक सप्ताह स्वास्थ लाभ किया। इस समयावधि मे मेरे भतीजे बटी (देवेश कुमार सिह) ने जिस लगन से मेरी सेवा किया उसके बारे मे जितनी भी कृतज्ञता ज्ञापित की जाय वह अल्प ही है। कृतज्ञता इसलिए आवश्यक है, क्योकि उसने जिस निष्ठा एव स्नेह से सेवा की वह भगवान राम के अनुज लक्ष्मण जैसी सेवा थी। आयुर्विज्ञान संस्थान में बटी के ही दो सेवको - रामू और रामजीत का भी मै आभारी हूँ क्योकि उनकी सेवाओ के बिना मै इतनी शीघ्रता से इस योग्य नही बन सकता था कि अपना शोध प्रबन्ध पूरा कर सकू। दूसरे भतीजे मठ की सेवा भी

अनन्य है |

मेरे अग्रज श्री रमाशकर सिह जिन्हे हम सभी साधू भइया कहते है उनके लिए केवल इतना ही कह सकता हू कि यदि ईश्वर और मानव के बीच कोई जीव होता हो तो वह भइया है। मेरे परिवारकी सारी प्रगति के प्रेरणा स्रोत वही है। उनकी साथ भाभी जी का ममत्व मेरे प्रति सदैव बना रहा इसके लिए मै

उनका आजीवन ऋणी हूँ

राहुल भइया जिनसे बचपन मे हमारी बातचीत कम और झगडे अधिक होते थे। भइया और मुझमे आयु का अन्तर अधिक तो नही है किन्तु मेरे प्रति उनका स्नेह पितृवत है हालाकि अब भी हमारी बातचीत प्राय के बराबर ही होती है। भाभी ने उनसे बढकर स्नेह मुझे दिया है अवश्य ही उनके पूर्वजों में कोई महान आत्मा रही होगी क्योकि सामान्य सस्कार से इतने उदारमना हो ही नहीं सकते। आप दोनो के प्रति शब्दो मे कृतज्ञता व्यक्त ही नही की जा सकती केवल भावनाओ से समर्पित की जा सकती है।

राहुल भइया से बडे श्री सुरेन्द्र विक्रम सिह भाई साहब जिनका मेरे प्रति मित्रवत, मातृवत स्नेह सदैव रहा, जिनकी दृष्टि मे मै आज भी बच्चा ही हूँ उस

उदारमन अग्रज एव भाभी को कोटिक वदना |

मेरे आध्यात्मिक गुरु श्री सी०एन० सिह के प्रति मैं हृदय से कृतज्ञ हूँ जिनके आशीर्वाद से मै शीघ्र स्वस्थ हो सका। अस्वस्थता के बाद भी कुछ कमजोरी के कारण मुझे अपना शोध प्रबन्ध लिखने मे मेरी भतीजी ने अत्यत ही श्रमसाध्य एव नीरस कार्य (नीरस इसलिए क्योकि इतिहास उसका विषय नही है) किया उसके लिए वह कोटि-कोटि स्नेहाशीष। मेरी भतीजी गुड्डू ने जिस सी कोई बेटी हो ही नहीं सकती उसने मुझे सदैव प्रेरित किया गुड्डू बेटा, डी०के० एव मेरे बडे भतीजे राजन बेटा को कोटि कोटि अशीर्वाद। मेरे भाँजे गौरव सूर्ययशी एव सुभम

सूर्ययशी को शुभकामनाये। अपने कुतूहल से मेरे पुत्र कार्तिकेय भतीजे देवर्षि एव पुत्री ज्येष्ठा ने मेरा उत्साहवर्धन किया इन सभी को मेरी हार्दिक शुभकामनाये |

मुझे डी०एफिल० की उपाधि मिलने पर जिन्हे सर्वाधिक प्रसन्‍नता होगी उनमे किरन दीदी, जीजाजी एवं मेरे काकाजी जिनकी उगली पकडकर मै बडा हुआ हूँ उनके सुस्वास्थ एव दीर्घ जीवन की कामना के साथ कोटिक चरणपस्पर्श | मेरे परिवार के सभी लोगो की हार्दिक अभिलाषा मेरे प्रगति है पकज, लिदिल, शरद, शिवेन्द्र एव परिवार के सभी लोगो के प्रति साधुवाद | मेरे छोटे साले राणा जीतेन्द्र सिह “लूसुर” (पर) जो इस समय अमेरीका मे उच्च शिक्षारत्‌ है ने मेरे शोध विषयक सामग्री कम्प्यूटर सै एकत्र की जिसके बिना यह कार्य अत्यन्त दुष्कर

होता उसका एवं विनय क॒मार सिह “डब्बू” का मै आभारी हूँ।

मेरे पत्नी शशि ने शोध पत्र की श०0० 0एा०८णा में विशेष मेहनत किया है। मेरे हम हर कार्य-परिणाम मे वह आधे की हिस्सेदार है ही इसलिए कोई कृतज्ञता देते हुए मै अपने इस कार्य मे उसकी हिस्सेदारी महससू करता हूँ।

परमार वश के बारे में अनुश्रुतियों एव अन्य स्रोतों से जो जानकारियाँ मिली उनमे मेरे सबसे बडे भाई श्री प्रताप बहादुर सिह जी, एव श्री मित्रस्त सिंह जी एवं अपने गृह जनपद सुलतानपुर के परमार क्षत्रियो मे श्री राज बहादुर सिंह एवं श्री योगेन्द्र प्रताप सिंह जी “बुच्ची भाई” का नाम विशेष रुप से लेना चाहता हूँ। उज्जैन (मालवा) से आये परमार क्षत्रिय पश्चिम उत्तर प्रदेश के हरदोई, बरेली, शहजहॉपुर में बहुतायत है। पूर्वी उत्तर प्रदेश मे सुलतानपुर मे सम्मानित एव बहुतायत है। सुलतानपुर मे सहगिया, डोमापुर, जलालपुर एव पहाडपुर ग्राम के बुजुर्गों से एव हमारे ही वश परिवार के रामपुर अम्बेदकर नगर मे बस गये श्रीयुत श्रीश प्रताप सिंह से जो जानकारियाँ मिली वे सराहनीय है। मेरे शोध प्रबन्ध सके

किसी को कुछ प्रेरणा मिल सके यह मेरी उपलब्धि होगी |

मेरा शोध पत्र इस रुप मे समयावधि मे प्रस्तुत हो सका इसके लिए जिन महानुभावों का मै ऋणी हूँ उनमे डा० रामकपाल त्रिपाठी जी सिर्फ हमारे छात्रावास अधीक्षक रहे अपितु हमारे स्थानीय अभिभावक जैसे है उन्हे एव भाभी जी के प्रति मैं सदैव श्रद्धावनत हूँ। श्री अजय प्रताप सिंह सुरक्षाधिकारी इ०वि०वि० इलाहाबाद से जो सहयोग मिला उसके लिए उनका मै आभारी हूँ। मेरे अनुज तुल्य सत्येन्द्र कुमार सिह, अखिलेश कुमार सिह, रमेश कुमार सिंह मुन्ना एव अशोक कूमार सिह का नाम मै विशेषरुप से लेना चाहता हूँ इन्होने मुझे शोधप्रबन्ध

प्रस्तुत करने हेतु प्रोत्साहन दिया उसके लिए इन्हे साधुवाद |

विभाग के जिन गुरुजनो के सहयोग के बिना यह कार्य पूर्ण नही हो सकता था उनमे पूर्व विभागाध्यक्ष डा० बी०डी० मिश्र जी का एव डा० डी०्पी० दूबे जी का विशेष रुप से आभार व्यक्त करता हूँ। डा० मिश्र जी हमारे छात्रावास के पूर्व अत वासी रहे है उन्होने परिवार के मुखिया की तरह स्नेह दिया। डा० डी०पी० दूबे सर ने मुझे पुस्तके एव मेरे शोध से सम्बन्धित पुस्तको एव अन्य साक्ष्यो की जो जानकारी दी एव जो प्रोत्साहन दिया उसके बिना मेरा शोधकार्य अधूरा रह जाता। पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो० जेणएस० नेगी एव प्रो० यूणएन० राय के प्रति आभार व्यक्त

करना मै अपना दायित्व समझता हूँ

विभागाध्यक्ष प्रो० ओम प्रकाश जी का मै विशेष रूप से कृतज्ञ हूँ जिनके सद्‌प्रयासो एव उदात्त व्यवहार के कारण ही शोधकार्य सम्पन्न हो सका |

विभाग के ही डा० ए०पी० ओझा, डा० जी०के० राय, डा० बी०बी० मिश्र, डा० एच०एन० दूबे, डा० जे०एन० पाण्डेय, डा० जेगएन० पाल, डा० ओग्पी०

श्रीवास्तव, डा० अनामिका राय, डा० हर्ष कुमार, डा० गीता देवी, डा० पुष्पा तिवारी

डा० एस०के० राय एव सभी गुरुजनो का मै आभारी हूँ जिनसे प्रत्यक्ष परोक्ष सहयोग मुझे शोध करने मे मिला |

विभाग के सभी कर्मचारियो, विशेष रुप से मुन्ने बाबू, अनोखे बाबू एव अरोराजी एव पुस्तकालय सहायक राय साहब का विशेष रुप से आभारी हूँ जिनका अनन्य सहयोग मुझे मिला। मुन्ने बाबू ने जो सहयोग एव स्नेह मुझे दिया। उनके बेटा सम्बोधन से जो स्नेह मिला उसके बदले जितना कृतज्ञता ज्ञापित की जाय कम है|

शीघ्र एव सुन्दर कम्प्यूटर लेजर प्रिटिंग एव मधुर व्यवहार के लिए मे खन्‍ना ब्रदर्स एव उनके सभी कम्प्यूटर सहायको का मै आभारी हूँ।

अत में अपने सभी इष्ट मित्रो, परिचितो एव गुरुजनो के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ जिन्‍्होने मेरे बारे मे शुभेच्छा की |

यदि मेरे व्यवहार मे, विचार मे, शोध प्रबन्ध मे कोई त्रुटि रह गयी हो तो

अपने उदारमना गुरुदेव से क्षमा प्रार्थी हूँ।

सादर,

3 सिह 5 | 200१]

विषय सूची

(4) परमारों की उत्पत्ति और उनका राजनीतिक उत्कर्ष -- -46

उत्पत्ति विजये मानचित्र परमार सम्राज्य परमार शासको का वश वृक्ष परमार कालीन अभिलेख चित्र प्रमुख अभिलेख (2) परमार कालीन सामाजिक जीवन- 47-86 वर्ण जाति और उप जातियाँ - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, कायस्थ, अन्त्यज समाज मे स्त्रियों का स्थान, शिक्षा, विवाह, दहेज, सतीप्रथा, बहुविवाह, उत्तराधिकार, विधवा विवाह, देवदासियाँ एव गणिकाये, वस्त्राभूषण खानपान, परिघान एव मनोरजन (3) परमारकालीन धार्मिक जीवन-- 87-42 वैदिक धर्म - शैव, शाक्त, सौर एव वैष्णव - जैन, बौद्ध धर्म परमार शासको की धार्मिक नीति धार्मिक सहिष्णुता राज्याश्रय व्रत त्योहार एव उत्सव

(4) शिक्षा साहित्य एवं कला - 43-200 शिक्षा - अर्थ एवं उद्देश्य प्रारम्भिक एवं उच्च शिक्षा शिक्षा के विषय, शिक्षण संस्थाएं स्त्री शिक्षा साहित्य - काव्य रचना, प्रशस्ति एव अभिलेख रचना कवि एव लेखको को राज्याश्रय, शास्त्रार्थ एव गोष्ठियाँ तत्कालीन रचनाए कला - वास्तुकला, मूर्तिकला

(5) परमार कालीन आर्थिक जीवन-- 20-247 कृषि सिचाई व्यवस्था, व्यापारिक वस्तुए एव व्यापार प्राणाली स्थानीय उद्योग - काष्ठ उद्योग, वस्त्र उद्योग, धातु एव रत्न उद्योग शिल्प व्यवसाय एव कराधान

उपसहार- 248-254 सन्दर्भ ग्रन्थ सूची- 255-264

शब्द सक्षेप (88877:८/।0५) 265-269

२-4 डरउमरनसतक्‍स। २»०+++पदाया:-(. फ़मा2नमकाकाकजन प८+७+सनभाम९--क घी :ााऋ

28% 0६ 30६ +/- 30- 30 30- -0- 30० 3७६ 0६ २0६ 0६ 0६ +३॥- -े॥- -४६ -४- ै॥- -े/-

23

जे जे जेऔ -ै#- -ैऔ- जे जे +जैऑ- 3ैऔ- जे +जै#- +जैऔ +जेऔ7 +जैऔ_ +जैऔ0 ै#- जे जे

हे 0६ -९०-५०-३०-५०-+५०-५०-०-१७--१०-५६--९० टन -ल +हरील +हील +हौल +हरील “हल +औल + औरत +औत “रत +#-+ 24

परमारों की उत्पत्ति

परमार राजवश भारत वर्ष के अतिम हिन्दू राजवशो मे आदरणीय स्थान रखता है जिन्होने मालवा या अवन्ति सहित गुजरात राजस्थान के दक्षिणी भू-भाग पर अधिकार स्थापित कर पूर्व मध्य कालीन भारत को गौरवान्वित किया। इस राजवश ने राष्ट्रकूटो के भृत्यु के रूप मे अपने राजनैतिक जीवन की शुरूआत करते हुए दशवी शताब्दी के मध्य तक भारत के हृदय मध्य प्रदेश मे सदृढ राजवश की नीव डाली जो गोदावरी के उत्तर से होते हुए बेतवा नदी के पूर्व और चम्बल नदी के पश्चिमी भू-भाग पर दृढता से स्थापित था। इस राजवश ने भारत के राजनैतिक और सास्कृतिक इतिहास मे उल्लेखनीय योगदान दिया। इस राजवश ने चौदहवी शताब्दी के आरम्भिक वर्षों तक भारत के समृद्ध इतिहास को लगभग 400 वर्षो तक तब तक गौरवान्वित किया जब तक कि यह राज्य मुस्लिम आक्रमणकारियो द्वारा छिन्‍न-भिन्‍न नहीं कर दिया गया। साहित्य के क्षेत्र मे इस राजवश का योगदान भारत के किसी राजवश से कम नही था अपितु श्रेष्ठ था|

परमारो की उत्पत्ति के सम्बन्ध मे तत्कालीन साहित्य एव अभिलेख परमारो की अग्निकुल की उत्पत्ति का उल्लेख करते है। परमार वश के सातवे दरबारी कवि पद्मगुप्त परिमल ने अपने ग्रथ नवसहसाकचरित (महाकाव्य) ने परमारो की उत्पत्ति अर्बुदाचल पर्वत से जोडी है। जिसके अनुसार, “इक्ष्वाकुकुल के पुरोहित वशिष्ठ की कामधेनु विश्वामित्र ने वैसे ही चुरा ली जैसे पहले कार्तवीर्य ने जमदग्नि की गाय का अपहरण कर लिया था। दुखी अरून्धती के आसुओ ने वशिष्ठ ऋषि की क्रोधाग्नि प्रज्ज्वलित कर दी। उनकी यज्ञाग्नि मे फेकी हुई आहुति से हाथ मे तीर धनुष लिए स्वर्ण कवच धारण किये एक ऐसा वीर पुरूष उत्पन्न हुआ जिसने बल पूर्वक कामधेनु विश्वामित्र से छीनकर वशिष्ठ के हवाले कर दी। उस कृतज्ञ ऋषि ने उसे

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परमार (शत्रु का मारक) कहा और उसे पृथ्वी के शासन की शक्ति दी। प्राचीन मनु की तुलना वाले उस वीर से एक वश परमार चला जिसने पुण्यात्मा राजाओ से बडी प्रतिष्ठा प्राप्त की ।।'

इस कथा का उल्लेख पद्मगुप्त के समकालिक एव कनिष्ठ “धनपाल ने अपनी कृति मे किया एव परमारो की अग्नि कुल उत्त्पत्ति का समर्थन किया है।*

वशिष्ठ विश्वामित्र के प्रतीत से ब्रह्मबल (तपस) और क्षत्रबल (राजस्‌ अथवा पशुबल) के बीच शक्तिप्रदर्श की अनेक कथाये वैदिक साहित्य, रामायण, महाभारत और पुराणो मे मिलती है।* ऐसा प्रतीत होता है कि पद्मगुप्त ने इन कथाओ को अपने महाकाव्य मे स्थानान्तरित मात्र कर दिया। किन्तु पूर्ववर्ती कथाओं मे शक पहलव और यवन आदि विदेशी जातियो के भी किसी किसी ओर से भाग लेने के उल्लेख मिलते है। पद्मगुप्त द्वारा वैसा कोई उल्लेख करना स्पष्ट करता है कि पद्मगुप्त परमारो को विदेशी नही मानता था। मनुस्मृति मे स्पष्टत उल्लेख है कि “विदेशियो को भारतीय समाज में मिलाकर निम्न पद ही दिये गये और उनके लिए धर्मशास्त्रकारो ने व्रात्य धर्म का सिद्धात प्रतिपादित किया।'

मनुस्मृति के उपरोक्त दृष्टात से एक बात स्वय सिद्ध हो जाती है कि परमार प्राचीन क्षत्रिय वशीय है जो मूलरूप से भारतीय है।

राजपूताना की चारण कथाओ में भी अधिकाश्षत परमारो की अग्नि कुड उत्पत्ति को स्वीकार किया गया है। एक चारण ने लिखा है- “एक बार इन्द्र ने पूर्वाधास की एक मूर्ति बनाकर उस पर अमृत छिडककर उसे अग्निकुड मे फेका और सजीवन मत्र जपा जिससे अग्नि शिखाओ मे से एक गदाधारी मूर्ति मर-मर (मारो-मारो) कहती हुई उद्भुत हुई। उसका नाम परमार (शत्रु-सहारक) रखा गया और उत्तराधिकार के रूप मे उसे आबू धार, उज्जैन प्रदेश दिये गये [”

खीची चौहान के चारण मूकजी के अनुसार, “सोलकी की उत्पत्ति ब्रह्मतत्व से हुई और उसकी चालुकराव की उपाधि दी गयी। प्वार (परमार) का आविर्भाव शिवतत्व से हुआ और परिमार का देवी तत्व से। मनोनीत वश चौहान अग्निशिखा से उद्भुत हुआ और वह आबू छोड अभाई के लिए प्रस्थान कर भ्रमण करता रहा।

इन चारण कथाओ का समर्थन समकालीन अभिलेखो या अन्य किन्ही साक्ष्यो से नही होता है। अत इन चारण कथाओ को परमार राजवश की उत्त्पत्ति सबधी किसी साक्ष्य के रूप मे ग्रहण नही किया जा सकता।

परमारों की अग्नि उत्पत्ति को स्वीकार करते हुए आइने अकबरी के लेखक ने एक भिन्‍न कहानी बतायी है, “कहा जाता है कि देवी सवत्‌ के चालीसवे वर्ष के लगभग 2350 वर्ष पूर्व (ईसवी पूर्व 764) महावाह नामक ऋषि ने एक अग्नि मदिर मे प्रथम शिखा प्रज्वलित की और धार्मिक कर्म करने मे व्यस्त हुए। ममुक्ष उस मन्दिर मे आहुतिया देते थे और पूजा के उस रूप के प्रति अति आकर्षित थे। इससे बौद्धो को आशका हुई और वे सासारिक प्रभु के पास जाकर उसके द्वारा इस पूजा रूप को समाप्त कराने मे सफल हुए। इससे लोग बहुत व्यथित हुए और उन्होने ईश्वर से एक वीर उत्पन्न करने की प्रार्थना की जो उनकी सहायता करने और व्यथा दूर करने मे सक्षम हो। सर्वोच्च न्यायमूर्ति ने इस अग्नि मन्दिर से सर्वसैनिक गुणोपेत एक मानव आकृति उत्पन्न की। इस बीर योद्धा ने अपने बाहुबल से अग्निपूजा रूपी शाति पूर्ण कृत्य की समस्त अडचनो को थोडे ही समय मे दूर कर दिया। उसने धजी नाम ग्रहण कर और अपने स्थान दक्षिण से आकर मालवा का सिहासन ग्रहण किया। इस वश की पाचवी सतति पुत्राज था किन्तु वह निसतान था। उसकी मृत्यु होने पर सामतो ने आदित्य पोवार का उसका उत्तराधिकारी चुना। उसके बाद उसका वश परमार राजवश कहलाया ।'

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आइने अकबरी के इस कथन की कोई ऐतिहासिक पृष्ठभूमि नहीं है कि परमारों का सस्थापक धजी अथवा धनजय अपने मूल स्थान दक्षिण से मालवा आया। वास्तव मे धनजय नामक कोई व्यक्ति परमार अभिलेखो अथवा उनसे सम्बद्ध अन्य साक्ष्यो मे ज्ञात ही नही है।

गौरी शकर हीराचन्द ओझा ने परमार वश की अग्निवशीय उत्पत्ति के सम्बन्ध मे एक अन्य मत व्यक्त किया कि, “परमारों के अभिलेखो मे उनका अग्निवशी होना कदाचित इसलिए प्रचलित हो गया कि किन्‍्ही किन्ही अभिलेखो मे उनके प्रथम पूर्वज का नाम धूमराज मिलता है ।*

किन्तु उपरोक्त तर्क इस कारण मान्य नहीं हो सका कि “धूमराज के परमार राजवश के प्रथम पूर्वज होने का उल्लेख अपेक्षाकृत बहुत बाद के अभिलेखो मे हुआ है और उनसे बहुत पूर्व के अभिलेखो तथा नव सहसाक चरित मे उनका सम्बन्ध आबू के अग्निकुण्ड से जोडा चुका था।”

परमार राजवश की उत्पत्ति के सम्बन्ध मे डी0सी0 गागुली ने “सीयक के सवत 4005 विक्रमी सन्‌ 948 ई0 के हर्षोल अभिलेख के आधार पर परमारो को मान्यखेट के राष्ट्रकटों से जोडा”” उनके मत मे परमारो का राष्ट्रकट होना इस बात से प्रमाणित है कि वाकपति मुज ने अमोधवर्ष श्री वललभ और पृथ्वीवललभ जैसी राष्ट्रकूत आधिया धारण की। वे परम्परो का मूल स्थान दक्षिण मे कही होने का प्रमाण अबुल फजल की आइने अकबरी से देते है जिसमे कहा गया है कि परमार वश का सस्थापक धजी (धनजय) दक्षिण से अपनी राजधानी बदलकर मालव का अधीश्वर बना।

हर्षोल अभिलेख के अनुसार -

“परम भट्टारक महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीमद्‌-- अमोधवर्ष -देव - पादानुध्यात्‌ - परम - भट्टारक - महाराजघधिराज - परमेश्वर - श्रीमद्‌ - अकाल वर्ष - देव-पृथ्वी-वल्लभ - श्री वल्लभ नरेन्द्र पादानाम्‌

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तस्मिन कुले कल्मष मोक्ष दक्षे | जात प्रतापाग्नि

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नृप श्री सीआकस्‌ तस्मात्‌ कूल - कल्प हुयो भवत्‌ सक्षेप मे इसका तात्पर्य यह है -

परम भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर अकालवर्ष देव पृथ्वी वललभ ने परम भट्टारक महाराजधिराज परमेश्वर अमोध वर्ष देव के चरणों में ध्यान किया। उस सम्राट के विख्यात कूल मे नप वसप्पैराज उत्पन्न हुआ जो अपराध को दूर करने मे दक्ष था और जिसने अपनी प्रतापग्नि से शत्रुओ को जलाया। उसका पुत्र और उत्तराधिकारी वैरि सिह था। उसका उत्तराधिकारी सीयक था जो रण मे एक वीर योद्धा था।

डी0सी0 गागुली ने सीयक द्वितीय के स0 4005 सन्‌ 9480 के हर्सोल अभिलेख के आधार पर उन्हे मान्यखेट के राष्ट्र कूटो से जोडा। उसके मत मे परमारो का राष्ट्रकूट होना इस बात का प्रमाणिक है कि वाक्पति मुज ने अमोधवर्ष श्री वललभ, पृथ्वी वललभ जैसी राष्ट्रकूट उपाधिया धारण किया। वे परमारो का मूल स्थान दक्षिण मे कही होने का प्रमाण अबुल फजल की आइने अकबरी से देते है। जिसमे कहा गया है कि परमार वश का सस्थापक धंजी (धनजय) दक्षिण से अपनी राजधानी बदल कर मालव का अधीश्वर बना।” पुन वे यह मानते है कि मालवा मे परमार राज्य की क्‍ (उपेन्द्र कृष्णराज) की स्थापना गोविन्द तृतीय के भृत्यु के रूप मे हुई

किन्तु डी0सी0 गागुली के मत मे अनेक भ्रातिया है - “हर्षोल के जिस अभिलेख के आधार पर वे परमारो को राष्ट्रकूट वश का होना स्वीकार करते है उसकी सम्पूर्ण के सबंध मे ही विद्वानो का सदेह है।” इस प्रकार किसी अभिलेख के खण्डित पाठ के आधार पर कोई निष्कर्ष निकालना समीचीन नही होगा।

अपने उक्त मत की भ्रातियो के बारे मे गागुली को भी ध्यान था। वह यह कि यदि परमार राष्ट्रकूट वश के थे तो उन्होने अन्य छोटे राष्ट्रक्ट वशों की तरह इस तथ्य का कही उल्लेख क्यो नहीं किया। इसके उत्तर मे वे स्वय कहते है कि, “उस समय कि चक्रवर्ती शासक वशो मे सामान्य रीति यह थी कि वे अपनी उत्पत्ति कुछ पौराणिक वीरो से जोडते थे और उनके नाम पर अपने राजवशो का नाम रखते थे।” इस सम्बन्ध मे वे प्रतिहारो का उदाहरण देते है जो अपना सम्बन्ध रघुवशी लक्ष्मण से जोडते है। किन्तु उनका यह तर्क इस कारण बडा सारहीन प्रतीत होता है कि प्रतिहारो कलचुरियो तथा चन्देलो के मान्य पूर्व पुरूष लक्ष्मण पुरूरवा अथवा चन्द्रात्रेय तो पौराणिक पुरूष थे किन्तु परमारो के आदि पूर्वज (परमार) का पौराणिक साहित्य मे कही भी उल्लेख नही है।”

इस सम्बन्ध में उनका यह कथन भी मान्य नही है कि चक्रवर्ती शासक वश अपने को वास्तविक पूर्वजों से जोडकर पौराणिक वीरो से जोडते थे। कल्याणी के चालुक्य चक्रवर्ती शासक थे किन्तु बादामी के चालुक्यो से अपना सम्बन्ध जोडते हुए वे गौरव का अनुभव करते थे।* इस अभिलेख के सम्पादक को उसके प्रस्तावित अशो मे राष्ट्रकट नामो के होने के कारण यह बताया गया कि परमार मातृपक्ष से राष्ट्रकटो से जुडे हुए थे और जैसे कुछ वाकाटक अभिलेखा के आरम्भ मे गुप्त _सम्राटो के भी उल्लेख किये गये है वैसे ही परमारो ने भी अमोधवर्ष और अकाल वर्ष के नामो से अपना उल्लेख आरम्भ किया। हर्सोल के जिस अभिलेख के आधार पर उक्त विवरण प्रस्तुत किया गया है। उसकी पूर्णता के बारे मे ही विद्वानों को सदेह है अत गागुली का मान्यता की पुष्टि करना असगत होगा

आइने अकबरी के इस कथन की कोई ऐतिहासिक पृष्ठभूमि नही है कि परमारो का मूल स्थान दक्षिण था। मूल शासक धजी अथवा

धनजय दक्षिण से मालवा आया। वास्तव मे धनजय नामका कोई व्यक्ति परमार अभिलेखो अथवा उनसे सम्बद्ध अन्य साक्ष्यो मे ज्ञात ही नही है।*'

“हर्सोल पदट्ट मूलत राष्ट्रकूटो का था, जिसे सीयक द्वितीय राष्ट्रकूट रनिवास की लूट में पाया था तथा उसके प्रारम्भिक भागो (लेख) को बिना हटाये उसी स्थान पर अपना लेख प्रकाशित किया। इस प्रकार एक मिश्रित दानपत्र मिलता है जो ऊपर से राष्ट्रकूट आलेख्य के रूप मे प्रारम्भ होता है किन्तु सीयक द्वितीय के आलेख्य के रूप मे अत होता है। सीयक द्वितीय का पुत्र वाकपति द्वितीय एक पग और आगे गया उसे गाओन्‍नरी पट्ट जो मूलत एक राष्ट्रकूट अभिलेख था। उस उसने मिटा ही नही दिया अपितु पृथ्वीवललभ श्री वलल्‍लभ अमोघवर्ष जैसी राष्ट्रकूट उपाधिया भी धारण कर ली।/”

इस प्रकार हर्सोल के जिस अभिलेख के आधार पर डी0सी0 गागुली आदि विद्वान परमारो को राष्ट्रकूट वश का सिद्ध करने का प्रयास कर रहे है वह केवल हर्सोल अभिलेख की पूर्णता ही सदिग्ध सिद्ध होती है अपितु यह भी सिद्ध होता है कि हर्सोल का अभिलेख परमार अभिलेख होकर मूलत एक राष्ट्रकूट अभिलेख था।

उदयादित्य परमार वश के 44वे शासक है जो भोज प्रथम के उत्तराधिकारी जय सिह प्रथम के उत्तराधिकारी है इनके शासन काल की उदयपुर प्रशस्ति धारा के परमार वश का प्राचीनतम ज्ञात शिलालेख है जिसमे इस वश की उत्पत्ति के सम्बन्ध मे जो मान्यता दी गयी है वह इस प्रकार है- “ज्ञानियो को इप्सित पुरस्कार देने वाला अर्बुद नामक पर्वत जो हिमालय का एक पुत्र है, पश्चिम मे है जहा सिद्धों को पूर्ण समाधि होती है। वहाँ विश्वामित्र ने बलात वशिष्ठ से उसकी धेनु छीनी। वशिष्ठ के बल से अग्निक॒ुण्ड से एक बीर का उद्भव हुआ जिसने शत्रु सेना का सहार किया। शत्रुओं का वध करने के बाद जब वह धेनु ले आया तब ऋषि बोले तुम परमार नाम से (राजाओ) के अधिपति होगे ।”

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उदयपुर प्रशस्ति एव नव सहसाक चरित की अग्निकुण्ड से परमार राजवश की उत्पत्ति सबधी मान्यता अनेक अभिलेखो से प्राप्त होती है। इस वश के प्राचीनतम्‌ अभिलेखो मे से एक पूर्णणाल का वसतगढ शिलालेख है जिसका कथन है कि “वशिष्ठ के क्रोध से एक वीर पैदा हुआ जिससे परमार वश की उत्पत्ति हुई |”

महान वीर परमार की अग्नि उत्पत्ति की कथा वर्णन करते हुए आबू पर्वत से प्राप्त एक शिलालेख बतलाता है कि “वीर परमार के वशजो मे एक कनन्‍्हाड था जिसके परिवार मे आबू पर्वत के चन्द्रावती नगरी का राजा धुध उत्पन्न हुआ। धुध का तादाम्य बसतगढ शिलालेख के पूर्णपाल के पिता से किया जा सकता है।”

बसतगढ शिलालेख के अनुसार आबू पर्वत के परमार शासका के वशजो मे कन्हाड नामक किसी राजा का नाम नही है अत यह सभाव्य प्रतीत होता है कि वह उत्पल राज के पूर्व हुआ। गागुली का मत है कि कन्हाड और कृष्णराज नाम पर्याय वाची है।*

आबू पर्वत शिलालेख तिथ्याकित विक्रम सवत 4287 मे एक स्थान पर सोमसिह के पुत्र और उत्तराधिकारी का नाम कन्हाड दिया हुआ है और दूसरे स्थान पर कृष्णराज

वाक्पतिमुज के उज्जैन पट्ट में इस वश के प्राचीनतम्‌ शासक का नाम कृष्णराज दिया हुआ है।”

वाक्पतिमुज के उज्जैन पट्‌ट में इस वश के प्राचीनतम्‌ शासक का नाम कृष्णराज दिया हुआ।” जिसका तादात्म्य समस्त आधुनिक विद्वान ने उपेन्द्र से किया है जो मालव मे इस वश के अधिपत्य का सस्थापक था।*

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प्राचीन अभिलेखो मे आबू पर्वत शिलालेख के कल्हाड की तरह उपेन्द्र का वीर परमार वश मे उत्पन्न होने तथा वश के प्रथम राजा के रूप में वर्णन के कन्हाड का तादात्म्य वाक्पति मुज के उज्जैन दान पत्र के कष्णराज से है।”

अपने ग्रथ में सी0वी0 वैद्य ने परमारों का मूल स्थान आबू पूर्वत से माना है और कहा कि आबू पर्वत से वे मालवा आये जहा उन्होने एक स्वतत्र साम्राज्य खडा किया।”

गौरी शकर हीराचन्द ओझा ने भी सी0०वी0० वैद्य के मत का समर्थन किया है।”

इस राजवश की उत्पत्ति के विषय मे पौराणिक स्रोतो से जो जानकारी उपलब्ध होती है वह भी परमारो की अग्निकुल उत्पत्ति की जानकारी देती है। अभिलेखो के माध्यम से जिनमे मुख्यत उदयपुर प्रशस्ति, नागपुर, शिलालेख, पूर्णणाल की बसतगढ अभिलेख तिथ्याकित 4042ई0, आबू पर्वत शिलालेख प्रथम एव द्वितीय, परमार चामुडाराज का अर्थुना शिलालेख, पाट--नारायण शिलालेख आब्‌ पर्वत शिलालेख मुख्य है आदि शिलालेख परमारो की अग्नि कुल उत्पत्ति का वर्णन करते है।

हर्सोल के जिस अभिलेख को आधार मानकर गागुली अपने उपरोक्त मत को बल प्रदान करते है वह केवल अपूर्ण है बल्कि हर्सोल अभिलेख मूलत राष्ट्रकूट अभिलेख है जिस पर सीयक द्वितीय ने अपने आलेख्य के रूप मे प्रकाशित करा दिया।” इस प्रकार डा0 गागुली की आपत्ति स्वत निरस्त हो जाती है।

आइने अकबरी के लेखक ने भी परमारो की उत्पत्ति अग्नि कुड से होने का स्वीकार करते है हालाकि इसमे ने अनुश्रुतियों को स्थान देते है किन्तु अग्निकुल उत्पत्ति की बात स्वीकार करते है |

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अथर्ववेद मत्स्य पुराण जैसे पौराणिक ग्रथ भी परमारो की अग्निकुड या अग्निकुल उत्पत्ति स्वीकार करते है जिनका वर्णन पूर्व मे किया जा चुका है। सबसे प्रमुख बात यह है कि ये सभी साधन अभिलेख वेद पौराणिक-ग्रथ इतिहासकार) परमारो की उत्पत्ति आबू के पर्वतीय क्षेत्रों और वशिष्ठ ऋषि से जोडते है। परमार अपना गोत्र सम्बन्ध वशिष्ठ से जोडते है।

परमारो के मूल को उद्घाटित करने वाले महत्वपूर्ण साक्ष्य है हलायुध की पिगलसूत्रवत्ति जिसका लेखक अपने आश्रयदाता वाक्पति मुज को व्रहमक्षत्रकुलीन कहता है।” इसकी परिभाषा देते हुए मत्स्यपुराण स्पष्ट कहता है, “ब्रहमक्षत्र की योनि जाति कलियुग मे राजाओ की क्षेमकारी सस्था बनकर देवर्षियो द्वारा सत्कृतवश होगी“। पुराणो और महाकाव्यो मे ब्रहमबल और क्षत्रबल की परस्पर प्रतियोगिता के अनेक कथानक आते है किन्तु आदर्श यह माना गया है कि लोक कल्याण के लिए वे दोनो ही साथ-साथ काम करे |

क्षत्र के प्रतीक विश्वामित्र से लडने के लिए ब्रहम के प्रतीक वशिष्ठ की परमार रूपी जो शक्ति तैयार हुईं वही ब्रहमक्षत्र थी जो आगे चलकर राजत्व ग्रहण कर क्षत्रिय बन गई। परमार अपने गोत्रोच्चार मे स्वय को वशिष्ठ गोत्री मानते है जो वशिष्ठ से उनके मूल सबंध का द्योतक है। अत परमारों को मूलत वशिष्ठ गोत्री क्षत्रिय स्वीकार करना चाहिए।* “उपेन्द्रराजो द्विजवर्ग्गरत्न शैर्याजितोत्तुग्नृपत्वमाण “|

सी0वी0 वैद्य ने इगित किया है कि '्रहमक्षत्र शब्द का प्रयोग उन क्षत्रियों के सबध मे किया जाता था जो ब्रहमगुण से युक्त थे अर्थात जिनका सम्बन्ध वैदिक ऋषियों से था।

परमार उपेन्द्र के मालव सिहासनरोहण की तिथि अब निश्चित की जा चुकी है। परमार उपेन्द्र का वशज वाक्पति मुज तो सातवा नृप था| 974 और 972 ई0 के बीच सिहासनरूढ हुआ। यदि प्रत्येक नप के लिए

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सामान्यत 25 वर्ष की अवधि निश्चित की जाय तो उपेन्द्र का राज्यारोहण नवी शताब्दी के प्रथम चरण मे होना माना जायेगा।” ऐसा ही मानना इतिहासकार बुल्हर का भी है - उपेन्द्र मालव सिहासन पर 808ई के कुछ पश्चात्‌ गद्दी पर बैठा।”

सामान्यतया यह स्वीकार किया जाता है कि प्रतिहार वश की पराजय के बाद सन्‌ 808 और सन्‌ 842 ई0 के बीच के वर्षों मे प्रशासन का भार एक नये शासक माण्डलिक ने ग्रहण किया। इसका उपेन्द्र के जीवनकाल की अवधि मे तादात्म्य बैठता है। किसी निश्चित साक्ष्य के अभाव मे उपरोक्त तथ्य उस माण्डलिक से उपेन्द्र के तादात्म्य के पक्ष मे है। जिसको गोविन्द तृतीय ने मालव प्रदेश पर शासन करने के लिए नियुक्त किया था। सम्भवत वह राष्ट्रकूट सेना के उत्तरी प्रयाण मे साथ था और उसकी मूल्यवान सामरिक सेवा के बदले मे उसको यह पद सौपा गया

था 37

था।

उदयपुर प्रशस्ति का कथन है कि “परमार उपेन्द्र ने अपने शौर्य से राजपद प्राप्त किया था।*

उपेन्द्र के बाद परमार राजाओं की एक वशावली चली जिसने लगभग 500 वर्षों तक शासन किया उस समय तक जब तक कि यह राजवश मुसलमानो द्वारा अतिम रूप से पराजित नहीं कर दिया गया।

मालवा के परमारों के अलावा इनके चार और शाखा वश थे आबू शाखा, बागड शाखा, जालौर शाखा, और भिनमाल शाखा। जिनका आधिपत्य क्रमश आबू पर्वत बासवाडा राजपूताना के जोधपुर राज्य और भिनमाल के क्षेत्रों पर था।

चामुण्डराज के अर्थनाशिलालेख तिथ्याकित 4080 ई० तथा माण्डलिक के शिनेहरा शिलालेख तिथ्याकित 4059 ई0” से बागड या वासवारा के परमारवश के इतिहास का पता चलता है। इस वश की उत्त्पत्ति

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वीर परमार से रेखाकित की जाती है जो आब्‌ पर्वत के अग्निकुड से उत्पन्न हुआ था। इस वीर के वश मे वैरिसिह पैदा हुआ जिसका छोटा भाई डबम्बर सिह था। उपरोक्त अतिम राजकुमार के वश मे कक्‍कदेव नाम का एक राजा था जिसके बाद युवराजों की एक लम्बी वशावली चली। डा0 बार्नेट और डी0सी0 गागुली दोनो ही इस बात से सहमत है कि वैरि सिह का उपेन्द्र कृष्णराज के पुत्र और उत्तराधिकारी वैरि सिह प्रथम से तादात्म्य है | अत इससे यह प्रमाणित होता है कि यह परमारवश धारा के मुख्य वश का एक सपिण्ड शाखा था जो नवी शताब्दी ईसवी के मध्य बासवारा से बसा।

पूर्णाल का बसतगढ अभिलेख परमार वश का प्राचीनतम्‌ ज्ञात अभिलेख है जिससे प्रमाणित होता है कि आबू पर्वत पर एक परमार वश ने बहुत समय तक राज्य किया तो राजपूताना मे आघुनिक सिरोही के पास है। बसतगढ अभिलेख का समर्थन अनेको अभिलेखोा ने किया है। उक्त अभिलेख का कथन है कि “वशिष्ठ के क्रोध से एक बीर पैदा हुआ जिससे परमार वश की उत्पत्ति हुई

महान वीर परमार की अग्नि उत्पत्ति की कथा वर्णन करते हुए आबू पर्वत” से प्राप्त एक शिलालेख बताता है कि 'बीर परमार के वशजो मे एक कन्हाड था जिसके परिवार मे आबू पर्वत के चन्द्रावती नगरी का राजा घघु उत्पन्न हुआ। घघु का तादात्म्य बसतगढ शिलालेख के पूर्णपाल के पिता से किया जा सकता है। डी0सी0 गागुली का यह मत है कि कन्हाड और कृष्णराज नाम पर्यायवाची है।” उन्होने इसका आधार यह माना है कि आबू पर्वत के वि॑ठएस0 4287 के दो तिथ्याकित शिलालेखो मे एक स्थान पर सोमसिह के पुत्र और उत्तराधिकारी का नाम एक स्थान पर कनन्‍्हाड दिया हुआ है और दूसरे स्थान पर कृष्णराज |

समस्त आधुनिक विद्वानों ने” वाक्पति मुज के उज्जैन दानपट्ट वर्णित इस वश के प्राचीनतम्‌ शासक कृष्णराज का तादात्म्य उपेन्द्र

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से किया है जो मालव मे परमार वश का सस्थापक था।

जालौर से प्राप्त एक शिलालेख तिथ्याकित वि0स0 4474 सन्‌ 4447 ई0 से जालौर शाखा के परमारो की जानकाशी प्राप्त होती है। इस अभिलेख की वशावली वाक्पतिराज से आरभ की गई है जिसका पुत्र चन्दन था। चन्दन प्रत्यक्ष दशवी शती ईसवी के अतिम चरण मे जीवित था जो वाक्पति मुज के शासनकाल (973--996 ई0 की भी अवधि थी |” डा0 गागुली एव डा0 भण्डारकर के अनुसार जालौर शिलालेख का वाकपति स्पष्ट रूप से धारा वाक्पति मुज था |

मिनमाल शाखा के बारे मे मुख्य जानकारी केराडु के एक मदिर की दीवाल के एक उत्कीर्ण लेख से प्राप्त होती है। (यह अभिलेख अप्रकाशित है ) जिसकी तिथि वि०0 स0 4248 सन्‌ 4464 ई०0 है। इसमे सिधुराज का वर्णन इस वश के प्राचीनतम्‌ पूर्वज के रूप मे किया गया है जिसका पुत्र और उत्तराधिकारी दसल था। इस सिन्धुराज का तदात्म्य सभवत वाक्पति मुज के कनिष्ठ भ्राता और उत्तराधिकारी से किया जा सकता है। यह प्रमाणित है कि वाक्पति मुज अपनी सामरिक अभियान यात्रा मे एकबार मारवाड प्रदेश तक गया था। सभव है उसी अवधि मे धारा के चक्रवर्ती वश के उपराजाओ के रूप मे चन्दन और दूसल जालौर और भीनमाल मे यथाक्रम नियुक्त किये गये हो।

उपरोक्त विवेचन एव साक्ष्यो के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि परमारो की उत्पत्ति आबूपर्वत पर अग्निकुण्ड से हुई। परमार अपनी उत्पत्ति का स्रोत ऋषि वशिष्ठ से मानते हुए स्वय को वशिष्ठ गोत्री क्षत्रिय स्वीकार करते है। वशिष्ठ ऋषि से परमारो की उत्पत्ति का तदात्म्य स्वीकार करते हुए पुराणो मे परमारो को व्रह्मक्षत्रिय कहा गया है।

परमारों का राजचिन्ह गरूड था |” उत्सवो, विजयो एव अन्य महत्वपूर्ण अवसरों पर ये अपना राज चिन्ह युक्त ध्वज “गरूड ध्वज' स्थापित

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होने का प्रमाण देते है। अधिकाश परमार शासक शैव थे कितु शाक्र वैष्णव, सौर एव अन्य हिन्दू सम्प्रदायो की उपासना का उल्लेख अभिलेखो मे है जो उनके धर्म सहिष्णु होने का प्रमाण देते है। परमारो का राजचिन्ह सदैव गरूड ही था। जिसका उल्लेख इतिहासकारो द्वारा किया गया है।

परमारो के वशिष्ठ गोत्रीय क्षत्रिय होने का प्रमाण मनुस्मृति, यज्ञवल्वयस्मृति, उदयपुर प्रशास्ति मत्स्यपुराण एव पिगलाचार्य के छन्दशास्त्र एव अन्य समकालीन ग्रथो से मिलता है।

मालवा के अलावा परमारो के चारो प्रमुख वशों बागड शाखा, भिनमाल, आबू और जालौर के परमारो से सम्बधित साक्ष्यो से जो जानकारिया मिलती है उनके अनुसार वाक्पतिराज मुज ने जालोर भिनमाल और आबू पर्वत पर तीन नये अवस्थान बनाकर अपने परिवार के राजकुमारो को वहा के शासक नियुक्त किया। इन सब अवर परिवारों मे से आबू के परमारो की विशिष्ट राजनीतिक सफलताओ के कारण उनका वर्णन प्रथमत किया जाना उचित है।

जिस समय आबू शाखा का प्रभुत्व था वह अर्बुद मण्डल के नाम से विश्यात था।” इसका कम से कम विस्तार पूरब मे दिलवारा, दक्षिण मे पालनपुर और उत्तर मे गाद्वा जनपद तक था।” पश्चिम की ओर इसकी सीमा पर भिनमाल के परमारो के प्रदेश थे। राजधानी चन्द्रावती थी।* जो राजपूताना के सिरोही राज्य के दक्षिण पूरब के समीप बनस नदी के तट पर स्थित था। इस समय यह नगर पूर्ण ध्वसावस्था मे है।'उत्पल का पुत्र अरण्यराज अपने वश का सर्वप्रथम राजकुमार था जो इस प्रदेश का अधीश्वर बना। उसके बाद महान कीर्तिवान अद्भुत कृष्णराज सिहासनासीन हुआ | हेमचन्द्र कृत द्वयाश्रयमहाकार्व्य वर्णन करता है कि अर्बुद के राजा ने सौराष्ट्र के माण्डलिक ग्रहरिपु के विरूद्ध युद्ध में गुजरात के चौलुक्य मूलराज

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(944--99 ई०0) को सहायता दी। हो सकता है कि उपरोक्त आबू का राजकुमार उसका पिता अरण्यराज हो। (धारा के परमारों की वशावली प्रस्तुत अध्याय के अत में सलग्न है) इस वश का सर्वाधिक प्रतापी शासक धारावर्ष था। बहुत वर्षों तक वह आबू के सिहासन पर आरूढ रहा। उसके शासनकाल के अनेक अभिलेख पाये गये है।

सिरोही राज्य के कयद्र नामक स्थान के मन्दिर के समीप छाजन मे एक शिलालेख पाया गया है जिसमे लिखा है कि सवत्‌ 4220 वि0 ज्येष्ठ पूर्णिमा शनिश्चर को मई 4433 ई0 को महाराजाधिराज महामण्डेश्वरा धारावर्ष देव ने फूलह गाव को करो की छूट दी जिसका स्वामी मन्दिर का भट्टारक देवेश्वर था। मई 4433 ई0 से जनवरी 4247 ई0 तक आबू शाखा के धारावर्ष के सात अभिलेख पाये गये है। जो इस महान योद्धा की उपलब्ध्यि का उल्लेख करते है। धारा वर्ष स्वय शैव था और उसने अनेक शैव मठो एव मन्दिरो का निर्माण कराया।

धारावर्ष महान योद्धा था और वाणविद्या मे अपनी निपुणता के लिए विख्यात था एक अवसर पर उसने सफलता पूर्वक एक ही वाण से एकमात्र प्रहार से तीन भैसो को भेद दिया। इस निष्यत्ति का उत्सव मनाने क॑ निमित आबू पर्वत पर अचलेश्वर मन्दिर के बाहर मन्दाकिनी सागर के किनारे उसकी एकमूर्ति बनाई गई जिसमे उसके हाथ में एक धनुष था और उसके सामने तीन भेसे पडे थे जिनके कि पेट फटे थे। यह- मूर्ति अब भी पूर्व स्थिति मे है। राजा के शासन का मत्री कोविदास था।

आबू पर्वत राजपूताना मालवा रेल पथ पर आबू स्टेशन से 47मील उत्तर पश्चिम मे 24? 36 उत्तर और 72" 43 पूर्व है। समुद्रतल से यह 4000 फिट ऊँचा है और इसकी चोटी पर लगभग 42 मील लम्बा और लगभग 3 मील चौडा एक पठार है और यह अपने आकर्षक दृष्य के कारण अत्यत मनमोहक है। बनस और मन्दाकिनी नदिया इसमे से होकर बहती है

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और 4,/2 मील लम्बी ओर 4/4 मील चौडी नखी तालाब मे इस स्थान का सौन्दर्य और बढ गया है। यशोधवल और धारावर्ष का समकालीन हेमचन्द्र लिखता है कि अर्बुद देश मे जिस समय परमारो का शासन था 4800 ग्राम थे किन्तु अब तक ज्ञात तत्कालीन अभिलेखो से केवल 40 ग्रामों आर 3 नगरो चन्द्रावती, प्रहलादनुपुर और पटपुर का उल्लेख मिलता है। इन ग्रामो के निवासी या तो हिन्दू धर्म को मानते थे या जैन धर्म को। आबू शाखा के परमार राजकुमाराो की राजधानी चन्द्रावती एक बहुत महत्वपूर्ण नगर था पूर्व मे पहाडियो से दक्षिण मे शिववनन नदी से और उत्तर पश्चिम में बनस नदी से घिरा है। प्राचीन काल मे इस नगर मे असख्यो बडे-बडे भव्य मन्दिर थे जो इस समय पूर्ण ध्वसावस्था मे है। यहा पूर्ण सुरक्षित अवस्थाये है। यह पूरा का पूरा श्वेत सगमरमर का बना वैदिक धर्मी वास्तुकला का सर्वेष्कृष्ट नमूना है। यह प्रचुर मात्रा मे अलकृत और इसके रूपाक ललित है। इनमे 438 मूर्तिया है जिनमे से सबसे छोटी गवाक्षों मे रखी है।

आबू पर्वत के बारे मे सोमेश्वर ने लिखा है, “यहा यह अर्बुद है जो पर्वत श्रेणी की एक चोटी है ओर गौरी पति के श्वसुर अर्थात्‌ पर्वत का पुत्र है। मेघो से गथित यह अपने शीर्ष पर मन्दाकिनी को लिये हुए है और इस तरह से चद्रेश्वर अपेन भवनापति का वेश धारण किये हुए है (जिस तरह से शिव अपने जूट शीर्ष पर गगा को लिये हुए है)”

हेम चन्द्र का कथन है कि आबू पर्वत सस्कृत_विधा का एक केन्द्र था जहा पर भारत के विभिन्‍न भागो से विद्वान अध्ययननार्थ आते थे। युवराज प्रहलादन एक महान कवि था और उसने “यार्थपराक्रम' नामक एक नाटक की रचना की | बागड शाखा वर्तमान बासवाडा और डृगरपुर राज्य राजपूताना के दक्षिणी सीमा पर स्थिति है। प्राचीन काल मे इन दोनो प्रदेशों को एक ही नाम था बागड | वर्तमान अर्थुज्ञा ग्राम मे जो बासवाडा से 28 मील दूर पश्चिम मे है

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एक प्राचीन नगर के भग्नावशेष तथा लगभग एक दर्जन हिन्दू और जैन मन्दिरो के अवशेष विस्तृत मिलते है। स्थानीय अनुश्रुति के अनुसार इसका प्राचीन नाम अमरावती था और प्रत्यक्षत यही बागड शाखा परमारो की राजधानी थी। बागड के परमार राजकुमार उपेन्द्र कष्णराज के छोटे पुत्र डम्बर सिह के बशज थे।*

इस वश का प्राचीनतम्‌ ज्ञात शासक धनिक" है जिसका समय दशवी सती ई० के मध्य मे है। उसने महाकाल के मन्दिर के समीप उज्जैन मे धनेश्वर का मदिर बनवाया था| उसका उत्तराधिकारी चच्च या कवक का कक मालवा थे सीयक हर्ष का समकालीन तथा एक वीर योद्धा था। मान्यखेट के राष्ट्रकट खोदिटग के विरूद्ध किये गये अभियान मे वह सीयक की सेनाओं के साथ गया था। चच्च के बाद चडप और चडप के बाद सत्यराज सिहसनारूढ हुआ। सत्यराज भेज का समकालीन था ओर परमार भोज की ओरे से गजरात के चालुक्यो के विरूद्ध लडा था।” गुर्जरो पर उसकी विजय का वर्णन पन्हेर अभिलेख मे है। उसने राजश्री नामक चाहमान राज कुमारी से विवाह किया जिससे लिम्बराज और मण्न्न या मण्डलीक नामक दो पुत्र हुए जो क्रमश उसके बाद सिहासन पर बैठे। मण्डलीय मालवा के राजा जय सिह 4059 ई0०0 का सामन्त था। वह एक महान योद्धा था। मण्डलीक के बाद उसका पुत्र चामुण्डराज सिहासन पर बैठा। उसके चार अभिलेखो का पता चलता है। विजय राज इस शाखा का अतिम ज्ञात शासन था जो (440--4475 ई0) तक था।*

जालौर शाखा - वाक्यतिराज से इस वश शाखा का आरम्भ होता है जिनका पुत्र चन्दन इस शाखा का प्रथम युवराज है। उसके बाद देवराज, अपराजित, विज्जल, धारावर्ष और बीसल हुए। वीसल के शासन काल का एक अभिलेख जालौर मे “तोपखाना” नामक भवन मे पाया गया है। बीएल की राज्ञी मललर देवी सिधुराजेश्वर के मन्दिर मे स्वग्न कलश की

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स्थापना के अवसर पर स0 4474 विक्रमी सन्‌ 447 ई० मे एक अभिलेख उत्कीर्ण कराया गया था। वीसल के उत्तराधिकारियो के बारे मे कुछ ज्ञात नही है।

भिनज्नमाल शाखा - परमावश की भिन्‍नमाल शखा ने इस काल के इतिहास मे प्रचुर योगदान दिया। इस वश के राजाओ ने मरूमण्डल की उपाधि धारण की पश्चिम मे बालमेर (जोधपुर राज्य) तक उनका राज्य विस्तार था और उनकी राजधानी श्रीमाल थी जिसका वर्तमान नाम भिन्‍नमाल है। भिन्‍नमाल जोधपुर राज्य मे जोधपुर से एक सौ मील दक्षिण-पश्चिम मे है।

किरडु अभिलेख से इस वश शाखा के परमार शासको के बारे मे पता चलता है। सिधुराज के पुत्र दूसल ने दशवी शती के उत्तरार्द्ध मे अपने चाचा वाकपतिराज से मरूमण्डल का राजय प्राप्त किया था। इस नप का एक बार उल्लेख आने के बाद फिरडू अभिलेख की कुछ पक्तिया खण्डित और अव्यक्त है। उसके नाम के बाद युवराज देवराज का नाम आता है। देवराज के शासन का एक अभिलेख मिला है।” इस पर स0 4059--4002 ई०0 अकित है। यह उस समय प्रकाश मे लाया गया था जिस समय राजा श्रीमाल (भिननमाल मे रह रहे थे |

देवराज का नाम आने के बाद किरडू अभिलेख की कुछ और पक्तिया खण्डित है। सभवत इनमे धन्धुक का नाम रहा होगा। इसके बाद कृष्णाज नाम आया है। इसके शासन काल के दो अभिलेख मिल है, प्रथम अभिलेख भिनमाल नगर के एक विश्रामालय के स्तम्भ से प्राप्त होता है। यह अभिलेख परमार देवराज के पौत्र, धन्धुक के पुत्र मध्य राजाधिराज श्री कृष्णराज के शासन काल मे स0 4447 ई0 सन्‌ 4060 मे प्रकट किया गया जब वह श्रीमाल मे शासन कर रहे थे। दूसरा अभिलेख तिथ्याकित स0 4423 सन्‌ 4066 ई0 भिनन्‍नमाल जगस्वामी के मन्दिर के एक स्तम्भ पर पाया गया

इसमे भी विख्यात किया गया है कि कृष्ण राज श्रीमाल मे राज कर रहे ओर उनकी उपाधि महाराजाधिराज है। भगवान चण्डीश महादेव की सेवा मे सलग्न धर्माधिकारियो के अनेक सेवकों के नाम की इसमे पजीकृत है। कृष्णााज के बाद इस वश शाखा की शक्ति क्षीण होने लगी। इस वश के अतिम शासक जयसिह 4465-4483 ई0 थी |

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परमारों की राजनीतिक उत्त्कर्ष

उपेन्द्रराज (लगभग 790--887 ई0) - परमार राजवश मे सर्वप्रथणभ शासक का नाम उपेन्द्रराज ज्ञात होता है। उदयपुर प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि उसने अपने निजी शौर्य से राजत्व का उच्च पद प्राप्त किया। उसने तत्कालीन क्षुबद्ध राजनीतिक परिस्थितियो का लाभ उठाते हुए अपनी स्वतत्र सत्ता स्थापित की। उपेन्द्र ने अनेक यज्ञों का भी सम्पादन किया |

नवसहसाक चरित - (44वा, 76-78) उपेन्द्र को प्रजाओ पर लगने वाले करो मे कमी करने का श्रेय देता है। कदाचित्‌ अपनी सत्ता के दृढीकरण के उद्देश्य से प्रजारजन के लिए उसने यह कदम उठाया उसके राजदरबार मे सीता नाम कवयित्री रहती थी।

प्रथम वैरिहसह - (लगभग 848-842 ई0०0) उपेन्द्र की रानी लक्षमी देवी से वैरि सिह ओर डम्बरसिह नाम दो पुत्र हुए। वैरि सिह मालवा प्रथम जैसे उततराधिकारी हुआ। नागभद्‌ट द्वितीय और भोज प्रथम जैसे शक्तिशाली सम्राटों का समकालिक होते हुए उसे महत्वपूर्ण विजये प्राप्त करने का अवसर नही प्राप्त हुआ।

प्रथण सीयक और एक अन्य शासक - (लगभग 844-893 ई0) वैरि सिह के पुत्र और उत्तराधिकारी सीयक प्रथम के बारे में कोई विशेष जानकारी नही है। या तो वह अत्यल्पशासा था अथवा वश की प्रतिष्ठा को किसी प्रकार अघात पहुँचाने वाला था जिसका उल्लेख परमार कवि और प्रशस्तिकार नही करना चाहते थे |

प्रथम वाकपति (894--920 ई0) - इसका नाम कृष्णााज और उपनाम वाक्पति हुआ / उदयपुर प्रशस्ति के अनुसार शतमुख (इन्द्र) तुल्य वह अवन्ति की कुमारियो के नेत्रोत्पलो के लिए सूर्य था। अवन्ति पर उसका दृढ अधिकार था।

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द्वितीय वैरि सिह - (लगभग 924-945 ई0०0) - वाकपति का पुत्र वैरि सिह बज्रट स्वामी प्रथम ओर महेन्द्राल द्वितीय थे। उनकी कठिनाइयो से लाभ उठाते हुए उसने धारा की विजय की। थोडे समय बाद महीपाल प्रथम ने वैरि सिह को धारा से हटाकर पुन अपना अधिकार स्थापति किया। सोढदेव के कहल अभिलेख से ज्ञात होता है कि कलचुरि सामन्त गुणाम्बोधिदेव के पौत्र भायान ने धारा की विजय कर याश प्राप्त किया। गुणाम्बोधिदेव भोज प्रथम का सामन्‍त था। अत यह निश्चित है कि भामान ने धारा की विजय भोज के पौत्र महीपाल की ओर से ही की | यह मान्य है कि अवन्ति मे प्रतापगढ ओर मन्दसौर के आस-पास के प्रदेश प्रथम महीपाल द्वारा ही विजित किये गये होगे। पर यह निश्चित रूप से यह ज्ञात नही है कि माण्डू और धारा के आसपास के क्षेत्रो से निकाले जोने के बाद परमारो ने कहॉ जाकर अपनी रक्षा की |

हर्ष, सीयक द्वितीय - (लगभग 945-972 ई0) - महीपाल के कमजोर उत्तराधिकारी अपनी महान्‌ विरासत की रक्षा नही कर सके। तत्कालीन अस्थिर राजनैतिक परिस्थितियो मे वैरिसिह के पुत्र और उत्तराधिकरी हर्षदेव, उपनाम सीयक को परमार सत्ता की नीव मजबूत करने का सुनहारा अवसर मिल गया। परमार राजवश के प्रारम्भिक शासको मे उसकी राजनीतिक उपलब्धियाँ सबसे अधिक और महत्पूर्ण थी। ये उपलब्धियां उसकी सैनिक प्रतिज्ञा और राजनीतिक सूझ-बूझ का परिणाम थी। सीयक अपने शासन के प्रारम्भिक वर्षों (949 ई०) में महाहराजाधिराज पति और महामण्डलिक चूडामणि” की अर्द्धस्वतत्रता सूचक उपाधिया ही धारण करता था, किन्तु शीघ्र ही अनेक युद्धों के माध्यम से पूर्ण स्वतत्र होकर परमार सत्ता के चतुर्दिक विकास मे वह अग्रसर हो गया। उसका हार्सोल अभिलेख” योगराज नामक किसी शत्रु पर उसी विजय का उल्लेख करता है। अभियान की समाप्ति के बाद उसने यही नदी के तीर पर अपना खेमा डाला और खेटकमण्डल के अधिपति के कहने से मोहडवासक विषय के कुम्भाराहटक ओर सीहका नामक गॉवो का दान किया

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नवसाहसाकिचरित (44वा, 90) से ज्ञात होता है कि सीयक ने हूण राजकुमारे को मारकर उनके रनिवासो को वैधव्य ग्रहों में परिवर्तित कर डाला। इस सदर्भ का हूण क्षेत्र सम्भवत परमार क्षेत्रों के दक्षिण पूर्व मे इन्दौर और महू के आस-पास का प्रदेश था जिसे जीतकर सीयक ने अपने राज्य मे मिला लिया

सीयक को सर्वप्रमुख सैनिक सफलता उसके शासकीय जीवन के अतिम भागो मे राष्ट्रकूट सत्ता के विरूद्ध प्राप्त हुई। सीयक का सबसे जबरदस्त प्रहार कृष्ण तृतीय के छोटे और उत्तराधिकारी खेोटिग (967-978 ई0) पर हुआ। उदयपुर प्रशस्ति के अनुसार सीयक ने भयकरता मे गरूण की तुलना मे करते हुए राजा खादिग की लक्ष्मी युद्ध मे छीन ली।* अर्युना अभिलेख के अनुसार राष्ट्रकूट सेनाओ के विरूद्ध नर्मदातीर पर लडे गये इस युद्ध मे बागड की परमार शाखा के ककदेव (कर्कदेव) ने लडते हुए वीरगति पायी” एक अन्य अभिलेख” से ज्ञात होता है कि परमार राष्ट्रकूट सेनाओ की इस मुठभेड का स्थान नर्मदा नदी के किनारे खालिघट्ट नामक स्थान था।

सीयक द्वितीय के साम्राज्य की सीमा उत्तर मे बासवाडा क्षेत्र, दक्षिण मे दर्मदा पश्चिम मे महीनदी के किनारे खेटकमण्डल (खेडा और अहमदाबाद) तथा पूर्व मे भिलासा तक विस्तृत थी

द्वितीय वाकपति, मुणराज - (लगभग - 9०73-996 ई0) - सीयक द्वितीय का पुत्र वाकपति द्वितीय लगभग 97३ ई० में परमार राजगइड्द्दी का उत्तराधिकारी हुआ।” वाकपति मजराज और उत्पलराज के नामो से भी सस्कृत साहित्य मे ज्ञात है।”

वाकपतिराजमुज परमार साम्राज्य का सस्थापक ही नही अपितु प्रशासकीय एव सास्कृतिक क्षेत्रों में मालवा की बहुमुखी उन्‍नति का क्रियाशील प्रारम्भ कर्ता था। वास्तव में सास्कृतिक क्षेत्रो मे मालवा की बहुमुखी उन्नति

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का क्रियाशील प्रारम्भ कर्ता था। वास्तव मे सास्कृतिक क्षेत्रो मे उसकी कीर्ति उसके श्रातृज भोज के यश और गौरव से इतनी आच्छादित हो गयी कि उसका ठीक-टठीक मूल्याकन दब सा जाता है। व्यापक दृष्टि से देखने पर यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि भोज की बहुमुखी सफलताओ और बौद्धिक उपब्धियो की आधारशिला भुज ने ही रखी थी। राष्ट्रकूट उपाधियाँ धारण की।'

वाकपति ने सम्भवत सबसे पहला सैनिक अभियान मेवाड के गुहिल राज्य के विरूद्ध किया। हस्तिकृष्डी (हपुण्डी) के राष्ट्रकूट शासक धवल के बीजापुर अभिलेख (वि0स0 4053 अर्थात 997 ई0) मे कहा गया है कि वाकपति ने मेदपार के गर्वस्वरूप आघाट (नगर) को नठकर भागते हुए गुहिल राजा (शक्तिकुमार) को धवल के यहाँ शरण लेने हेतु विवश किया।” इस युद्ध मे गुहिल राज्य की ओर से कोई गुर्जर शासक (गुज्जरेश) भी लडा था। किन्तु उसकी भी शक्तिकुमार जैसी ही दशा हुई थी। उसने भी हरिण की तरह भयभीत होकर अपनी सेनाए धवल के यहा शरण के लिए भेजी |” पद्यगुप्त इस गुर्जर शासक की विपन्नता की विशेष चर्चा करता हुआ अपने काव्यात्मक ढग मे उसके मारवाड की धूल फाकने तथा उसकी रानी की भयात्तक का उल्लेख करता है।”

गुजरात के अभिलेखो और जैन साहित्य मे जहॉ यह चर्चा है कि चाहमान आक्रमण की विपत्ति के समय वह कन्या दुर्ग में छिपने को विवश हुआ, वहाँ वाक्पति से उसकी पराजय अथवा तजज्न्य विपत्तियो का कोई उल्लेख नहीं है। अत बीजापुर अभिलेख के गुर्जरेश की पहचान कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार राज्य के किसी प्रतिनिधि से की जानी चाहिए | असम्भव नही है कि वह विजयपाल रहा हो।

मुजराज का चाहमानो से सघर्ष के अनेक साक्ष्य प्राप्त होत है। जिनमे मुजराज की चाहमानो पर विजय और पुन चाहयानो की मुंजराज के

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विरूद्ध सफलता के उल्लेख है। नवसाहसाकचरितर_ के अनुसार वाकपति के यशप्रताप से मारवाडी स्त्रियो के हृदयस्थली हारो के मोती नाचने लगते थे। कल्याणी के चालुक्य राजा पचम विक्रमादित्य के कौथेम अभिलेख का कथन * है कि उत्पलराज के आगमन से मारवाड के लोग कॉपने लगे। किन्तु नाडोली चाहमानो के निजी अभिलेख परमाराो पर अपनी विजय का दावा करते है। निष्कर्ष यह निकलता है कि भुजराज के नेतृत्व मे प्रारम्भ की वह कई दशकों तक चलती रही।” इस सघर्ष के आबू के परमार मालवा के परमारो के साथ थे।

द्वितीय वाकपति ने हूणो का भी दमन किया | परमार इतिहास में द्वितीय सीयक से लेकर सिन्धुराज के समय तक बराबर उनके सघर्षों के उल्लेख मिलते है।” गाओन्‍टी अभिलेख मे यह उल्लेख है कि उसने हूणमण्डलान्तर्गत स्थित वणिका ग्राम ब्राह्मणो के लिए दान किया।” हूणो की भजराज के हाथो पराजय और विनाशक का प्रमाणीकरण चालुक्यराज पचम विक्रमादित्य के कौथेम अभिलेख (इए0,जि०0 46, पृ० 23) से भी होता है।

दक्षिण पूर्व मे वाकपति मुजराज ने त्रिपुरी के कलचुरी राजा द्वितीय युवराज की युद्ध मे करारी मात देकर उसकी राजधानी पर थोडे दिना के लिए अधिकार कर लिया।* किन्तु कलचुरि राजधानी पर वाकपति का अधिकार थोडे ही दिनो तक रहा और वाकपति ने कलचुरियो से सघिकर उनका राज्य लौटा दिया" उदयपुर प्रशस्ति इस बात का दावा करती है कि 'लाट' कर्णट, चोल और केरल के राजे वाक्पति के पदकमल अपने शिरोरत्नो से सुशोभित करते थे

दक्षिणापथ (कर्णाट) के शासक द्वितीय तैलप के विरूद्ध युद्ध मे वाकपति को असमान देखना पडा। सफल सैनिक विजेता के रूप मे प्राप्त उसकी यश कीर्ति दक्षिण मे लुप्त हो गया और वहाँ वह मारा गया। तैलप की मुज से छह बार मुथभेड हो चुकी थी और हर बार मुज ने उसे हराया

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था। किन्तु छठी बार मुज का दुखद अत हुआ। आगे चलकर मुज का दुखद अत चिरस्थायी चालुक्य परमार शत्रुता का एक प्रमुख कारण बना।

सिन्धुराज - लगभग (996-4040 ई0) वाकपति मजुराज के सम्भवत कोई पुत्र था इसलिए उसने अपने छोटे भाई सिन्धुराज को अपना युवराज नियुक्त किया था जो उसकी मृत्यु के बाद राजा हुआ। वास्तव में मुज और भोज जैसे दो महान्‌ शासको के बीच मे पड जाने से उसका इतिवृत्त खुलकर सामने नही पाता |

दक्षिणी युद्ध के परिणामस्वरूप मुज की मृत्यु सारे परमार राजवश को कॉटे की भांति चुभ रही थी। अत सिन्धुराज का पहला सैनिक अभियान तज्जन्य अपमान ओर भूमिहानि को दूर करने के लिए हुआ। पद्मगुप्त” कहता है कि उसने कुन्तलेश्वर द्वारा अधिकृत अपना राज्य (स्वराज्य) अपनी तलवार के बल से प्राप्त किया। “कुन्तलेश्वर” से कल्याणी के चालुक्य शासक सत्याश्रुय से तात्पर्य है। जो तैलप द्वितीय का पुत्र और उत्तराधिकारी (997-4008) ई0 था। अपने पिता की ओर से मुज के विरूद्ध युद्ध मे वह भाग ले चुका था।” सत्याश्रय का अपने राज्य के दक्षिण मे चोल राजा राजराज (985-4044) से युद्ध मे फेंस जाना सिन्धुराज की सफलता के लिए अच्छा अवसर साबित हुआ |

नवसहसाकचरित (44वा, 48) कोशल पर उसकी विजय का उल्लेख करता है। उससे पराजित राजा की पहचान कलचुरिवशी कलिगराज से की गयी है।” अपने राज्य के पश्चिम और दक्षिण पश्चिम मे सिन्धुराज ने लाट, अपरात और पुरल की विजये की | नवसहसाकचारित (40वा, 47) उसकी लाट विजय का उल्लेख करता है। लाट से समुद्र के किनारे होता हुआ दक्षिण-पश्चिम मे और आगे बढकर कोकण (अपरात) के शिलाहार राजा को भी सिन्धुराज ने पराजित किया

सिन्धुराज का दक्षिणी पश्चिमी अभियान एक दिग्विजय जैसी

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उपलब्;धि प्रतीत होती है। पद्मगुप्त उस दिशा मे जिस विजित अतिम राज्य का उल्लेख करता है वह मुरल था। सिन्धुराज की मुरलविजय धर्मविजय मात्र प्रतीत होती है।

उत्तर में सिन्धुराज की सर्वप्रमुख उपलब्धि हूणो का दमन प्रतीत होती है। इसका उल्लेख नवसहसाकचरित (40वा, 44) के अतिरिक्त उदयपुर प्रशस्ति (एड0, जि04,पृ० 235) मे भी मिलता है।”

सिन्धुराज की सैनिक उपलब्:धिया प्रभूत थी। किन्तु गुजरात के चालुक्य शासक चामुण्डराज (997-4009 ई0०) से उसका युद्ध हुआ और उसमे उसकी पराजय हुई।” राजनैतिक और सैनिक सफलताओ मे सिन्धुराज मुज ओर भोज के बीच की योग्य कडी था। आबू पर्वत से प्राप्त शिलालेख भी परमारों की आबू पर्वत से अग्निकुण्ड (अग्निकुल) उत्पत्ति का साक्ष्य देते है। पूर्णणल के बसन्तगढ अभिलेख के अनुसार “वशिष्ठ के क्रोध से एक वीर उत्पन्न हुआ जिससे परमार वश की उत्पत्ति हुए। बसन्‍्तगढ अभिलेख का अनेको अभिलेखो ने समर्थन किया है। भिनमाल, जालौर एव बागड के अभिलेखीय एव अन्य स्रोतों से भी इसकी पुष्टि होती है।

आबू शाखा के परमार शासको मे धारावर्ष सबसे प्रमुख एव प्रतापी शासक थे। इन्होने 54 वर्ष से अधिक समय तक शासन एवं परमारो की कीर्ति विस्तार किया एव विद्वानो को सरक्षण दिया आबू शाखा जालौर, बागड एव भिनमाल शाखा की राजनेतिक उपलब्धियाँ उनकी उत्तप्पत्ति के साथ ही इसी परिच्छेद मे दी गई है।

महान भोज - (लगभग 4040-4055 ई०) मोडासा ताम्रफलक से ज्ञात होता है कि विएस0 4067 अर्थात 4044 ई0 के कुछ पूर्व सिन्धुराज की मृत्यु और उसके पुत्र भोज का राज्यारोहण हो चुका था।

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भोज के इतिहास की जानकारी के प्रचुर साधन है। 4044 ई०0 से 4046 ई0 तक के उसक काम से कम आठ अभिलेख प्राप्त होते है। जो उसके दानो क॑ सिलसिले मे उसकी अन्य राजनीतिक उपलब्धियो सहित उसके राज्यविस्तार का परिचय देते है। विद्या और सस्कृति के क्षेत्र मे वह अपने निजी कृतिव्यों और कृतियो एव लेखको को दिये जाने वाले राज्याश्रय से इतना प्रसिद्ध हुआ कि उसकी तुलना का भारतीय इतिहास मे ही क्‍या सारे विश्व के इतिहास मे शायद ही कोई शासक हुआ।

उदयपुर प्रशस्ति के उन्‍नीसवे श्लोक मे भोज की विजयो का वर्णन हुआ है। कल्याणी के चालुक्य राज्य से भोज का सघर्ष उसके सैनिक जीवन की सबसे प्रथम घटना प्रतीत होती है। उसने कर्णाट प्रदेशों से होते हुए कोकण की विजय की थी। भोज के सामन्त यशोवर्मा का कल्वन अभिलेख भी उसकी कर्णाट, लाट, ओर कोकण, विजय का उल्लेख करता है।” भोज ने बारज के पौत्र कीर्तिराज पर आक्रमण कर उसे आत्मसमर्पण के लिए विवश कर दिया।” उदयपुर प्रशस्ति और भोज के सामनन्‍्त यशोवर्मन के कल्वन अभिलेख से भी लाट पर भोज की विजय प्रमाणित है | यशोवर्मन के अभिलेख मे कहा गया है कि वह नासिक जिले में 4500 गाँवों पर भोज की ओर से शासन करता था।

उदयपुर प्रशस्ति के अनुसार भोज ने इन्द्रश्थ को हराया। यह इन्द्रर्थ सम्भवत वही है जिसकी चर्चा राजेन्द्र चोल (4042--042 ई0) के तिरूवालगाड़ु और तिरूमले अभिलेख” से उसके विजित के रूप मे आई है।

उदयपुर प्रशस्ति भोज की विजयो मे तोग्गल और तुरूष्क की भी गिनती करती है। उदयपुर प्रशस्ति (एड0, जि04 पृ० 235, श्लोक 49) और यशोवर्मा के कल्वन अभिलेख (एई0, जि0 49, पृ० 69-75) भोज की चेदीश्वर पर विजय का उल्लेख करते है।

विद्याधर चन्देल भोज जैसा ही महत्वाकाक्षी और शक्तिशाली

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शासक था। जो मालवा के पूर्व मे बुन्देलखण्ड पर राज्य करता था। भोज ने विद्याधर से सीधी मुठभेड से सम्भवत बचने की कोशिश की। एक चन्देल अभिलेख” इस बात का दावा करता है। कि 'कलचुरि चन्द्र' और भाज ने विद्याधर की वैसी ही पूजा की जैसे कोई शिष्य अपने गुरू की करता है। विक्रम सिह के दूबकुण्ड अभिलेख” से ज्ञात होता है कि जिस अर्जुन ने विद्याधर चन्देल की ओर से कन्नौज राजपाल का वध किया था उसी के पुत्र अभिमन्यु की अश्वों और रथो के नियन्त्रण तथा युद्ध के शास्त्रो और धनुषबाण के प्रयोग की कुशलता भोज ने प्रशसित की |

भीम प्रथम भोज का दूसरा चालुक्य प्रतिद्वन्द्दी था। भीम भोज सघर्षो की चर्चा गुजराती जैन लेखको के बहुत ग्रन्थो मे नही मिलती मेरूतुगक॒त प्रबधचिन्तामणि” से उस पर विशद प्रकाश पडता है।

भोज अपनी सैनिक दक्षता, कटनीतिक पहलो, और राजनीतिक प्रभावों द्वारा प्राय सभी दिशाओ मे विजये प्राप्त कर उसने परमार सत्ता को बेजोड बना दिया। अपनी उन्‍नति की चरमावस्था मे उत्तर भारत और दक्षिणापथ की शायद ही कोई सत्ता रही, जिसे कभी कभी भोज ने मात दी हो। उदयपुर प्रशस्ति उसका यशोगान करती हुई कहती है कि पृथु की तुलना करने वाले उस भोजन ने कैलाश पर्वत से लेकर मलयागिरी तक एक विशाल साम्राज्य का भोग किया तथा अपने धनुषबाणो से पृथ्वी के सभी राजाओ को उखाडठते हुए उन्हे विभिन्‍न दिशाओं मे बिखेरकर पृथ्वी का परम प्रीतिदाता बना।

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पाद टिप्पणी

नवसहसाक चरित (परिमलक॒त) 44वा अध्याय पृ0 64-76 | घनपालकृत तिलक मजरी - प्रथम - पृ0 29 |

अथर्ववेद पचम 48 वा0 रा० प्रथम 54-56 वा अध्याय, आदिपर्व 475 वा अध्याय वन पर्व 82 वा अध्याय

राजबली पाण्डेय-भारती जिल्द-4-पृष्ठ 4-8

वि0 श० पाठक-भारती जिल्द 6 (4962-63) पृष्ठ-33 और आगे विशुद्धानन्द पाठक-उत्तर भारत का राजनैतिक इतिहास पृष्ठ 55 मनुस्मृति -40वा -43-44 पी0 वी0 काणे धर्मशास्त्र का इतिहास जिलल्‍्द 4 भाग 2 पृष्ठ-46

वा0० ग0 जिल्द नवी0 पृष्ठ 495

वही पृष्ठ 495

ब्लाकमन और जेर्टट कृत अग्रेजी अनुवाद जिल्द दूसरी पृष्ठ 244 और आगे

राजपूताना का इतिहास-जिल्द 4 पृष्ठ 79 श्री धूमराज प्रथम वभूवभूवासवसतत्र नरेन्द्र वशे -एडइड0 जिल्द 8 पृष्ठ 240॥

विशुद्धानन्द पाठक -उत्तरभारत का राजनैतिक इतिहास पृष्ठ 553 डी0सी0 गागुली -परमार राजवश का इतिहास पृष्ठ 5

ए0 इ0० जिल्द 49वी पृष्ठ 237

अंग्रेजी अनुवाद जिल्द 2 पृष्ठ 244 और आगे।

प्रतिपाल भाटिया-दि परमाराज पृष्ठ 46

डी0 सी गागुली, परमार राजवश का इतिहास, पृ07

विशुद्धानन्द पाठक, उत्तर भारत का राजनैतिक इतिहास -555 पृष्ठ विशुद्धानद पाठक उत्तर भारत का राजनैतिक इतिहास पृष्ठ--556

[29 |

(8 9

20 25 22 23 24 25 20 27 286 29 30 34 02.

33 34 है, 36

37.

36

39.

40 4]

प्रतिपाल भाटिया-दि परमाराज पृष्ठ 46-47

575 ए४0,, 7 236 डी0 सी0 गागुली - परमार राजवश का इतिहास-प्ृष्ठ--3

& 3 ५७०0, [छ 7? 0

68 5 ४०0, फ, ?ए 55

डी0सी0 गागुली, परमार राजवश का इतिहास, पृ0 45

5 3 ०0, शा, ? 2

68 9 0४0, शा, ? 52

5490 []7 225, ए0, हहऋणा, ? 67

9 ]। ५०0, [5, 7? 55, (श्लोक 55)

(२४ ४६१५३ - सांशरुणए9 0 माआवप्र १९ता०ए४। 77004 ४०। 7 ?926 447 [7704प70८7007 (॥] ५४6०0! शत ए7 7, ?-4

प्रतिपाल भाटिया दि परमाराज पृष्ठ-46

विशुद्धानद पाठक-उत्तर भारत का राजनैतिक इतिहास पृष्ठ 556 ब्रहमक्षय कुलीन जयति-पिगला चारिकृत हस्ताक्षर ब्रहमक्षस्यथ ग्रो योनिर्वर्शों देवर्षिसत्कृत | क्षेमक प्राप्त राजान सस्था प्राप्स्थति है वे कलौ-मत्स्य 50वा अध्याय 88वा श्लोक उदयपुर-प्रशस्ति मे-ए0 इ0 जि0 पृष्ठ--234

उदयपुर-प्रशस्ति मे-ए0 इ0 ज़ि0 पृष्ठ--234

डी0 सी0 गागुली परमार राजवश का इतिहास पृष्ठ_44

68 5 ५७0, ॥, 7 225

डी0सी0 गागुली परमार राजवश का इतिहास-पृष्ठ-44

68 3 ५०0, ], 7 237, (श्लोक-7)

6 5. 96-7, ४0, 7, ? 9

2 3 ५७0, 75, 7 0

वही पृ० 455, जर्रेट कृत अग्रेजी अनुवाद जिल्द दूसरी पृष्ठ 244 आगे।.

[ 30 |

42 43 44

45 46 47 46 49 50 5] 352 53 54 33 36 37 58 59 00 6] . 02 03 04

03.

060 07

डी0 सी0 गागुली-परमार राजवश का इतिहास-पृष्ठ 45 06$8 ५0, ए़ऋणएशा,ए 4, 25 ४0 ? 225, 0, ५०] 36, ? 67 70702/655 7२९७०४ ०76 70॥22००0]0छट०व $प/ए6ए 0 70 (/९४०7॥ 0706) 99 पृष्ठ 54

डी0 सी० गागुली परमार राजवश का इतिहास--47

डी0 सी0 गागुली-परमार राजवश का इतिहास पृ0 64

8] 90] जाए ?ए [77 ए0 5४ ? 236

8.3 ५०0, हाफ, ? 3

पार्थ पराक्रम द्वितीय (गायकवाडकी की आरियटल सीरीज न0 4) 8 87 ७5 ०७0, 5, ?ए 75

&.00, जा, ? 455, श्लोक 5

द्वयाअश्रयमहाकाव्य 5वा सर्ग श्लोक 37

डी0 सी0 गागुली-परमार राजवश का इतिहास पृष्ठ 228--230 डी0 सी०0 गागुली परमार राजवश का इतिहास पृष्ठ 232 पाएथांब 08260767 07 704 ४०0 2 0926 360

549७90] झा 0826 304

5. ४० >> 0426 47.

5. ४6०0 <> 2426 47

वही चौदहवा पृष्ठ 296

8. ५०0. हाए, 7? 305-307 |

श्री मालाव स्थित महाराजाधिराज श्री देवराज (अप्रकाशित)

8.2 ४७०0. जाए, 7 242

वही, पृ० 238-242, श्लोक 9 और १2

प्रतिपाल भाटिया, पूर्वनिर्दिष्ट पृ0 40

8.2. ७०0, ॥, 7 235 श्लोक १2,

48 3. ७०0, 4, ? 295-96

8 $]२] , 996-7, ? 9-20

[3[ |

08

09

70

ह।

2

3

74,

5 76

डा0 गागुली का विचार है कि दक्षिण मे सीयक की सीमाए गोदावरी नदी तक विस्तृत थी। किन्तु यह अनुमान मात्र है। खोट््‌टिग के विरूद्ध उसके युद्ध सम्बन्धी साक्ष्यो से स्पष्ट है कि राष्ट्रकूट राजा नर्मदा तक आकर ही उससे भिडा। अत वही उसकी उत्त्तरी सीमा थी। उसकी हारने पर सीयक मे मान्यखेट लूआ, किन्तु नर्मदा के दक्षिण राष्ट्रकूटो का कोई प्रदेश उसके अधिकार में नही आया प्रतीत होता। (पूर्व निर्दिष्ट, पृ० 33--32)

द्वितीय वाक्यपति का प्रथम अभिलेख (ए0ई0जिल्द 6, पृ० 50) वि0स० 4034 अर्थात 974 ई0 मे उज्जैन से प्रकाशित हुआ था। सीयक 9७72 तक (खलिघट्‌ट के युद्ध की तिथि) शासनस्थ था। अत द्वितीय वाक्पति इन्ही दोनो तिथियो के बीच राज्यासीन हुआ होगा

नागपुर प्रशस्ति, ए0इ0जिल्द 2, पृ० 484, श्लोक 23, प्रबन्ध चिन्तामणि (द्विवेदी), पृ० 7 अर्जुनवर्माक्त अमरूशतक की रसिक सजीवनी नामक टीका के अनुसार वाक्पति का दूसरा नाम मुज था- 'अस्मत्पूर्वजस्य वाक्पतिराज अपरनाम्नो मुजदेवस्य |' डा0 गागुली (पूर्व निर्दिष्ट, पृ० 34, नोट 7) द्वारा उद्धृत। नवसाहसाकचरित, प्रथम 6-7 और ॥4वाँ, 98--04, वललभदेवक्‌॒त सुभाषितावली, श्लोक 34

68 9 ५७० शा, ए. 5, ४००0 जाए, 07, ४०0 णा, परत 6०३०5, ?2

भक्‍्त्वाघाट घटाभि प्रकटमिव मद भेदपाठटे भटाना -

जन्ये राजन्येजन्ये जनयति जनताज रण मुजराजे श्लोक 9, ए0 इ0, जि0 40, पृ0 20,

(श्री) माणे प्रणण्टे हरिण इव भिया गुर्णरेशे विनष्टे तत्सैन्यानास (श) रण्यो हरिर्‌ इव शरणो सुराणा (ब) भूव वही, श्लोक 40

76 8 0., बम्बई शाखा, जि0 46 पृ0 473--474

7 6 $.0 , बम्बई शाखा, जि0 46 पृ0 474

8.5 ७०] हा, 23

[32]

ह।

/8

9 80

8] 8० 83 84 85 86

87

88

89 90

9]

दशरथ शर्मा, पूर्वनिर्दिष्ट पृ० 422-423 प्रतिपाल भाटिया पूर्व निर्दिष्ट,

पृ0 50

नवसाहसाक चरित, 40वा 460, और 44वा 90, ए0 इ0, जि0 23, पृ 404--03, ए0 इ0 जि0 4, पृ० 235, श्लोक 46

68 5 00, हा, 0-03

युवराज विजित्यासो हत्वातद्वाहिनीपतीन,

खडगूमूहवॉकुत येन त्रिपू्यां विलीगीषुणा, उदयपुर प्रशस्ति ए0ई0

जिलल्‍्द 4, पृ0 235

वा०0 वि0 मीराशी, कार्पस, जि0 4, पृ0 87

कर्णाप्लाट केरल चोल शिरोरत्न रागियद कमल यश्चप्र

नवसाहसाक चरित्र, प्रथम, 74

578 ०७0, एज, ?ए 43-33

नीलकान्त शास्त्री, दि चोलजू, पृ0 475--477

डी0सी0 गागुली, पूर्वनिर्दिष्ट, पृ० 56, वा0 वि0 मीराशी, कार्पस, जि0 4

भूमिका, पृ० 448 वा, ए0 इ०, जि० 4, पृ० 33 किन्तु हाल में इसे

कोशलपति की पहचान सोमवशीराजा ययातिमहाशिवगुप्त से की गयी

है। देखिये, क्वार्टर्ली रिव्यू ऑफ हिस्टोरिकल सस्‍्टडीज, कलकत्ता, 4964-62, पृ० 428

इण्डियन कल्चर जि0 2, पृ० 402, नवसाहसाकचरित, 40वा, 49

नरसाहसाक चरित, 40वा, 46 मे

इण्डियन कल्चर जि0 2, पृ० 402, नवसाहसाकचरित, 40वा, 49

नरसाहसाक चरित, 40वा, 46

तस्यानुजोनिजिजिहृणराज श्री सिन्धुराजो विजयार्जित श्री श्लोक 46 जयसिह सूरिकृत कुमारपाल भूपाल चरित, प्रथम, 34, बाडनगर

प्रशस्ति, ए0 इ0, जि04, पृ0 297, श्लो0 6

७0.2 ५0] जाए ?ए 7-72, वा0 वि0 मीराशी, कार्पस, जि0 4, स0 50,

पृ0० 256

[33 |

92

93

94

95

96

97

30 ५० जा, ? 20-203, कीर्तिराज का एक अभिलेख (पाठक कममोरेशन वाल्यूम, पृ० 287-303) 4048 ई0० का0 प्राप्त है। 3 > ५०0]7, ? 235, श्लो0 49, ए0 इ0, जि0, 49, पृ0 69-75 साउथ इण्डियन इन्स्कृप्शन, जि0 3, भाग 3, पृ० 424, ए0 इ0 जि0 9, पृ० 233 साउथ इण्डियन इन्स्कृप्शन, जि0 3, भाग 3, पृ० 424, ए0 इ0 जि0 9, पृ० 233 विहितकन्याकुब्ज भूपालभग समरगुप्त उपास्त प्रौढ भीत्तल्पभोज कलचुरिचन्द्र शिष्यवत्‌ भोजदेव यसयातद्भुत वाहवाहनमहाशस्त्रप्रयोगादिष प्रावीण्य कविकीत्थत पृथुमति श्री भोजपृथ्वीभुजा ए0 इ0, जि0 2, पृ० 237-8, पक्ति 48, प्रचिद्दि, पृ0 37 और आगे

शान

[ 34 |

(0)

परमार शासकों के अभिलेख मालवा के परमार

वि0स0 4005 के हर्सोल से प्राप्त दो ताम्रपत्र जो सीयक द्वितीय से सम्बन्धित है। वि0स0 4026 अहमदाबाद ताम्रपत्र सीयक द्वितीय से सम्बन्धित है। वि0स0 4034 सन्‌ ७74 ई0 धरमपुरी प्रशस्ति जो परमार राजवश के सातवे शासक वाक्पतिराजमुज से सम्बन्धित है। वि0स0 4036 सन्‌ ७79 ई० का उज्जैन दानपत्र भी वाक्पतिराजमुज से सम्बन्धित है।

गौनरी ताम्रपत्र वितएस0 4038 सन्‌ 984 ई0 का अभिलेख वाक्पतिराजमज से सम्बधित है

वि0स0 4043 सन्‌ 986 ई० का गौनरी ताम्रपत्र वाक्पतिराजमुज से ही सम्बन्धित है।

वि0स0 4067 सन्‌ 4040 ई0० का मोदसा ताम्रपत्र यह अभिलेख परमार भोज से सम्बन्धित है।

वि0स0 4074 सन्‌ 4047 ई० का महौदी ताम्रपत्र परमारवश के प्रतापी शासक भोज से सम्बधित है।

वि0स0 4076 सन्‌ 4049 ई0 का बेतमा ताम्रपत्र | परमार भोज से सम्बन्धित

है।

वि0स0 4076 सन्‌ 4049 ई० का बासवाडा ताम्रपत्र परमार नरेश से सम्बन्धित है|

[3>|

(47)

(8)

(9)

(20)

वि0स0 4078 सन्‌ 4024 ई०0 का उज्जैन ताम्रपत्र | परम प्रतापी परमार भोज से सम्बन्धित है। वि0स0 4079 सन्‌ 4022 ई0 का देपालपुर ताम्रपत्र। प्रस्तुत अभिलेख भोज परमार से सम्बन्धित है। वि0स0 4094 सन्‌ 4034 ई० की सरस्वती प्रतिमा जो अब ब्रिटिश सग्रहालय लद॒न मे है। परमार भोज से समय मे उत्कीर्ण की गई | वि0स0 4403 सन्‌ 4046 ई0 का तिलकवाडा ताम्रपत्र। भोजपरमार से सम्बधित है | भोजदेव के काल का कल्वन प्रस्तर अभिलेख तिथि अज्ञात है। भोजदेव का भोजपुर प्रस्तर लेख तिथि अप्राप्त |

भोज परमार के प्राय सभी अभिलेख 3७ नम व्योमकेशा या नम समरादति के उदबोधन से आरभ होते है इन दोनो ही सम्बोधनो का अर्थ शिव से है। इससे स्पष्ट होता है कि परमार नरेश भोजदेव शिव जी के परम भक्त थे वि०0स0 4442 सन्‌ 4055 ई0 का मान्धाता दानपत्र। परमार नरेश जयसिह से सम्बन्धित है।

वि0स0 4437 सन्‌ 4060 ई०0 का उदयपुर प्रस्तर अभिलेख परमार नरेश उदयादित्य से सम्बधित है

वि0स0 4438 सन्‌ 4064 ई0० का धार प्रशस्ति उदयादित्य के शासनकाल का

है।

कामद स्तम्भ अभिलेख वि0स0 4440 सन्‌ 4063 ई०0 का यह अभिलेख परमार नरेश उदयादित्य के शासनकाल से सम्बद्ध है।

[36]

(24)

(22) (23)

(24)

(32)

वि0स0 4443 सन्‌ 4066 ई0 झालरापाटन का यह अभिलेख परमार नरेश उदयादित्य से सम्बन्धित है। प्रस्तुत अभिलेख का आरभ '3 नम शिवाय' की स्तुति से हुआ है।

शेरगढ का वि0स0 449»« का प्रस्तर अभिलेख उदयादित्य से सम्बद्ध है। उदयपुर प्रस्तर अभिलेख तिथि अज्ञात (७ नम शिवाय' से आरम्भ यह अभिलेख परमारो की अग्निकुल उत्पत्ति की उस कथा का वर्णन करता है जिसमे विश्वामित्र द्वारा वशिष्ठ की कामधेनु के हरण की बात कही गई है। अभिलेख की छठवी पक्ति मे - विश्वामित्रो वशिष्ठादहरत (ब) तो यत्र गा ----- उवाच परमारा ७, ७, थिंवेदो भविष्यति। मे यह वर्णित है। इसी अभिलेख मे परमार भोज को 'भर्गभक्त' कहा गया है।

महाकाल मदिर (उज्जैन) अभिलेख तिथि अज्ञात। उदयादित्य के काल का यह अभिलेख महाकाल ज्योतिर्लिंग को समर्पित है। इस अभिलेख की प्रमुख विशेषता देवनागरी लिपि का वर्णन है जो से तक की वर्णमाला एव क्ष त्र ज्ञ छोड सभी सयुक्ताक्षरो को वर्णित करती है।

धारा प्रशस्ति तिथि अज्ञात |

सर्पबन्ध अभिलेख तिथि अज्ञात

जगददेव के शासन काल का डोगरगाव प्रस्तर प्रशस्ति विएस0 4034 जगददेव का जैनद प्रस्तर अभिलेख |

वि0स0 4454 नरवर्मन का अमेरा प्रस्तर अभिलेख |

विक्रम स0 4452 का नरवर्मन का देवास ताम्रपत्र |

वि0स0 4457 का नरवर्मन का भोजपुर प्रशस्ति |

वि0स0 4464 का नरवर्मन का नागपुर सग्रहालय अभिलेख |

[37]

वि0स0 4467 का नरवर्मन का कदम्बपद्रक प्रशस्ति |

वि0स0 4494 का शेरगढ से प्राप्त जैन अभिलेख |

(तिथि अज्ञात) नरवर्मन के समय का विदिश प्रस्तर लेख |

(तिथि अज्ञात) सूर्यदेव की स्तुति मे चित्तपा की प्रशस्ति |

वि0स0 - 4492 का यशोवर्मन का उज्जैन ताम्रपत्र अभिलेख |

जयवर्मन का उज्जैन ताम्रपत्र अभिलेख |

वि0स0 4494 और 4200 का महाकूमार लक्ष्मीवर्मन का उज्जैन तामपत्र अभिलेख |

महाकुमार लक्ष्मीवर्मन का भोपाल स्तम्भ अभिलेख |

वि0स0 4246 का त्रिलोकवर्मन का विदिशा प्रस्तर अभिलेख |

त्रिलोकवर्मन का ग्यारसपुर स्तम्भ लेख |

वि0स0 4244 का महाकमार हरिश्चन्द्र का भोपाल तामपत्र अभिलेख

वि0स0 4235 और 4236 के महाकुमार हरिश्चद के पिप्पलिनगर ताम्रपत्र अभिलेख |

वि0स0 4256 का महाकुमार उदयवर्मन का भोपाल ताम्र पत्र अभिलेख | विक्रम स0 4267 का अर्जुनवर्मन का पिप्पलिनगर ताम्रपत्र अभिलेख |

वि0स0 4270 का अर्जुनवर्मन का सिहोर ताम्रपत्र अभिलेख |

वि0स0 4272 का अर्जुनवर्मन का सिहोर ताम्रपत्र अभिलेख |

वि०0स0 4275 का देवपाल का हरसूद प्रस्तर अभिलेख |

वि0स0 4282 का देवपाल का मानच्धाता तागम्रपत्र अभिलेख |

[36]

वि0स0 वि0स०0 वि0स0 वि0स0 वि0स0 वि0स0 वि0स0 वि0स0

वि0स०0

4286 का देवपाल का उदयपुर प्रस्तर अभिलेख |

428(9) का देवपाल का उदयपुर प्रस्तर अभिलेख |

4342 का जयसिह का राहतगढ प्रस्तर अभिलेख |

4344 का जयसिह का अत्रु प्रस्तर अभिलेख (शिलालेख)। 4344 का जयवर्मन का मोदी प्रस्तर अभिलेख

4347 का जयवर्मन का मान्धाता ताम्रपत्र |

4320 का जयसिह का विदिशा प्रस्तर अभिलेख |

4326 का जयसिह का पथरी प्रस्तर अभिलेख |

4334 का जयवर्मन का मानच्धाता ताम्रपत्र अभिलेख |

आबू-चन्द्रावती के परमारों के अभिलेख

वि0स0 वि0स0 वि0स0 वि0स0 वि0स0 वि0स0 वि0स0 वि0स0

वि0स0

4099 पूर्णपाल का वर्मन शिलालेख |

4099 पूर्णपाल का वसतगढ शिलालेख | 4402 पूर्णपाल का भरुन्द शिलालेख |

4202 यशोघवल का अजारी शिला अभिलेख | 4207 यशोधवल का अचलगढ शिलालेख | 4240 यशोधवल का बाघ अभिलेख |

4220 का धारावर्ष का केदार प्रस्तर लेख | 4237 का धारावर्ष का हाथल ताम्रपत्र लेख।

4237 का धारावर्ष का नाना प्रस्तर लेख |

(82) (83) (84) (85) (86)

वि0स0 4240 का धारावर्ष का अजारी प्रस्तर अभिलेख | वि0स0 4245 का धारावर्ष का मन्थल प्रस्तर अभिलेख | वि0स0 4249 का धारावर्ष का वामनर जी प्रस्तर अभिलेख | वि0स0 4255 का धारावर्ष का जलोढी प्रस्तर अभिलेख | वि0स0 4274 का धारावर्ष का बुतरी प्रस्तर अभिलेख | वि0स0 4274 का धारावर्ष का कातल प्रस्तर अभिलेख | चन्द्रावती के परमारो का रोहेरा ताम्रपत्र अभिलेख |

वि0स0 4277 का सोमसिह का धता छाया अभिलेख | वि०0स0 4290 का सोमसिह का नाना प्रस्तर अभिलेख | वि0स0 4293 का सोमसिह का देवश्वेतर प्रस्तर अभिलेख | वि0स0 4300 का अल्हणदेव का कलाजर प्रस्तर अभिलेख (प्लेट अनुपलब्ध) वि0स0 4324 का भुला प्रस्तर अभिलेख |

वि0स0 4344 का प्रतापसिह् का गिरवर प्रस्तर अभिलेख | बागड़ शाखा के परमारों के अभिलेख

वि0स0 4446 का माण्डलिक का पचन्‍्हेरा प्रस्तर अभिलेख |

वि0स0 443 का चामुण्डराज का अर्थुना प्रस्तर अभिलेख |

वि०स0 4437 का चामुण्डराज के समय का अर्थुना प्रस्तर अभिलेख | वि0स0 4459 चामुण्डराज के समय का अर्थुना प्रस्तर अभिलेख |

वि0स0 4459 का चामुण्डराज के समय का अर्थुना प्रस्तर अभिलेख |

[40|

(87, (88, (89)

(90) (94,

(92,

(93)

(94)

(95)

अध औ८

चामुण्डराज के समय का अर्थना प्रस्तर अभि0 (तिथि अज्ञात) | वि0स0 4465 विजय राज के समय का अर्थना प्रस्तर अभिलेख | वि0स0 4466 विजय राज के समय का अर्थुना प्रस्तर अभिलेख | भिनमाल के परमारों के अभिलेख वि0स0 4459 देवराज का रोपी अभिलेख | वि0स0 4447 कृष्णराज के समय का भिनमाल प्रस्तर अभिलेख (प्लेट अनुपलब्ध) वि0स0 4423 का कृष्णराज के समय का भिनमाल प्रस्तर अभिलेख | वि0स0 4248 सोमेश्वर का किराडु प्रस्तर अभिलेख | वि0स0 4239 जयसिह का भिनमाल प्रस्तर अभिलेख |

जालौर के परमारों का अभिलेख

वि0स0 4474 वीसल का जालौर प्रस्तर अभिलेख |

अहमदाबाद के हर्सोल से सीयक द्वितीय के दो अभिलेख एक ही साथ प्राप्त हुए है और दोनो का उल्लेख प्रथम अभिलेख के रुप मे हुआ है। इस प्रकार अभिलेखो की कुल स0 96 होती है।

परमार शासको के अतिरिक्त कुछ अन्य अभिलेख भी पाये गये है जैसे-चुनार के किले से प्राप्त राजा भतृहरि (जो परमार भोज के अग्रज थे और सन्यासी हो गये थे) इनकी गुफा उज्जैन मे है जहा इन्होने तपस्या किया था) से सबधित अभिलेख इस अभिलेख से भी परमारों के वशिष्ठ गोत्री एव अग्निकूल उत्पत्ति का साक्ष्य देते है। प्रस्तुत अभिलेख को अन्य साक्ष्यों के अन्तर्गत सम्मिलित किया गया है।

(कुछ प्रमुख अभिलेखो की छाया प्रति सन्दर्भ ग्रन्थ सूची के साथ सलग्न है)

[44]

परमार शासको का वश वृक्ष मालवा के परमार (८ 850--4340 ई0)

परमार उपेन्द्र | वाक्पतिराज (9 कृष्णराज (895--920 ई0) | वैरिसिह (920--945 ई0)

| सीयक (सिया) (9 हर्ष (हर्षसिह्ठ) (945 73 ई0) |

वाक्पति उत्पलराजमुज अमोघवर्ष, सिधुराज (0 नवसहसाक या पृथ्वीवललभ, श्री वललभ मृणालवति कमारनारायण 974--95 (995 - 4000)

9/5, 979, 982, 986

उदयादित्य (4070-93) भोजदेव (4000--4055) 4080--4084, 4082 4044, 4048, 4020, 4024, 4022, 4034--35 4049

जय सिह नरवर्मन लक्ष्मीवर्मन जगददेव श्यामलदेवी 055--56--4059)_ 4093--4434 (4442) (जगद देव मालवा की गद्दी पर नही बैठे) मोमलदेवी गयाकर्ण 4094, 4404, 04--05, 4440, 4434 4454 जी जी जन्‍क .. डॉडीधघतध55/५म" 0 जयवर्मन लक्ष्मीवर्मन त्रिलोकवर्मन (4442--43) 4434 (4443--55) ॥444 4458--59

[42]

विन्ध्यवर्मन हरिश्चन्द्र (456-86)

(4487-94) 4457-4478--79, 4486 सुभटवर्मन (4494-4209) 7 | अर्जुनवर्मन ((240-45) उदयवर्मन देवपाल 4486-4245 4245-35 +$...... + ४५ जयतुगि (4235-55) जयसिह जयवर्मन (4255-75) अर्जुनवर्मन | (275) | भोज द्वितीय | जय सिह ॥५४

(ज्ञात वर्ष 4340)

[43]

आबू के परमार

(सन्‌ 900 से 4300 ई0)

उत्पलराज 940-30 |

आर्यन राज 930-50 |

कृष्णराज [ 950-70 |

धरणीवर्ष 970--90

प्रुवमभट 990-4000 महिपाल (4000-20 ई0) पूर्णपाल दन्तिवर्मन धन्धुक (020--40 ई0) (4040-50) 4050-60 कृष्णदेवराज [| 4060-90 योगराज ककक्‍कलदेव पा | (4090--4445) रामदेव | | विक्रम सिह 4445-45 यशोधवल (4445-4460) प्रहलादन

4446, ॥450, व454

धारावर्ष ((460--4220) 4480, 4483, 4488, 4492, 4498, 4244, 4246, 4249 सोमसिह (4220-40) 4224, 4232, 235 कृष्णदेव पा (4240--260 ई0)

प्रताप सिह (4260--4285)

अर्जुन (285-95) 4290

[44]

वागड़ शाखा के परमार

(925--4440 ई0)

वैरिसिह डम्बरसिह (नाम अज्ञात है) 930-55 चच्च (कक) (955-70) चन्डप (970--4000) सत्यराज (4000--4025) लिम्बराज माण्डलिक (4025--4040) ((040--70 4059 चामुण्डराज (4070--405) 4080, 4404 विजयराज (4405--4440) 4408, 4409

किराडु भिनमाल के परमार

(950-4485 ई0) सिधुराज दूसल या (ऊसल) धरणीवर्ष | रेवराज-4002 या (4042) धन्धुक कृष्णराज 4060, 4067 | सुच्चिराज (4400-4425) उदयराज (4425-45) | सोमेश्वर (445-4465) जयसिह 4483

[45]

जालौर के परमार

(960--4425 ई0)

वाक्पतिराज (960--985) | चन्दन (985--4040) | देवराज (4040-35) अपराजित (4035-60) | वीजल (4060--4085) | धारावर्ष (4085-4409) | वीसल (4409--4449) 4409, 4449

* सभी तिथिया ईसवी सन्‌ मे है। कोष्ठक मे दी गयी तिथि शासको के सम्पूर्णशासन काल, बिना कोष्ठक की तिथिया अभिलेखिक एवं अन्य साक्ष्यो की उपलब्धता वर्ष पर आधारित है|

*+* सन्‌ 850 से 430 ई० तक परमार शासको का वश वृक्ष सलग्न करने का तात्पर्य केवल यह है कि परमार शासको का आधिपत्य चौदहवी शताब्दी के आरम्म तक रहा। इसके बाद भी परमार क्षत्रियो का वश वृक्ष निरन्तर पृष्पित पल्‍लवित होता चला रहा है। परमार क्षत्रियो का विस्तार पूरे देश मे हुआ | वर्तमान मे परमार क्षत्रिय मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, बिहार, उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलो एव पूर्वी जिलो मे सुलतानपुर, जौनपुर, मिर्जापुर, वाराणसी, सोनभद्र, फैजाबाद, गोण्डा सम्पूर्ण अवध, मऊ, गाजीपुर सहित भारतवर्ष के सभी राज्यो मे है।

[40]

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सामाजिक जीवन

सामान्यत किसी काल का सामाजिक जीवन उस काल की सास्कृतिक एव राजनैतिक स्थिति का परिचायक होता है। इस काल का सामाजिक जीवन मुख्यत गुप्तकाल की सामाजिक विशेषताओ को लिए हुए नवीन आयामो के साथ प्रस्तुत होता है। समाज वर्ण व्यवस्था पर आधारित था।

वर्ण अवधारणा मूलत सास्कृतिक थी, सिद्धान्तत इससे व्यक्ति की नैतिक एव बौद्धिक योग्यता का आभास होता था। स्मृतिकारो ने वणो के सामाजिक कर्तव्यों पर बल दिया है, कि जन्म से प्राप्त अधिकारो एव विशेषाधिकारों पर इसके विपरीत जाति व्यवस्था जन्म तथा आनुवाशिकता पर बल देती है। इसमे कर्तव्यों के पालन पर जोन देकर विशेषाधिकारो पर बल दिया गया है।'

धर्मशास्त्रों तथा स्मृतियो के अनुसार वेदाध्ययन करना, यज्ञ करना तथा दान देना ब्राह्मण, क्षत्रिय एव वैश्य के आवश्यक कर्तव्य थे। वेदाध्ययन यज्ञ करवाना एव दान लेना ब्राह्मणों के, युद्ध करना एव जनरक्षा क्षत्रियों के, तथा कृषि कर्म, पशुपालन एव व्यापार करना वैश्यो के विशेषाधिकार माने गये थे। शूद्रो का कर्तव्य द्विजातियो की सेवा करना माना गया है।'

साधारणतया वर्णशब्द रग अक्षर और जाति के अर्थ मे प्रयुक्त होता है। सामाजिक दशा के सदर्भ मे वर्णशब्द जाति के अर्थ मे रूढ है किन्तु यह 'वर्ण' शब्द जातिशब्द का पर्याप्त नही है। प्राचीन काल से ही वर्ण चार है - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र | परन्तु जातिया एव उप जातिया अनेक है - जैसे कायस्थ, तेली, अग्रवाल आदि। वर्ण व्यवस्था की परम्परा का उद्गम ऋग्वेदिक काल में हुआ। जो परमार काल तक आते-आते

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अनेक जातियो एव उपजातियो मे विभक्त हो गया। यह वृद्धि देशकाल एव रीतिरिवाजो, व्यवहारों के कारण हुई। परमार नरेश वर्णाश्रमधर्म की रक्षा करना अपना कर्तव्य मानते हुए प्रशासन चलाते थे। इसी कारण वे व्यवस्थित वर्ग विमधर्म आदि विशेषणों से अलकृत थे उदयादित्य और नरवर्मन की तो यह घोषणा थी “मेरे खड्ग वर्ण की रक्षा के लिए सदैव तैयार है।“

ब्राह्मण - समाज के चारो वर्णो मे ब्राह्मणवर्ण का सर्वोच्च स्थान था। दशवी शताब्दी के अरब यात्री अलबरूनी ने लिखा है, “समाज मे ब्राह्मणो का सर्वोच्च स्थान होता था।'*

ब्राह्णो की कई उपजातिया थी यथा गुगली' अवस्थी कर्नाट श्रीमाली' और नागर" आदि। गुगली लोग वैष्णव धर्म को मानने वाले एव कृष्ण मदिर के पुजारी थे। गुगली उपाधि धारी ब्राह्मण आज भी द्वारिका मे पाये जाते है”| डी0आर० भण्डारकर के अनुसार - गुगली ब्राह्मण मूलत नागर जातीय ब्राह्मण थे”” परन्तु गौरी शकर ओझा और सी0पी0० वैध के मतानुसार वे क्षत्रिय थे।"

हलायुध ने अपनी पिगलसूत्रवृत्ति मे वाक्पतिराजमुज को ब्राह्मक्षत्रिय शब्द से अभिहित किया है। हमारे प्राचीन ग्रथ विष्णु पुराण और वायु पुराण आदि मे भी ब्रह्मक्षत्रिय शब्द का उल्लेख मिलता है। किन्तु ये ब्रह्मक्षत्रिय मूलत कौन थे इस बारे मे साधारणतया कुछ भी कहना कठिन है। इस सदर्भ मे विविध विद्वानो के विविध मत है। डी0आर0०भण्डारकर के अनुसार “ये मूलता ब्राह्मण थे किन्तु बाद मे क्षत्रियों का व्यवसाय अपना लेने के कारण ब्रह्मक्षत्रिय कहलाये।” आर0ए्सी० मजुमदार के अनुसार ये ब्रह्मक्षत्रिय कुल वैवाहिक सम्बन्धो के परिणाम थो अर्थात ब्राह्मण और क्षत्रिय स्त्री पुरूषो के विवाह से जो सताने उत्पन्न हुई वे ब्रह्मक्षत्रिय कहलायी |” कीलहार्न महोदय ने मजुमदार महोदय का समर्थन करते हुए कहा कि ब्रह्मक्षत्रिय ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्णो की मिश्रित सतान थे।” सी0०वी0 वैध के

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अनुसार “जिन क्षत्रियो को अपने गोत्र और प्रवर्तक ऋषि का नाम स्मरण था कालातर मे वे ब्रह्मक्षत्रिय कहलाये |”

ब्राह्मण जातियो की विविधता के विविधकारण प्रतीत होते है उनके भेद स्थानकृत गोत्रकृत तथा वैदिक शास्त्रकृत आदि थे। इस समय मगध, मध्य देश दक्षिणराढ (बगाल) पौण्डरिक (उत्तरकुरू) लाटदेश, मथुरा, अहिच्छत्र, मान्यखेट और कर्नाटक आदि क्षेत्रों से आकर ब्राह्मणो ने मालवा मे शरण ली थी।” कर्नाटक आदि स्थानों के नामो से अविहित ब्राह्मणो की उपजातिया आज भी मिलती है। महाभष्यकार पतजलि के अनुसार वेदो की कुल 424 शाखाओ का उल्लेख पाया जाता है किन्तु परमार इतिहास के स्रोतो से हमे कुछ ही शाखाओं का सकेत मिलता है जैसे व्रहवृच, वाजसनेयमाध्यदिन”. कठ, कॉघुम, शाखायन, राणायनीय,” जोरअ आश्वलायम” आदि |

इसी प्रकार ब्राह्मणो के भिन्‍न भिन्‍न गोत्र भी होते थे जिनका उल्लेख अभिलेखो मे मिलता है जैसे - भारद्वाज”, गर्ग”, भृगु, गौतम, कात्यायन, पाराशर”, अभि”, अगस्त्य*, वशिष्ठ”, शाण्डिल्य, मारकण्डेय, कश्यप, वत्स, धैमेय, चापलिय और गोपालिय” आदि। नागर जाति के ब्राह्मण गोपालिय गोत्र के होते थे।*

परमारकालीन ब्राह्मण भी अपने नाम के आगे पदविया लगाते थे। उनकी ठाकुर, अवस्थी, द्विवेदी”, शर्मा, स्वामिन”, उपाध्याय, दीक्षित” आदि पदवियो का उल्लेख मिलता है। कुछ ब्राह्मण शुद्ध पडित जैसे विशेषण भी धारण करते थे। कुछ पदविया वैदिक कर्मों के अनुसार ही बनती थी। जैसे श्रोत्रिय। श्रोत्रिय ब्राह्मण वेद द्वारा निर्दिष्ठ 6 कर्तव्यों का पालन करते थे। इसी प्रकार अग्निहोत्रीय वे होते थे जिनके घरो मे रात दिन एक अग्नि कुण्ड मे यज्ञ की अग्नि प्रज्वलित रहती थी।”

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धर्मशास्त्रों के आदेशानुसार अध्ययन, अध्यापन, यज्ञ करना एव कराना तथा दान देना और दान लेना ब्राह्मणो के प्रमुख छह कर्तव्य माने जाते थे। वेदों के विभिन्‍न शाखाओ के अध्ययन के कारण ही द्विवेदिन, त्रिवेदिन और चतुर्वेदिन आदि ब्राह्मणो की अनेक उपाधिया मानी गयी।”

राज्य की ओर से ब्राह्मणो को भूमिदान मिलता था। परमारवश के शासको के अभिलेख इस दान व्याख्या के प्रत्यक्ष प्रमाण है। सीयक द्वितीय ने गोपालीय गोत्र के नागर जातीय ब्राह्मण लल्लोपाध्याय को कुम्मारोटक गाव वाक्यपतिराज मुज ने बसताचार्य को पिप्परिका (तडार)” नामक गाव भोज ने देल्ह को नलतडाग एव अत्रिगोत्री ब्राह्मण वच्छल को किरिकेका” और यशोवर्मा ने भरद्वाज गोत्रीय ब्राह्ोण धनपाल को वडोड और उथवणक नामक गावो का दान दिया था।” प्राय इस तरह की दान व्यवस्थाओ से ही ब्राह्यणो का जीवनयापन होता था।

ब्राह्मण लोग पुरोहितो के रूप मे कार्य करते थे तथा विशेष परिस्थितियो मे राजाओं को धार्मिक सलाह दिया करते थे।” परन्तु आपत्तिकाल मे ब्राह्मण क्षत्रिय एव वैश्य वर्गों के व्यवसाय भी अपना सकते थे। अलबरूनी के अनुसार ये कपडे और सुपाडी के व्यापार का कार्य अपना सकते थे परन्तु वास्तवित विक्रय कार्य वे स्‍्व्य करके अपने नाम से वैश्यो के माध्यम से करते थे। किन्तु इस बात के भी प्रमाण है कि ब्राह्मण लोग स्वय भी व्यापार करते थे। इस प्रकार का एक व्यापारी ब्राह्मण सिघलदीप से विभिन्न प्रकार के व्यवसायो के बाद उज्जैन वापस लौटा था।” विभिन्‍न प्रकार के व्यवसायों में कुछ व्यवसाय ब्राह्मणो के लिए यथा - पका हुआ चावल, मास, दूध, दही, साग तरकारी और शराब आदि बेचना आपत्तिकाल में भी वर्जित थे।*

ब्राह्मण लोग मत्री बनकर अपने परामर्श से राजा एव राष्ट्र की सेवा करके अपने राजनैतिक कार्यों का भी सपादन करते थे। आबू के परमार

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शासक प्रताप सिह का ब्राह्मणमत्री बेल्हण था।* इसी प्रकार मालव के परमार शासक अर्जुनवर्मम एव जयवर्मा द्वितीय के सधि विग्रहिक (मत्री) क्रमश पडित विल्हण और मालाधार थे।” युद्ध आदि विषयक जो सभाये होती थी उनमे भी ये लोग भाग लेते थे। सभा मे राजा के दाहिनी और ये अपना स्थान ग्रहण करते थे।” कही-कही ब्राह्मणो के भी शासको के पद पर आसीन होने के उल्लेख मिलते है।*

क॒छ ब्राह्मण दूतक का भी कार्य करते थे। ठकक्‍्कुर विष्णु सीयक द्वितीय के हरसोल ताम्रपत्र” के तथा ठाकुर वामन स्वामी पुरूषोत्तम यशोवर्मा के कात्वन शिलालेख के दूतक"” थे।

शासको द्वारा प्रकाशित अभिलेखो की रचना एव उन्हे उत्कीर्ण करने का कार्य भी प्राय ब्राह्मण ही करते थे। आबू शासक पूर्णपाल के बसतगढ शिलालेख को मातृशर्मन ने, मालवशासक भोज के काल्वन लेख को योगेश्वर ने और देवपाल के मान्धाता शिलालेख को हरसुदेव ने लिखा था।” इसी प्रकार अर्जुनवर्मम के भोपाल शिलालेख को पडित वसप्पैराज ने उत्कीर्ण किया था

समाज के अन्य वर्णो की अपेक्षा ब्राह्मणो को कुछ विशेष सुविधाये प्राप्त थी। अन्य वर्णों की अपेक्षा ब्राह्मणो का राज्य को कम कर देना पडता था। आबू शासक सोमसिह के एक शिलालेख से विदित होता है कि इन्होने ब्राह्मगो को कर मुक्त कर दिया था।” अलबरूनी के अनुसार भी ब्राह्मण वर्ग कर से पूर्णत मुक्त था।” बागड के परमारशासक चामुण्डराज ने भी अन्य वर्गों की अपेक्षा ब्राह्मणो के साथ अत्यधिक उदारता का व्यवहार किया था। किसी भी अपराध के बदले ब्राह्मणो को प्राणदड नही दिया जाता था। ब्राह्मण यदि किसी की हत्या कर देता था इसके लिए उसे दडस्वरूप गरीबों को भिक्षादान करना, स्वय उपवास करना तथा ईश्वर प्रार्थना करनी पडती थी। लेकिन यदि वह किसी मूल्यवान वस्तु का अपहरण करता तो उसे अन्धा

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करके उसका दाहिना हाथ और बाया पैर कटवा दिया जाता था।” पी0वी० काणे महोदय ने भी ब्राह्मणो के इन विशेष सुविधाओं का उल्लेख किया है ।* क्षत्रिय- ब्राह्मणों के बाद दूसरा स्थान क्षत्रियो का था। इसके मुख्य कर्तव्य दान देना, यज्ञ करना, विधध्ययन तथा समाज के अन्य तीन वर्णों की रक्षा करना था। शिक्षा के क्षेत्र मे इनको ब्राह्मणो के ही समान वेद वेदागों एव अन्य शास्त्रों के अध्ययन का अधिकार प्राप्त था। वे स्वय तो वेदाध्ययन कर सकते किन्तु दूसरो को वेदाध्ययन कराने का अधिकार नही प्राप्त था

परमार चाहमान, चौलुक्य शासक उनके सामन्त ब्राह्मणो को प्राय हलाबाह भूमि खेत आदि दान देते तथा गोचर भामि सुविधा प्रदान करते थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि बहुत से ब्राह्मणा कृषि तथा पशुपालन भी करते थे।

आब्‌ के धारावर्ष परमार के विष्सठ 4237 के आथक ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि शैवधर्म के आचार्य भट॒टारक हीसल उग्रदमके को साहिलावाडा ग्राम तथा गोचर भूमि की सुविधा दी गई थी।”

प्रशासन सामान्यत क्षत्रिय वर्ग द्वारा ही सचालित होता था।

प्रशासक, सेनापति और योद्धा प्राय क्षत्रियवर्ग से ही चुने जाते थे। उदयपुर प्रशस्ति मे उपेन्द्र कृष्णराज को द्विजो मे श्रेष्ठ कहा गया है। इसी प्रकार एक शिलालेख मे यशोवर्मन को क्षत्रिय शिरोमणि कहा गया है। इससे यह प्रतीत होता है कि सामान्यत क्षत्रिय वर्ग के सदस्य ही शासक पदो पर अधीन होते थे।

परमारकाल तक क्षत्रियो के भी कई भेद हो गये जिनमे, हथुण्डी *, देवण” प्रागवाट, यवर्कुट, ओइसवाल, श्रीमाल*, परमार, प्रतिहार, चालुक्य, चाहमान, सोलकी आदि का उल्लेख मिलता है।

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इस काल में और इससे कुछ समय पूर्व एक नई जाति का उदय हुआ। यह जाति राजपूत राम से प्रसिद्ध हुई। प्राचीन क्षत्रियो के समान देश के वर्णाश्रमधर्म तथा हिन्दू सस्कृति की रक्षा करना उन्होने अपना कर्तव्य समझा। ललिताविग्रहराज के अनुसार चतुर्थ विग्रह राज अपने मित्र राजाओ, ब्राह्मणो, देवस्थानों और तीर्थों की तुर्कों से रक्षा करना अपना विशेष कर्तव्य समझता था। यद्यपि कर्तव्य की दृष्टि से यह जाति क्षत्रिय ही थी तथापि इसे प्राचीन क्षत्रियो की सतान मान लेना उचित नही होगा। जैसे ही इस जाति की प्रधानता समाज मे स्वीकृत होने लगी धर्माधिकारियो, ब्राह्मणों, विद्वानों एव चारणो (भाटो) ने इनका सम्बन्ध सूर्य, चन्द्र, इन्द्र अग्नि इत्यादि हिन्दू देवताओं से जोड दिया।परन्तु यूरोपीय एव कुछ स्थानीय विद्वानों ने उनकी उत्पत्ति के दैवी सिद्धात को स्वीकार नही किया है।

सी0वी0 वैद्य राजपूतो को विशुद्ध क्षत्रिय की सतान मानते है। ओझा जी ने मध्ययममार्ग अपनाते हुए कहा कि राजपूतो की नसो मे क्षत्रिय रक्त तो था ही, परन्तु इसके साथ ही कृषाण, हूण शक आदि अनार्य जातिया भी इनमे धुलमिल गई थी। विएस0 4226 के विजोलिया अभिलेख मे चाहमानो को वत्सगोत्री ब्राह्मण बताया गया है।” सूडा” अचलेश्वर अभिलेखो मे क्रमश जालौर और चन्द्रावती के चाहमानो को ब्राह्मण बताया गया है। इन राजपूतो को ब्राह्मण बतलाने के पीछे यह कारण रहा होगा कि “कुछ राजपूतो के गोत्र उनके पुरोहितो के गोत्रों के आधार पर माने गये की

परमार राजा क्षत्रिय थे उन्होने अतर्विवाह द्वारा भारत के विभिन्‍न राजवशो से सामाजिक सम्बन्ध स्थापित किये। उदयादित्य की पुत्री का

विवाह गुहिल राजा से हुआ था, जगद्देव ने अपनी कन्या का विवाह पूर्वी

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बगाल के एक वर्मन राजा से किया। अर्जुनवर्मम की पहली राज्ञी कुृतल नरेश की पुत्री थी और उसकी दूसरी राज्ञी एक चौलुक्य राजकुमारी थी। गगनरेश नरसिह प्रथम (4253-4286 ई0) ने मालव राजा की पुत्री सीता देवी से विवाह किया।” एक गुजरात राजकुमार ने परमार राजवश की एक

राजकुमारी से विवाह किया था ।[*'

मिताक्षरा के अनुसार जिन क्षत्रियो और वैश्यो के अपने गोत्र प्रवर नही (ज्ञात) होते उन्हे अपने पुरोहितो के गोत्र प्रवर अपना लेने चाहिए।” यह वर्ग शासक वर्ग था अत इन्हे भी कुछ विशेष अधिकार प्राप्त थो आपत्तिकाल मे क्षत्रिय भी वैश्यो का व्यवसाय अपना सकते थे। भोज परमार के शासनकाल मे क्षत्रिय जातीय मेमाक के कृषि करने का अभिलेखीय उल्लेख मिलता है।*

चोरी करने पर इनका दाहिना हाथ एवं बाया पैर काट लिया जाता था। बडे अपराधों के लिए इनके लिए मृत्युदड की सजा भी दी जाती श्री 84

वैश्य-- वर्ण व्यवस्था स्थापित होने के साथ ही वैश्य कृषि, व्यापार और वाणिल्य कर्म करते थे। वर्णाश्रम व्यवस्था मे इनका स्थान तीसरा था। परमार काल मे इन्हे वणिक भी कहा जाता था। क्योकि व्यापार करना इनका प्रमुख कर्तव्य माना जाता था।*

कब्जा

पुरातन प्रबन्ध सग्रह से ज्ञात होता है कि नाडोल राज्य के सस्थापक चाहमान लक्ष्मण ने किसी श्रेष्ठी की पुत्री से विवाह किया था इससे उत्पन्न पुत्र को कोषाध्यक्ष बनाया गया और उन्हे वैश्य कहा गया।'* राजकीय भण्डारों के अधिकारियो को भण्डारी कहा जाने लगा और वे ओसवाल माने जाने लगे। अग्रवाल माहेश्वरी, जायसवाल और खण्डेलवालो का भी उद्भव इसी प्रकार (क्षत्रिय पुरूष और वैश्य स्त्री) क्षत्रियो से ही माना

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जाता है।” शीलादित्य के अभिलेख” और कुबलयमाला तथा कन्हडदेव प्रबन्ध जैसे ग्रन्थों में व्यापार करने वाले लोगो को वैश्य की सज्ञा दी गई है। श्रीमाल, किरातकूय और ओसिया जैसे नगरो की समृद्धि के कारण वैश्य ही थे। परन्तु वैश्यो के कुछ परम्परागत व्यवसाय यथा कृषि एव पशुपालन और धीरे धीरे शूद्र भी अपनाने लगे थे।* जबकि वैश्य इनसे विमुख होने लगे। सम्भवत वैश्य इन वरूवसायो का परित्याग इस कारण करने लगे क्योकि इसमे हिसा की सभवना बनी रहती थी वैश्य वर्ण मे भी व्यवसाय और स्थान विशेष के आधार पर अनेक जातिया उपजातिया बन गयी। प्रागवाह' उपकेश” श्रीमाल” धर्कट्ट इत्यादि वैश्य जातियो ने धार्मिक और साहित्यिक जीवन को ठ्सर* माहेश्वरी” आदि वैश्य जातिया प्राचीन वैदिक धर्म की ही अनुयायी बनी रही जबकि अन्य अनेक वैश्य जातियो ने जैन धर्म अपना लिया था। जिन वैश्यों की दशा सोचनीय हो गयी थी उस वर्ग को मनु एव वौधायन ने शूद्रो की श्रेणी मे रखा है।” अलबरूनी ने भी उपर्युक्त धर्मशास्त्रो का समर्थन किया है। इससे यह प्रतीत होता है कि समाज मे वैश्यो एव शूद्रो की स्थिति मे बहुत अतर नही था। परन्तु वास्तव मे ऐसी बात नही है। समरागणसूत्रधार मे विभिन्‍न वर्गों के गृह निर्माण के सदर्भ में वैश्यो का निवास स्थान ब्राह्मण और क्षत्रियो से निम्न श्रेणी मे किन्तु शूद्रो से श्रेष्ठ होना उल्लिखित है। अलबरूनी ने भी लिखा है कि शूद्रों के साथ वैश्यो को भी वेदाध्ययन का अधिकार नहीं था।” किन्तु अलबरूनी का यह विचार भी अनुमन्य नही है क्योकि लक्ष्मीधर ने वैश्यो के वेदाध्ययन क्रे अधिकार का स्पष्ट उल्लेख किया है।” समस्त परमार साक्ष्यो से स्पष्ट है कि वैश्यो की स्थिति शूद्रों से उच्च थी।

व्यापार एव कृषि पशुपालन वैश्यो के मुख्य व्यवसाय थे। ये अलग-अलग समूह बनाकर व्यापार करने के लिए ये वणिक एक देशा से दूसरे देश को जाते थे। व्यापारियों के ऐसे समूह को प्राचीन काल मे श्रेणी कहा जाता था। रास्ते मे अपने जीवन निर्वाह के लिए खाद्य सामग्री ले जाते

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थे।” इन व्यापारियों के लिए दूध, दही, मक्खन, नील, नमक, मदिरा, शस्शास्त्र और विष आदि का व्यापार करना वर्जित था |?

एक स्थान पर स्थिर होकर व्यवसाय करने वाले कास्यकार और स्वर्णकार जैसे अनेक वैश्य जातियो के भी नाम मिलते है। विशेष पर्वो पर ये लोग राज्य को एक निश्चित धनराशि कर के रूप मे देते थे |

राजनैतिक कार्यो मे भी वैश्यों का हाथ होता था। नगर शासन व्यवस्था मे उन्हे राजकीय कर्मचारियों के रूप मे नियुक्त किया जाता था।"” वे मदिरों के सरक्षक के रूप मे धार्मिक कृत्यों की देखभाल करते थे, जिनका उल्लेख महाजन गोष्ठि के नाम से उल्लेख मिलता है।” समाज के अन्य वर्गों की अपेक्षा वैश्य वर्ग अधिक सम्पन्न होता था। देवपाल के शासन काल मे केशव नामक एक व्यापारी ने अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति से एक शिव मदिर एव उसी के समीप एक तालाब का निर्माण करवाया था।”

तत्कालीन अभिलेखो में अग्रवाल थाखाट एव धनकुंट नामक जातियो के उल्लेख मिलते है।” दशरथ शर्मा के अनुसार ये लोग वैश्यो की ही एक शाखा है।

शूद्र-. प्राचीन आयार्चो के अनुसार शूद्रों का मुख्य कर्तव्य द्विजो की सेवा और सहायता करना था और इनके भरणपोषण का उत्तरदायित्व द्विजों पर था।” यदि शूद्र उच्च वर्गों की सेवा से अपनी या अपने कृटुम्ब की जीविका नहीं चला पाता था, तो वह बढईगीरी, चित्रकारी, पच्चीकारी- और रगसाजी जैसे उद्योगों द्वारा जीविको पार्जन करता था।*

कथाकोष प्रबन्ध और देशी नाम माला जैसे मध्यकालीन ग्रथो मे दस्तकारी अथवा खेती मे लगी हुई कई जातियो की गणना शूद्रो मे की गयी है। इनमे कुम्हार, माली, तम्बोली, तेली, नाई, लुहार, खाती, सुनार, ठठेरे, दर्जी, गडरिये आदि प्रमुख है।” जब वैश्यो ने व्यापार वाणिज्य को अपनी जीविका का प्रधान आधार बना लिया तब शूद्रो ने खेती, पशुपालन और

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दस्तकारी के पेशे भी अपना लिये। शैव और जैन धर्म के सुधारको ने शूद्रो के प्रति हीनभाव नही अपनया। इससे शूद्रों की स्थिति मे न्‍्यूनाधिक सुधार हुआ। इस समय के कुछ तात्रिक गुरू स्वय शूद्र थे। नवी शताब्दी के टीकाकार मेघातिथि ने शूद्रो को द्विजो की सेवा से मुक्ति का समर्थन किया है और उन्हे व्यक्तिगत सम्पत्ति का अधिकार भी दिया है। उसने शूद्रो के लिए बिना मन्त्रोच्चारण के सस्कारो के पालन करने का प्रावधान भी किया है| इस काल मे शूद्रो को मन्दिरो की व्यवस्था से सम्बन्धित किये जाने के भी उदाहरण मिलते है। उन्हे ग्राम और नगर की सुरक्षा समितियो का सदस्य भी बनाया जाता था।”

कालातर मे शूद्रो मे भी इनेक उपाजियो का विकास हुआ यथा मेहर जाति जिसका उल्लेख चाहमान अभिलेखो मे हुआ है। कामा से प्राप्त नवी शती के एक अभिलेख मे कृम्भ्कारो, शिल्पियो और मालियो की श्रेणियो का उल्लेख मिलता है।' स्थानीय सघो जिनके माध्यम से शिल्पियो, कम्हारो रगसाजो, आदि के आर्थिक क्रिया कलाप सपन्‍न होते थे श्रेणी कहा जाता

था

था। कायस्थ- पूर्वमाध्यमिक अभिलेखो से 'कायस्थो' की सामाजिक स्थिति का ज्ञान होता है। धर्मशास्त्रो एव गुप्तकालीन अभिलेखो मे कायस्थ लेखको के रूप मे उल्लिखित है।” लेखको के रूप मे कायस्थो का सर्वप्रमुख उल्लेख कनुसुआ अभिलेख मे हुआ है। इस प्रशस्ति की रचना रामिकान्गज नामक कायस्थ ने की थी।” गो0ही० ओझा के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय इत्यादि जातियो के जो लोग लेखक या अहलकारी का काम करते थे वे कायस्थ कहलाये। कालान्तर मे उनका विकास एक स्वतत्र जाति के रूप मे हुआ।” कायस्थ जाति की उत्पत्ति के विषय मे विद्वानो के विभिन्‍न मत है।

कलकत्ता उच्च न्यायालय ने बगाल के कायस्थो को शूद्र माना है।“ व्यास

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स्मृति मे कायस्थ नाइयो, कुम्हारो इत्यादि शूद्रों के साथ परिगणित हुए है। इलाहाबाद तथा पटना उच्च न्यायालय ने इनको द्विज बताया है।* भविष्यपुराण तथा पद्मपुराण ने कायस्थो को क्षत्रिय की सतान कहा है। उदयनसुन्दरी' कथा से ज्ञात होता है कि बालम कायस्थ क्षत्रिय जाति के है।” पूर्वमध्यकाल के अभिलेख लेखन का कार्य मुख्यत कायस्थो ने किया है। अल्कट के वि0स0 4040 के अभिलेख का लेखक कायस्थ पाल वेल्लक था।” विएस0 4054 के बालेरा दानपत्र को लिखने वाला कायस्थ कचन था।” कायस्थ कवियो का भी उल्लेख मिलता है। चाहमानदुर्लभ राज के वि0स0 4056 के विणसरियां अभिलेख मे गौड कायस्थ कवि कलल्‍्पा का उल्लेख है। वि0ठस0 4243 से नाडौल से प्राप्त प्रताप सिह के ताम्रपत्र में गौड कायस्थ पण्डित महिपाल का उल्लेख हुआ है।“ अनेक अभिलेखो मे इन्हे ठाकुर उपाधि से विभूषित किया गया है। नाडोल से प्राप्त विएस0 4498 के अभिलेख मे ठाकूर पेथड का उल्लेख है।” नरहड से प्राप्त विएस0 4245 के अभिलेख मे ठाकर श्री श्रीचन्द्र का उल्लेख है।” नाणा से प्राप्त विएस0 4257 के अभिलेख से ज्ञात होता है कि गौड कायस्थ उदय सिह ने ब्राह्मणो की कपिल मे 33 द्रम्म हौर 6 विशोपक उसकी व्यवस्यार्थ दिये थे।” ठाकुर उपाधि तथा दान से ऐसा प्रतीत होता है कि इस काल तक समाज में इनकी स्थिति सम्मानपूर्ण हो गयी थी। कायस्थ परमार राजा विजयराज का संधि विग्रहिक था। उदयपुर के विक्टोरियाहाल से प्राप्त परमार अभिलेखो मे रूद्रादित्य और उनके पौत्र कहिपाल को कायस्थ-कुजर कहा गया है।”

शायद ऐसा कायस्थ अभिलेख लेखको के कारण है|

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कालातर में कायस्थो मे भी उनके निवास स्थानों के आधार पर अनेक क्षेत्रीय उपजातिया बन गई। यथा- मथुरा के निवासी माथुर, गौड

(बगाल) के निवासी गौड कहलाये |

अन्त्यज-- समाज का निम्नतम वर्ग अन्त्यज माजा जाता था। मनु ने शूद्रो के लिए भी इस शब्द का प्रयोग किया था। अत्रि ने निम्नलिखित सात अन्त्यजो का उल्लेख किया है- रजक (धोबी), चर्मकार, नट (बास का काम करने वाला) चाण्डाल, कैवर्त (मछली मारने वाला) मेद और भिल्ल।* व्यास स्मृति में चर्मकार, भट, भिल्‍ल, रजक, पुष्कर, नट, विराट, मेद, चाण्डाल, दास, श्वपच तथा कोलिक इन 42 अन्त्यजो की सूची प्राप्त होती है।' अलबरूनी ने भी 42 अन्त्यजों का उल्लेख किया है- नट, बरूड कैवर्त, जलोपजीवी, व्याध, तन्तुवाय रजक, चर्मकार, हाडी, डोम, चाण्डाल वघातु।“ इनमे से प्रथम 5 की स्थिति अपेक्षाकृत ऊची थी। इनमे परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध होते थे अतिम चार के साथ अन्य अन्त्यजो का सम्बन्ध नहीं होता था। इन्हे अपने - अपने व्यवसायों के आधार पर पृथक जातियो के रूप में माना जाता था।

मछुये जैसी कुछ जातियो का उल्लेख भोज ने भी किया है।

अन्त्यजो का सामाजिक स्थान उनके व्यवसाय तथा स्वतत्रता के आधार पर निश्चित होता था। भेद मेवाड के जगली पहाड़ी क्षेत्रों मे रहते थे इस क्षेत्र मे इनका प्रभाव था। भील अन्त्यज भी अरावली के पहाडी क्षेत्रों में रहते थे। इसी प्रकार दक्षिण पूर्वी क्षेत्र से मीना जाति थी। ये लोग लूट खसोट से जीविकोपार्जन करते थे। बावरी जाति का उल्लेख जालौर के वि0स0 4239 के एक अभिलेख में हुआ है। दशरथ शर्मा का मत है कि सभवत लक्ष्मण चाहमान को नाडोल राज्य की स्थापना मे मीना भील और

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बावरियो ने सहायता प्रदान की थी।

[ 59 |

'उपमितिभव प्रवचकथा' मे अन्त्यजों का यत्र तत्र उल्लेख है। मातगो के घर बहुत गदी बस्तियो में होते थे।* यहा पर यह भी सकेतित है कि सामाजिक जीवन मे उच्चतम स्थिति महाराज की और निम्नतम स्थिति चाण्डालो की। यद्यपि अभिलेखो मे उनके जीवन से सम्बन्धित विस्तृत सूचनाये नही मिलती तथापि साहित्यिक ग्रथो मे इस पर प्रकाश डाला गया हि

अन्त्यजो के अतिरिक्त शबर भील किरात आदि कुछ जगली जातियो के भी उल्लेख मिलते है। ये अपने हाथो मे सदैव धनुषबाण लिये समूह बनाकर जगल मे धूमा करते थे।” भील जाति के लोगो का मुख्य व्यवसाय कृषि एव चित्र बनाया था। इसके अतिरिक्त ये पथविचलित लोगों के मार्गदर्शक का भी कार्य करते थे। इस जाति मे जुआ का खूब प्रचलन था। शबर जाति का मुख्य व्यवसाय शिकार करना होता था। वे लोग सिह चर्म पहनते थे तथा स्त्रिया गुजाफल (घुमची) को तागे में गूथकर आभूषण

स्वरूप गले में पहनती थी।*

स्त्रियों की दशा- समाज मे स्त्रियों का स्थान- परिवार रूपी रथ के सफल सचालन के लिए स्त्री और पुरूष रूपी दो पहियो का होना आवश्यक होता है। यद्यपि समाज मे स्त्रियों को सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त था तथापि पुत्री

जन्म को अच्छा नही माना जाता था। ज्ञान पचमीकथा * तथा उपमितिभव

प्रवचकथा के अनुसार अधिक सख्या मे पुत्रियों का होना नरकवत था।

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साधारणतया लोग पुत्र प्राप्ति की ईच्छा करते थे।” पुत्र जन्म पर उत्सव इत्यादि मनाये जाते थे और देवताओ की पूजा की जाती थी | परमारकाल मे मे यत्र नार्यस्तु पूर्ज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता के सिद्धात का पालन किया जाता था। उनके कर्तव्यो की इतिश्री केवल पारिवारिक जीवन तक ही नही

हो जाती थी। सामाजिक जीवन से भी इनका पूर्ण सम्बन्ध रहता था।

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राजाभोज ने इनके कर्तव्यों के बारे मे कहा है कि “स्त्री प्रत्येक समय पुरूष की सहयोगी होती है। पुरूष के कार्यों मे कुशल सलाहकार का, कर्तव्यों मे दासी का, स्नेह देते हुए माता का, अपनी क्षमाशक्ति द्वारा मानो पृथ्वी का, धर्मकार्यों मे पत्नी का और शय्या पर मानो वेश्या का व्यवहार करती हुई, स्त्री कुल का उद्धार करती है। पुत्र जन्म के समान पुत्री के जन्म पर भी नृत्यगान का आयोजन करके परमार लोग अपनी प्रसन्नताये मे प्रकट करते थे।

नारी शिक्षा- उच्च परिवारों मे उत्पन्न कन्‍्याओ की शिक्षा का उचित प्रबन्ध किया जाता था। उनकी शिक्षा मे सगीत, गायन, वादन, नृत्य और चित्रकला इत्यादि सम्मिलित थे। उनको धार्मिक दार्शनिक विवादों मे भाग लेने का अवसर भी प्राप्त होता था परन्तु यह सामान्यत होकर विरलता था। सामान्य परिवारों मे स्त्रिया अशिक्षिता रहती थी। कछ ऐसी स्त्रियों के उदाहरण भी उपलब्ध है जो दर्शन, धर्म तथा साहित्य मे रूचि रखती थी। योगेश्वरी नामक महिला उज्जैन के एक शैव आश्रम की प्रमुख थी।* परमारशासक उपेन्द्ररज के दरबार मे सीता नामक कवियित्री रहती थी जिसने उस नरेश की प्रशसा में अनेक गीत लिखे थे।* परमारशासक उदयादित्य के झालरापाटन अभिलेख की लेखिका पडिता हर्षुका थी | गाहसस्‍य धर्म की शिक्षा के अतिरिक्त लडकियो को वेद पुराण, उपनिषद नाट्यकला एव सगीत कला की भी शिक्षा दी जाती थी।” कुछ स्मृतिकारो ने स्त्रियों के लिए वेदाध्ययन का निषेध किया है” परन्तु परमारकालीन स्त्रियों को वेदाध्ययन का अधिकार प्राप्त था। इस काल मे कवियित्री सीता ने वेद पुराण, रघुवश महाकाव्य, वात्सायन कामसूत्र तथा चाणक्य राजनीतिशास्त्र का विशेष रूप से अध्ययन किया था। विवाह पूर्व कन्याये

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अपने माता पिता के सरक्षण मे रहती थी।

[0] |

विवाह--

विवाह गृहस्थ आश्रम का आरम्भ एव सामाजिक जीवन की एक महत्वपूर्ण मान्यता है। विवाहोपरान्त पति ही कन्या का स्वामी होता था। व्यवस्थाकारो ने सगोत्र और सपिण्ड विवाह को वर्जित बताया है। वर परीक्षण मे जाति, गोत्र, पिण्ड, प्रवर, शिक्षा, आयु, गुण, धन जन्मस्थल इत्यादि प्रमुख विचारणीय बिन्दु थे। विवाह मे माता पिता बधू को सम्पत्ति आभूषण इत्यादि उपहार में दते थे।*

ऐसे उदाहरण भी उपलबध है जब राजपरिवारो के वैवाहिक सम्बन्ध पारस्परिक युद्धों के उपरान्त की गई सन्धियों का परिणाम होते थे। यथा परमार शासक उदयादित्य की पुत्री श्यामलदेवी का विवाह मेवाड के गुहिल शासक विजय सिह से इसी उद्देश्य से किया गया था।*४

परमारशासक उदयादित्य ने चाहमान द्वितीय विग्रहराज से राजमती अथवा राजदेवी नामक एक राजकुमार का विवाह करके चाहमानो से मित्रता स्थापित की श्री | 455

मेघातिथि के अनुसार लडकी का विवाह आठ वर्ष की आयु मे होना चाहिये | अभिलेखो मे विवाह योग्य वर्ष का विवरण उपलब्ध नही होता। सोमदेव ने पुत्री के विवाह की आयु 42 वर्ष बतायी है।” अर्गोराज की ॥8 वर्षीय पुत्री का विवाह कुमारपाल चौलुक्य से लुआ था। तिलकमजरी से ज्ञात होता है कि कभी-कभी बालिकाओ के उत्पन्न होने के पूर्व ही उनके विवाह निश्चित कर दिये जाते थे।*

इस काल मे अतर्जातीय अनुलोम विवाह के भी कतिपय उदाहरण भी उपलब्ध होते है - नाडोल के शासक लक्ष्मण ने एक वैश्य कन्या से विवाह किया था| स्वयवर प्रथा अपवाद स्वरूप ही अपनाई जाती थी।

अभिलेख से ज्ञात होता है कि रानिया धार्मिक तथा जनकल्याणकारी कार्यो के लिए दान देने मे रुचि लेती थी। परमारशासक पूर्णपाल की विधवा बहिन लाहिनी ने सूर्य मन्दिर का जीर्णोद्धार और वटपुर मे एक बावडी का निर्माण करवाया था।” धारावर्ष की रानियो श्रुगारदेवी गीगादेवी ने एक बावडी बनवाकर शातिनाथ के मदिर को भेट की थी ।॥

समाज और परिवार मे 'माता' का अत्यधिक गौरवपूर्ण स्थान था। पूर्वगामी युग के समान लोग अपने माता पिता के धार्मिक कल्याण एव पुण्यार्जन हेतु दान दिया करते थे। परमार शासक यशोवर्मन ने अपनी माता सोमलादेवी की जयन्ती के अवसर पर भूमिदान किया था।*

दहेज

परमारयुगीन अभिलेखो मे दहेज का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि वर्तमान की तरह दहेज की माग नहीं की जाती थी। परन्तु कन्यापक्ष उपहार स्वरुप वर पक्ष को यथास्थिति धनधान्य से युक्त कन्या की विदाई करता था जिसे स्त्रीधन कहा जाता था।

बहुविवाह

परमार कालीन अभिलेखो से ज्ञात होता है कि राज परिवारों मे बहुपत्नीत्व का प्रचलन था। धनाढय और सामन्त भी इसका अनुकरण करते थे। उदयादित्य, भोज और अर्जुनवर्मम आदि राजाओ की कई रानियाँ थी। परमार राजवश की आबूशाखा के शासक धारावर्ष के दो रानियाँ थी - गीगादेवी और श्रुगारदेवी |” अलबरुनी का कथन है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र क्रमश चार, तीन, दो और एक पत्नी रख सकते थे।

सती प्रथा--

सतीप्रथा का प्राचीनतम्‌ ज्ञात स्रोत भानुगुप्त का एरण अभिलेख है। परमारयुगीन अभिलेखो एवं साहित्य मे सतीप्रथा का कोई उल्लेख नही मिलता है। इसकाल में चाहमान शासक अजय पाल की मृत्यु होने पर उसकी तीन रानिया सती हो गयी थी।” राठौर भूवणि के पुत्र सलखा की मृत्यु होने पर उसकी तीन रानिया सलखण देवी चहुवाणी, सावलदेवी सोलकिणी और सेजड देवी गहलोतणी सती हुई थी। धर्कट (वैश्य) जातीय और पोचस गोत्रीय समधर के पुत्र की मृत्यु हो जाने पर उसकी पत्नी सती हो गई थी।” धर्मशास्त्रो के अनुसार सतीप्रथा मुख्यत राजपूतो तक ही सीमिति थी। वह भी पूरे राजवशों मे नहीं। आगिरस के अनुसार ब्राह्मण पत्नी का सती होना आत्मघात के समान है। इससे तो उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है ही उसके पति को।” सती होने पर विधवाये पारिवारिक सरक्षण मे रहती थी। परमार शासक पूर्णपाल के बसतगढ अभिलेख से ज्ञात होता है कि पूर्णपाल की विधवा बहिन लाहिनी अपने भाई के सरक्षण मे रह रही थी।” वे विधवा रानिया जो राजनैतिक कारणो से सती नही होती थी वे सत्ता का उपयोग करती थी यथा - पृथ्वीराज तृतीय के पिता सोमेश्वर की अल्पायु मे मृत्यु मे मृत्यु होने पर कुछ समय के लिए उसकी माता कर्पूरदेवी ने सरक्षिका के रुप मे शासन किया था। * ऐसा प्रतीत होता है कि सती प्रथा आवश्यक एव सामान्य प्रथा नही थी। यह राजपूतो के कुछ वशो तक ही सीमित थी। यदा कदा वैश्यो मे भी मिलता है। परमार वश मे इसका कोई उदाहरण नही है। ब्राह्मण भी इसके अनुयायी नही थे।

विधवा विवाह- स्त्रियों का पुनर्विवाह नही होता था। विधवाये समाज मे साधारण रुप

से जीवन व्यतीत करती थी। सामान्यतया वे धार्मिक कृत्यो मे अपना जीवन व्यतीत करती थी। आबू शासक पूर्णपाल की बहिन लाहिनी देवी ने अपने पति विग्रहराज

की मृत्यु के उपरान्त अपना जीवन साधारणरुप से बिताया। उसने वटपुर मे एक सूर्य मदिर का जीर्णोद्धार एव एक तालाब का निर्माण कराया।

उत्तराधिकार--

परमार काल में विशेषतया परमारवश मे स्त्रियों को आदरणीय स्थान प्राप्त थे। समाज मे आदरणीय स्थान के साथ ही स्त्रियों को कुछ कानूनी अधिकार भी प्राप्त थे। लडकिया भी अपने पिता सम्पत्ति की उत्तराधिकारिणी होती थी। उन्हे अपने भाइयो को प्राप्त सम्पत्ति की तुलना मे चौथाई हिस्सा मिलता था।” विधवा पत्नी अपने पति की सम्पत्ति की उत्तराधिकारिणी तो नही होती थी किन्तु जो व्यक्ति उसके पति की मृत्यु पर उत्तराधिकारी होता था वह उस विघवा को आजीवन भोजन वस्त्र देने के लिए बाध्य होता था।” मनु जैसे स्मृतिकारों ने भी पत्नी को पति की सम्पत्ति का हकदार नही माना है।

स्त्रियों को भूमिदान करने का भी अधिकार था। आबू शासक प्रह्लाद देव की पत्नी ने जेन विद्वान जयदेव को अजाहरी नामक गॉव की कुछ भूमिदान दी थी |” इसी प्रकार धारावर्ष की पत्नी श्रुगारदेवी ने भी शातिनाथ के मन्दिर के लिए भूमिदान किया था।”

गणिकाये और देवदासिया--

परमार काल मे गणिकाओ और देवदासियो का उल्लेख अभिलेखो मे मिलता है। बसतगढ अभिलेख मे उल्लिखित है कि वटपुर नगर पुराण पाठी ब्राह्मणो, गणिकाओ और सैनिको से सुसज्जित था।” प्राचीन काल मे साधारणतया उच्चकोटि की गणिकाये शिक्षिता तथा कामशास्त्र मे निष्णात होती थी।” अपने नृत्यगान तथा हावभाव से लोगो को आकुृष्ट करने वाली उस समय की गणिकाओ की यह विशेषता थी कि वे केवल धन की ही लोभी नही थी बल्कि वे अपने सम्पर्क

से आने वाले पुरुषो के गुणो की ओर विशेषरुप से ध्यानदेती थी। वे गुणयुक्त एव कुलीन पुरुषों से ही अपना विशेष सम्पर्क रखती थी।“ राजाओ के अतपुर मे भी कुछ गणिकाये रहती थी जो उसके महल मे प्रवेश करने पर उनका मगलाचरण आदि करती थी | मनोरजनार्थ वेश्याये शासकों के साथ कभी-कभी युद्धमूमि मे भी जाया करती थी।” गणिकाओ को समाज का अभिन्‍न अग माना जाता था और धनीवर्ग तथा राजसभाओ मे इनको सम्मान प्राप्त था। वि0स0 4200 के नाणा मे प्राप्त ताम्रपत्र मे विलासिनी और मेहरी नामक देवदासियो का उल्लेख हुआ है।” जिस गधर्वशाला मे गणिका कन्याओ को शिक्षा दी जाती थी वहा सभ्य परिवार की कन्याये नही पढती थी।” सामान्त अपने स्वामियो को सुन्दर गणिकाये भेटकर उन्हे प्रसन्‍न करते थे| ऐसा विवरण हर्षनाथ अभिलेख” से प्राप्त होता है।

व्रत- अभिलेखो मे श्रावण की महाचर्तुर्दशी, एकादशी, शिवरात्रि इत्यादि व्रतो का वर्णन हुआ है।” अलवरुनी ने हिन्दू समाज मे प्रचलित निम्नलिखित व्रतो का उल्लेख किया है - (४) देवशयनी एकादशी व्रत (2) असाढ शुक्लपक्ष की अष्टमी का व्रत (3) देव उठनी एकादशी व्रत (५) पौष की षष्ठी को सूर्य का व्रत (5) मार्ग शीर्ष मे तीज को गौरी तृतीय का उत्सव” कर्प्रमजरी मे गौरी तृतीया' व्रत का वर्णन किया गया है।”'

उत्सव--

परमारकाल मे त्योहार तथा उत्सव अत्यन्त उत्साह के साथ आयोजित किये जाते थे। भिनमाल के जगत स्वामी के सूर्य मन्दिर से प्राप्त अनेक अभिलेखो से इसकी पुष्टि होती है। भिनमाल मे अश्विन माह मे आयोजित एक उत्सव मे देवताओं के अराधनार्थ स्थायी व्यवस्था हेतु विभिन्‍न जातियो के लोगो द्वारा भेट प्रदान की जाती थी।“ जालौर के समर सिह के अभिलेख” से ज्ञात होता है कि दीपोत्सव के दिन पूर्णदेवसूरि के शिष्य रामचन्द्राचार्य ने नवनिर्मित मण्डप मे स्वर्ण कलश निर्मित करवाया। आबू के लुनाबासी मदिर की प्रतिष्ठापना के समय से वहा

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वार्षिक उत्सव आयोजित किये जाते थे।* यह उत्सव चैत के कृष्णपक्ष की तृतीया को आरम्भ होता था और आठ दिनो तक चलता रहता था। उत्सव के मध्य स्नान पूजा समारोह सम्पन्न किये जाते थे। अलबरुनी ने बसन्तोत्सव का वर्णन किया है। पुत्र जन्मोत्सव भी मनाये जाते थे।” राजाओ द्वारा नये प्रदेशों की विजय के उपलब्ध मे उत्सवों का आयोजन किया जाता था। कई अभिलेखे से ज्ञात होता है कि भोज परमार ने कोकण विजय पर्व और कोकणग्रहण विजय पर्व मनाये थे।”

मेलो का आयोजन भी किया जाता था | तीर्थस्थल--

प्राचीन काल से ही भरतीय समाज मे तीर्थयात्रा का महत्व था मौर्य साहित्य मे तीर्थयात्रा को धम्म यात्रा कहा गया है। परमार काल मे धर्म अनुयायियो के पुष्कर, विजोलिया, मिनाल, रिवासा, घोटार्सी और हर्षनाथ इत्यादि प्रमुख तीर्थस्थल थे। मिनाल शैवधर्मावलम्बियो का प्रमुख स्थल था तथा महानाल मन्दिर के लिए प्रसिद्द था। वि०0 स0 4226 के विजीलिया अभिलेख मे भी इसका उल्लेख एक तीर्थस्थल के रूप मे हुआ है।” विजौलिया भी शैवो का एक प्रमुख केन्द्र था | यहाँ लोग विभिन्‍न स्थानो से महाकाल के मन्दिर के दर्शन करने तथा मन्दाकिनी कुण्ड मे स्नान करने के लिए आते थे।

'विविधतीर्थकल्प' के अनुसार अचलेश्वर अर्बूदाचल, कुण्डुगेश्वर, अभिनन्दादेवी और उज्जयिनी इत्यादि प्रमुख जैनतीर्थस्थल थे |**

वस्तराभूषण-

आधोवसन (धोती) और उत्तरीय (चादर) लोगो के वस्त्र होते थे।” स्त्रिया घाधरा और चोली भी पहनती थी।” इस समय चोली को कूपार्सक नाम से

सबोधित किया जाता था।” पुरूष धोती चादर के अतिरिक्त अगरखा

(नेत्रकपार्सक)/” पहनते तथा सिर पर पगडी बाधते थे। पकडी अधिकाशत रेशमी होती थी |” धनी लोग कामदार वस्त्र पहनते थे।” चीन के बने हुए रेशमी वस्त्रो का धनी लोग अधिक उपयोग करते थे।” ऋतु के अनुकूल ऊनी, सूती एव रेशमी वस्त्रो के उपयोग किये जाते थे।” जाडे के दिनो में ऊनी वस्त्रों के अतिरिक्त सिहचर्य भी धारण किये जाते थे [”

कृण्डल, हार, भुजबन्द, कगन, अगूठी और करधनी इस समय के मुख्य आभूषण माने जाते थे।” शरीर के विभिन्‍न अगो मे पहने जाने वाले ये आभूषण विभिन्‍न प्रकार के होते थे। कानो में दन्तपत्र”" क्‍्यूयादि, कुण्डल” श्रवणपाश और कर्णफल** नामक आभूषण धारण किये जाते थे। कभी-कभी तालपत्र भी कानो मे पहना जाता था।” इसी प्रकार हार भी विभिन्‍न प्रकार के होते थे जैसे जालकठी“” (मोती का बना हुआ हार) साधारण हार” एकावलीहार” (एक लडी की मोती की माला) सोना जाल”” (स्वर्णशार) और चचलहार” (नाभि तक लटकता हुआ) कलाई एव भुजाओ मे कगन, कैमूर”, चद्रहाड, रिया और चूडिया* पहनी जाती थी। स्त्रिया पैरो मे नूपुर पहनती थी | स्त्रीपुरुष दोनो ही अगुलियो मे रत्नजडित अगूठिया पहनते थे।”

लोग सिर पर बाल रखते थे तथा स्त्रिया अपनी वेणी को फूलो से अलकृत”” करती थी। वे ललाट पर कुकम की बिन्दी तथा विवाहित स्त्रिया माग मे सिदूर लगाती थी।“ स्त्री पुरुष दोनो अपने शरीर मे चदन आदि सुगन्धित द्रव्यो का विलेपन भी करते थे। दातो को रगीन बनाने के लिए लोग पान खाते थे ।*”

खान पान- इस समय के मुख्य खाद्य पदार्थ चावल, दाल गेहूँ जौ, चना, फल, घी,

दूध, दही, मट्ठा और मक्खन आदि थे।” मूग, मसूर, कोदौो, उरद और चने का उपयोग दाल के रूप मे किया जाता था| चावल कई प्रकार से बनाया जाता था

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विशेषकर दूध में पकाकर खाया जाता था। किसी आगनतुक के आने पर उसके स्वागतार्थ लोग उसे खीर बनाकर खिलाते थे” राजमार्तण्ड मे प्रमाण मिलता है कि गाय के दूध मे चावल पकाकर खाने से मुनष्य दीर्घायु होता है। और उस पर वृद्धावस्था का प्रभाव जल्दी नहीं होता ।” चावल की तुलना मे गेहूँ कम खाया जाता था। इससे निर्मित विभिन्‍न प्रकार भगवान को नैवेद्य के रुप मे चढाये जाते थे।” गेहूँ के आटे के दीपक भी भगवान के सम्मुख जलाये जाते थे।”

अनेक पेय पदार्थों के भी उपयोग होते थे जिनमे नारियल का पानी, ईख का रस और मधु अधिक महत्वपूर्ण थे

राजमार्तण्ड के अनुसार प्राय सभी वर्णों के लोग एकादशी और पूर्णिमा जैसी तिथियो अथवा पर्वों को छेडकर मास भक्षण करते थे।” परन्तु ब्राह्मणो के मास खाने का उल्लेख केवल भोज के एक अभिलेख मे ही मिलता है।” अभिलेखो में खाद्य पदार्थों के नामो का प्राय अभाव सा है। अभिलेखो मे आटा, चावल को घी मे पकाये जाने का उल्लेख है। नैवेध तैयार करने के लिए दो सेर आटे मे आठ कलश घी की आवश्यकता पडती है।” द्वितीय भीमदेव के आबू अभिलेख” मे हीग, जायफल, जावित्री, मेथी, आवला, हरड, खाण्ड, गुड, कालीमिर्च, बहेडा, महुआ, नारियल और दालो के प्रयोग का वर्णन मिलता है।

अघूर्णा अभिलेख मे गुड, मजिष्ठ, नारियल, सुपाडी, तेल, जव इत्यादि के व्यापार की मण्डियो का विवरण प्राप्त होता है।

अलबरुनी ने सूचित किया है कि ब्राह्मण को गैडे के मास खाने का विशेष अधिकार था“

'समराइच्चकहा' मे चण्डिका की पूजा में भेसे की बलि देकर उसका

मास प्रसाद रुपेण ब्राह्मणो द्वारा खाये जाने का वर्णन है 'तिलकमजरी' से ज्ञात होता है कि स्त्रिया और पुरुष पान मे कर्पूर मिलाकर खाते थे।*

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बाउक की जोधपुर प्रशस्ति से स्पष्ट होता है कि आठवी शताब्दी में क्षत्रिय सुरापान करते थे। अलबरुनी ने भी लिखा है कि क्षत्रिय वर्ग के लोग मद्यपान करते थे। यह प्रतीत होता हे कि क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ग सामान्यत मास भक्षण करता था किन्तु ब्राह्मण समय विशेष पर ही ऐसा करते थे।” यह भी उल्लेख मिलता है कि सूकर, हिरण, खरगोश, भेड, बकरी, मछली और कहुये जैसे जीवो का मास भक्षण किया जाता था।” अलबरुनी कहता है कि गाय, घोडे, खच्चर, ऊेंट, हाथी, कौवे, तोते और बुलबुल का मास भक्षण होता था।” लोग मद्यपान भी करते थे।” किन्तु ब्रत आदि के दिन यह निषिद्ध था। भोजन मे शुद्धता का विशेष ध्यान दिया जाता था। रसोईगृह में भोजन बनाने के लिए एक स्वच्छ वस्त्र रखा जाता था, जिसे पहनकर ही रसोइया भोज्य पदार्थों को पकाता था। भोजन और पेयो के वर्तन सोने, चादी, कासे, शीशे और मिट्टी के हुआ करते थे।

सामाजिक प्रथाये एव अधविश्वास-

सामान्यत सामाजिक प्रथाओं के कारण ही साधारण विश्वास बनते है। परमार कालीन समाज मे भी अनेक विश्वास ज्ञात होते है। जिनमे कुछ अधविश्वास भी थी। उस समय तन्‍्त्रमत्रो का खूब प्रचार था। स्त्रिया अपनी इच्छापूर्ति के लिये गले एव बाहो मे ताबीजे बाधती थी। झाडफूक करने वालो का एक अलग वर्ग ही था जो ताबीज आदि देते थे। स्त्रिया सतानोत्पत्ति के लिए जडी बूटियाँ पीसकर पीती थी |”

वशीकरण विद्या भी प्रचलित थी। इसमे विशेषत लोग गरुडमन्त्र का उपयोग करते थे।” अन्य उपायो द्वारा भी जैसे तिलक, अजन आदि लगाकर दूसरो 256

को अपने वश में किया जाता था।” इसके अतिरिक्त स्तम्भन, स्तोम (प्रवृत्त कार्यों

में प्रतिबन्ध), उच्चाटन तथा विद्वेषण आदि के भी प्रयोग प्रचलित थे।**

भूतप्रेत आदि अदृश्य योनियो में भी लोगों का विश्वास था। उनसे

बचने के लिए लोग समयानुसार विविध प्रकार के धूपो को जलाते एव प्रसूतिगृह के चारो ओर मत्रमुक्त भस्म की एक रेखा खीचते थे। प्रेतात्माओ की तृप्ति के लिए लोग श्राद्ध एव पिण्डदान आदि क्रियाये करते थे। यशोवर्मन ने अपनी माता मोमलदेवी के वार्षिक श्राद्ध के दिन ब्राह्मणो को कुछ भूमि दान दी थी।* कभी-कभी मन्त्रबल से लोग अदृश्य शक्रियो को उत्पन्न करके अपनी कार्यसिद्धि भी करते थे। चालुक्य शासक द्वारा धारानगरी के अधिकृत हो जाने पर यशोवर्मन के गुरु ने अपने मन्त्रो के बल से शत्रुओ का नाश करने के लिए एक कत्या उत्पन्न की थी [” लोग कर्णापिशाचिनी विद्या मे भी विश्वास करते थे।”'

स्वर्ग और नरक मे प्राय सभी लोगो की आस्था थी। धर्म स्वर्ग प्राप्ति का प्रधान साधन माना जाता था|” ऐसा विश्वास था कि किस प्रकार भूमिदान से मृत्यु के बाद स्वर्ग की प्राप्ति होती है उसी प्रकार दान की हुई भूमि का अपहरण करने तथा दूसरों को इसके अपहरण के लिये प्रेरित करने वालों को नरक मिलता लि

ज्योतिषियो की भविष्यवाणी में लोगो का बहुत बडा विश्वास था। लोग अपनी हस्तरेखाये दिखाते और उनके कथनानुसार किसी शुभफल की कामना से व्रत एवं पूजा भी करते थे।” वाक्पतिराजमुज ने ज्योतिषियो की इस भविष्यवाणी पर विश्वास करके कि उसका भतीजा भोज चक्रवर्ती सम्राट बनकर भविष्य मे अधिक दिनो तक राज्य करेगा, उसे मार डालने की आज्ञा दे दी।”

मनोरजन के साधन-- जीवन मे श्रम एव अध्यावसाय का जितना महत्व है इससे जरा भी

कम महत्व मनोरजन का नही है। विवेच्यकाल मे लोग भी विभिन्‍न प्रकार से अपना मनोरजन करते थे।

मनोरजन के लिए सास्कृतिक ढग की साहित्यिक गोष्ठियो का आयोजन किया जाता था, जिसमे साहित्यिक विषयो पर विचार और कठस्थ कविताओं का पाठ आदि होता था।” इसके अतिरिक्त बडे-बडे विद्वानो को आमत्रित कर शाम्त्रार्थ आदि के आयोजन भी किये जाते थे।” कभी-कभी कुछ समस्याये भी रखी जाती थी जिनका विद्दद्‌वर्ग समाधान करता” था।

नाट्य एव अभिनय अवकाश के समय लोग नाटको द्वारा भी अपना मनोविनोद करते थे। कभी-कभी राज्य की ओर से भी नाटको के मचन की व्यवस्था भी की जाती थी। प्राय राजमहल अथवा देवमदिर ही रगमच के स्थल चुने जाते थे।” अर्जुन वर्मम के शासनकाल मे वसन्तोत्सव के अवसर पर राज्य की ओर से परिजातमजरी नामक एक नाटिका का मचन हुआ था।”

आखेट-

शिकार मनोरजन का एक प्रमुख साधन था।” वैदिककाल से ही शिकार की प्रथा प्रचलित है।” सिधुराज, भोज तथा आबू शासक धारावर्ष” आदि शिकार के अत्यधिक प्रेमी थी। राजाभोज की आखेट प्रियता पूर्णतः स्पष्ट है। विख्यात है कि एक बार जब वह धनपाल कवि के साथ जगल मे शिकार करने के लिए गये थे। उनके हिरण के शिकार के बाद धनपाल ने निर्दोष हिरण मारने पर एक कविता बनाकर राजाभोज को सुनाया“, जिससे परमार भोज के मन में बडा क्षोम उत्पन्न हुआ। लोग शिकार के लिए जाते समय उपकरणो के रुप मे शिकारी कुत्ते भी साथ ले जाते थे।”

वा

घूत लोगो के मनोविनोद का एक अन्य प्रमुख साधन था। अलबरुनी के अनुसार इसके लिए एक अलग भवन होता था जिसमे पासा फेकने के लिए

एक विशेष नाप का फलक रखा जाता था।” घूतगृह से एक निश्चित धनराशि राजा को कर के रुप मे प्राप्त होती थी।” सारणेश्वर प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि मन्दिर के निर्वाह के लिए जुआरी से एक पेटक (एक दाव की जीत का भाग) लिये जाने की व्यवस्था की गई थी ।” शतरज के प्रति भी लोगो की रुचि थी ।” किन्तु धार्मिक पर्वों पर लोग उसमे भाग नही लेते थे [”'

संगीत और नृत्य--

सगीत और नृत्य द्वारा भी लोग अपना मनोरजन करते थे | सगीत मे ढोल, मृदग, फाफ, तुरही और फल्लरी आदि कई प्रकार के वाद्यो का उपयोग किया जाता था।” वीणा और वासुरी बजाने के भी लोग शौकीन होते थे।“ अर्जुन वर्मन स्वय वीणा वादन का विशेषज्ञ था [7

इसके अतिरिक्त लोग जल क्रीडा एव मद्यपान भी करते थे |” क्रीडा पर्वत पर भी जाते थे।” वृद्धजन सायकाल कथा वार्ताओ द्वारा अपना मनोविनोद करते थे।”

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पी0वी0 काणे - धर्मशास्त्र का इतिहास पृष्ठ - 449 गौतम 40/4-3 द्र वशिष्ठ 2/43-49 मनु0 4 /88-90 आपस्तम्ब - 4/4 /7-8 ब्राह्मणोडस्य मुखमासीद बाहू राजन्य क॒त | उदरूतदस्य यद्वैश्य पदम्या शूद्रो अजायत || ऋग्वेद सहिता - 40 / 90 / 42 ति0म0 पृष्ठ - 47 ॥387२55 ४५०, &४/४(॥ ? 35] 50 था0 7707507 ४०]। ।7 9 5[ ४० एा। ?926 206 [6 ५० %४ 782९ 354 उिता 0.02 ४०] | 9था | 2826 473 8] ५७०! जाफ 7१2० 238 307 0.02 ४० शा। ९826 [46 75583 ४९), 909 7९,5५5: ]67 राजपूताने का इतिहास -4- पृष्ठ 69-88 नाडइा09 0 ४९९ा०णवां नाए0तप वा ४०। 9926 330-33. ब्रह्मक्षत्रिकूलीन प्रलीनसामन्त चक्रनुतचरण | सकलमुकृतैकपुज श्रीमान मुजार््चरजयति || पिगलछदसूत्र वृत्ति पृ० 439 ब्रह्मक्षत्रस्य यौ योनिर्वशो राजर्षिसत्कृत | क्षेमक प्राप्य राजान सस्थान प्राप्स्यते क्लौ।। विष्णु पुराण - 4/24 / 8 काले कृतयुगे चैव क्षीणै त्रेतायुगे पुन वीजार्यन्ते भविष्यन्ति ब्रह्मक्षत्रस्य वे पुन || वायुपुराण अध्याय 339] ४० 909 29206 86. (47743 092९ 23 5 [. ४०!. [ 99826 305 [नाइ09 06 लाशवंप ८१ एवं [708 ५४०. 09326 62

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श्रे0 म0 पृ० 28

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रेउ राजाभोज पृष्ठ 52

नृत्यमजरी पृष्ठ - 55

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मुक्ता विप्रकरानरातिनिकरान्नि्ज्जित्य तत्किचन | प्रापत्सप्रति सोमसिह नृपति सोमप्रकाश यश |

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डा0 एस0पी0 व्यास राजस्थन के अभि0 का सा0० अध्ययन पृष्ठ 443 एस0ई0० जिल्द पाचवी परिशिष्ठ पृष्ठ 53 स0 362

सकल विद्याचक्रवर्ति कृत 'गद्यकरणमृत'

8रापव। रि९०0०7 ४४५55०07 0008९040208 [02८90 929 याज्ञवल्क्यस्मृति 4,53 की टीका।

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रा०0थू0ए0 पृ0 439

54 ४०]. झंडे ? 48 45 ४७०। ७४ ? 62

डा0 एस0पी० व्यास राजस्थान के अभि0का सा0 अध्य0 445 ]-0, 29 0426 69

528078प ५४०। [॥ 99826 36

क्‌०क0 गृहस्थकाड पृ0 258

ति0 म0 पृ0 4॥7

कृ0क0 गृहस्थकाड पृ0 258

5-] ४०. <&५ ?. 298-303 ४०॥ ४०४६ ? 486

58090 ४० 4 0926 0]

मनु0 3,/42 बौधयन धर्मसूत्र ।/44 /43-44

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बील छप्काई 782009 06 ए&6छंला ए00 ] 9926 64 वि०स0 4204 दिलवाडा (आबू) अभि0 &] 9 9826 5]

नाहर जे0ले0 स0 4 पृ० 248

वि0स0 4447 का भीनमाल अभि0 & 0 ०णीरबु8४भा 282९ 395

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वि0स0 4204 का दिलवाडा अभि० ह8&] 9 9426 5] हर्ष स0 204 खण्डेला अभि0 अकबरनामा पृ0 67 [| ४०0 &>&ाए? 3028 ४०! #,५ 79

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आपस्तम्ब ]-]-]-7-8

पी0वी0० काणे धर्मशास्त्र का इतिहास 4 पृ० 448 जी0एन0 शर्मा राजस्थान का इतिहास पृ0 446 मेधातिथि - 3 पृष्ठ 456

डा0 व्यास राज0 के अभि0 का सास्कृ0 अध्य0 - 47 5 ] 24 9326 329

राजुमदार (0ए90०वबा6 6 जा एटा ॥708 गोपालचद्र सरकार & ज्ञाइ८ ०7 नागवप 3७ 9 ]43 द्र0 उदयनसुन्दरी कथा की भूमिका |

3][] 2 926 67-08

5. ]| ]0 09926 20

मिताक्षरा 4 पृ० 335

8.0 9 9926 37

गो0ही0 ओझा मध्यकालीन भारतीय सस्कति पृ0 48

पी0वी0 काणे धर्मशास्त्र का इतिहास पृ0 428 व्यासस्मृति 4/40-47

? ॥४॥6 ला४09 0॥048/779575879 - | 28 7>4 [2 0426 39

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बीए विनोद 5 ब6 अबं57-38 2.७.]. ]936-37 826 |24. मनुस्मृति -- 499 व्यास स्मृति 4-42-42 अलबरूनी का भारत 4 पृ० 404 [-2-]_]] पृ० 53-54 8५ (॥8५/०॥ 097985५ [2782८ ]39-40 उपमितिभव प्रबन्ध कथा - पृ० -36 मनुस्मृति (40/54-56) में आया है कि चाण्डालों को गांव के बाहर रहना चाहिए। उनकी सम्पत्ति कुत्ते गदहे है। तथा शवों के कपड़े ही उनके परिधान है। उन्हें टूटे फूटे बर्तनों में भोजन करना चाहिए ।. उन्हें लगातार घूमते रहना चाहिए। वे रात्रि में नगर या गांव के भीतर नहीं सकते उन्हें बिना सम्बन्धियों वाले शवों को ढ़ोना चाहिए। वे राजाज्ञा से जल्लाद का काम कर सकते है। वे फांसी पाने वाले व्यक्तियों के परिधान, गहने एवं शैया ले सकते हैं फाहियान (२९००४ छेपकाह दााए0०7 लेगे द्वारा अनुदित पृ० 43) ने भी लिखा है कि जब वे नगर या बाजार में प्रवेश करते थे ता लकड़ी के डंडे से ध्वनि उत्पन्न करते चलते थे जिससे अन्यजन उनके स्पर्श से बच सकें। श्रृं0 मं0 पृष्ठ 84 ति0मं० पृ0 463 ति0मं0 पृ0 244 ज्ञान पंचमी - 4, 44, 42 उपमितिवप्रवंचनकथा पृष्ठ - 698 श्रृंगारमंजरी कथा - पृ० 855... तिलकमंजरी - पृ0 -- 47-48 ईः मनुस्मति 3/56 .. हि कार्येषु मंत्री, करणेषुदासी, स्नेहेषु माता क्षमया धरित्री | धर्म्मस्य पत्नी शयने वेश्या षटकर्मपिः स्त्री कलमुहरेतु || चाणक्य राजनीति शास्त्र /52 5... ]] [282९ 22-22 नवंसहसांक चरित 44वां पृष्ठ 76-78 ॥.0.5.8. 0 982० 242. तिलकमंजरी पृष्ठ 244

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70

समराइच्चकहा पृष्ठ 93--404

समुद्रगुप्त ने 'देवपुत्रषाहिषाहानुषाहिशकमुरुण्डै' एव सिहल तथा अन्य द्वीपो के शासको ने कन्‍्याओ को प्राप्त किया था।

5] 2709326 2

5. [ 26 282०6 80

मनुस्मृति, 44, 4

प्रतिपाल भाटिया [॥७ एक्ाक्षा]795 ? 286

द्वयाश्रय महाकाव्य 49 श्लोक 24-25

तिलकमजरी - प्ृष्ठ--52

पुरातन प्रबन्ध सग्रह पृष्ठ 402

] 9 79826 42-45

ओझा-सिरोही राज्य का इतिहास पेज 24

मनुस्मति (2,/45) मे लिखा है कि आचार्य उपाध्याय से और पिता आचार्य से दश गुना सन्मान्य होता है। परन्तु पिता से भी माता हजार गुना सम्माननीया होती है।

७] 9 7426 35]-52

5808५ ५४०![॥ 7? 55

रास माला प्रथम पृ0 2 छा ४० *<<> 7? 54, सलाइई079 077॥6 ?कयक्या ६8 [0/97929-242

प्रतिपाल भाटिया ॥96 एक्चक्षा।क्षा85 7886 78

5] 9 70826 8-9

एडमिनि वि0स04932 पृष्ठ74 अन्वेषण 4, पृष्ठ45 सती प्रथा पर द्रष्टव्य () धोलपुर अभि0०वि0स0 898 2 70]४0 407-39

(2)उस्मा अभि0 विएस0 4237 ?२७5४४४८ ]9]-2 782० 53

7 6 $ 8. 42 पृष्ठ--406

(क) वि0स0 4243 का पुष्कर अभिलेख 50१२0 अजमेर ॥99-20 पृष्ठ-3

[60|

]7] [72 [/3 | 74 75 ]76 [77 [78& [79 80 8] 482

483 84

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66 87 886 89 90 9]

(ख) वि0स0 4248 का उस्मा अभिलेख ()]08 (70॥ #॥वव० साधा जौधपुर राज्य का इतिहास 4-?-30

शर्मा-चौहान सम्राट पृथ्वीराज तृतीय और उनका युग-56

8] 9 7९४2० 2-5

पृथ्वी राज विजय 9, 44, 34

8] ५०5 7-0

54००8प ४० ॥[ ? 64

मनु0 9,485

509५ 0 )॥7795॥8579 ४०] [ ? 702

पार्थपराक्रम व्यायोग - &गागावगाप5- 2

भारत के प्राचीन राजवश पृष्ठ -- 79

5 ] 9 72826 ]2-5

50००8 [॥6 शा थ0०67 949 ? ]99

बद्धरागाभिरपि नीचरतेप्व सत्लाभिकलक्ष्मी मनोवृत्तिभिरिव पुरुषोत्तम गुणहार्याभिर्नपुनरेकान्ततोडर्थानुरागिणीभि ससारेडपि पारताबुद्धि निबन्धन - ति0म0 पृष्ठ 9 श्र0म0 कथानक 4-43

तिलकमजरी पृ0 53

ति0म0 पृष्ठ - 97

नाट्यशास्त्र (अ- 4337) मे इन्हे विशेष शिक्षिता तथा सभ्य समझकर नाटको मे इनके द्वारा सस्कृतभाषा प्रयुक्त किये जाने की अनुमति प्रदान की गई है।

57] 33 082० 240

कामसूत्र पृ० 364

74 2 70826 2-22

8] ]] ९8४० 3० और 65 तथा द0कान्हडदेप्तबन्ध-4 पृष्ठ 459

अलबरुनी का भारत 2 पृष्ठ -- 475 -- 484

रा०श्र0ए0 ?४४2९ 469

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92 ]93 94 95 96 97 96 99 200 20] 202

203 204 205 206 207 208 209 2]0

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तिलकमजरी पृ0 63-64

54 ]6 7826 320-25 तथा ७&] ] ??826 8]

5. ] - 26 2926 99-00

विविध तीर्थकल्प पृष्ठ 44, 45, 57, 79, 88 और 88

तिलकमजरी 7४९० 57, 30, 86, 88

?त0९५ 07 ४४३।९5 १(प्5९पण [॥76 38 52

तिलक मजरी पृ0-434 जनार्दन विनायक ने कूर्पासक का अर्थ चोली माना है (गीर्वाण लघुकोष पृ 465) क्षीर स्वामी ने इस शब्द का दो अर्थ माना है (अ) आप्रदी नर्वत्वुकस्य (घुटने तक लटकता काूर्ता) कार्पर अस्यते दूर्न्यास- स्त्रीणा - कुवलिकारयस्य (स्त्रियों के पहनने की चोली) अमर कोष छठा सर्ग श्लोक 448 ति0म0 पृष्ठ 434

वही पृ० 434 रासमाला [-78286 3

वही पृष्ठ 34, 489

श्रगार मजरी पृष्ठ 74

ति0म0 पृष्ठ 430

युक्ति पृष्ठ 88-88 श्लो 9-25 ति0म0 पृष्ठ-83, श्लोक 32-38

दूयाश्रमहाकाव्य सोलहवा, 54-52

युक्ति पृष्ठ 88-88 श्लो0 49--25 वही पृष्ठ 83 श्लो0 32-38

ति0म0 पृष्ठ 304

?77०8 07 ४४४८४ (ए5८प 7 7,76 47

ति0म0 पृष्ठ 430

वही पृ० 226

वही

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2]5 246 27/ 26 2]9 220 227 222 223 224 223 226 227 228 229 230

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25024 20) 234 220) 236 237 238 239 240 24] 242

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ति0म0 पृष्ठ - 30॥

रितरा708 0 ४४४।९६४ /प5९ए॥ - 7.76 ]]

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ति0म0 पृष्ठ 430

वही पृष्ठ 226

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[994 [॥78 9, $820८79प ४०व ? 8]

?ा०8 0 ४४४९४ /प5९८पक४ 7.76 39

ति0म0 पृष्ठ 430

वही पृष्ठ 246, 239, श्रु0म0 पृष्ठ 75, नवसहसाक चरित 44वाँ, 57 ति0म0 पृष्ठ 75, 489, 243 द्वयाश्रयमहाकाव्य 46वाँ, 54 श्र0म0 पृष्ठ 47, ति0म0 पृष्ठ--243 शा॥66 0 ४४३९5 ॥(ए७९प 4,76 27 ति0म0 - पृ0 498

ति0म0 - पृ0 57

छ&] ७४० ४७४ 0826 295

35330) ७० | <#<€णए] ? ३]3, ५658९, 53

धर्म परीक्षा पृष्ठ 80, 8, 404

2 4 'शक्षुपाग04/ ? 34

4300२] ५४०0 ७४५४४ ५४] 2826९ 329 ४८:४८ 200

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203

7व70 2 स0 ]70 >.[ - 4 - 0826 207 अलबरुनी का भारत - पृष्ठ - 453 रा०0 शृू0 ए0 पृष्ठ - 467 [.| - ०७! - 2६2० 95 ७000 २620705 (णावा।0 ०0 ]०॥॥९॥ िक्षव् ? ]73 मानसोल्लास 3,/43 // 4420, 4547, 456, 4522--23, 4536-37 >टावप ४०। ?8४०6 5|] तिलक मजरी पेज 8, 45 &330)२] ४७०। «४ ५] ?82८ 33-]4, ४८०६० 54 ति0म० पृष्ठ-- 56-57 युक्ति0 पृष्ठ-57, श्लोक 86, ति0म0 पृष्ठ-55 ति0म0 पृष्ठ--53 ति0म0 पृष्ठ--439 वही पृष्ठ--49 वही वही पृष्ठ 63 द्रयाश्रयमहाकाव्य 46वा0, 43 & ४० जार ? 348 धाराशीश पुरोघसा निजनृपक्षोणी विलोक्यालिता,

चौलुक्याक॒लिता तदत्ययकते कृत्वा विलोत्पादिता |

सोमदेवक॒त सुरथोत्सव काव्य पृ० 3

इस विद्या के द्वारा लोग भविष्य मे होने वाली घटनाओ को बताते है। भविष्य वक्ता के कानो मे एक अदृश्य शक्ति प्रश्नकर्ता के सभी प्रश्नो के उत्तर कह देती ह। ति0म0पृ० 53 प्राणास्तुणाग्रजलविन्दुसमा नराणाम्‌

धर्मसता परमहो परलोकयाने। [७ ४० ५॥० 53, 54 [] ७० ऊँ]? 83 ५०। ] ? 48-49

[84|

264

2/] 2/2 2/3 274

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276 277 278 279 280 287 282

क-पष्टिवर्णसहस्राणि स्वर्गे तिष्ठति भूमिद आच्छेता चानुमन्ता तान्येव नरके वसेत | ।8] ५० हे ? 23

ख-भूमि प्रतिगृहणाति यस्य भूमि प्रयच्छति,

उमा तौ पुष्प कर्माणौ, नियत स्वर्ग गामिनौ। ]6 ४० #शा ? 255

ति0म0 पृष्ठ 53

?( [28४/॥९५ + ३32

ति0म0 पृ0--85

0-74-0 6 4॥- 276 ४० ॥7? 26

सिधी जैन ग्रथमाला - ग्रथाक 42 पृष्ठ 43

प्रेक्षासगीतकानि स्युर्गन्धर्वे वासवेश्य च।

कायविवस्वते शाला स्थाना दन्तिना तथा। स0पृ७ 45 / 33

छ] ४० शा! 7826 96

भोज प्रबन्ध - बल्‍लालकूत - जगदीशलाल पृ0 57

(2५००८ (पॉप ? 22-22

नवसहसाक चरित ग्यारहवा सर्ग [& ५ण ॥, श7? 5]

रसातल यातु तवात्र पौरुष कुनीतिरेषा शरणो (शरणागत )

हयदोषवान |

निहन्यतेयद्वलिनापि दुर्बलो हा हा महाकष्टमराजक जात || प्रचि मु पा - पृष्ठ-43 ९८ पाशछछा ? 55

हम्मीर महाकाव्य-- [५ पृ0--48

ति0म0 पृष्ठ 45

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ति0म0 पृष्ठ 449

वही पृष्ठ 492

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वही पृष्ठ 45

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परमार शासकों की धार्मिक नीति

धार्मिक -

सस्कति का आधार धर्म है। सभ्यता एव सस्कृति की अध्ययन की पूर्णाता के लिए सामाजिक आर्थिक एव सास्कृतिक स्थितियो का समग्र विवेचन आवश्यक है धार्मिक अवस्था स्वतत्रता, सौहार्द, सहिष्णुता से किसी राज्य की सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक स्थिति का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। परमार नरेश वर्ण व्यवस्था के पोषक एव धर्मभीरु क्षत्रिय थे। परमार राजवश का राजचिन्ह गरुड और सर्प था। किन्तु इस काल मे किसी एक देवता की पूजा प्रधान थी। हिन्दू धर्म के विभिन्‍न सम्प्रदायो के अस्तित्व एव विकास के उल्लेख मिलते है जिनमे, शक्तिपूजा (शाक्य सम्प्रदाय) शैव सम्प्रदाय (शिव पूजा) सौर सम्प्रदाय (सूर्य पेजा), गणेश, कार्तिकेय, ब्राह्मण, हनुमान, क्षेत्राल आदि अनेक देवी देवताओ की उपासना के प्रमाण अभिलेखो से प्राप्त होते है।

परमार इस अभिलेखो के विश्लेषण एव आलोचनात्मक अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि इस काल मे शैव धर्म का अपेक्षाकृत अधिक प्रचलन था। इस काल के शासको ने व्यक्तिगत रूप से केवल शैवधर्म को प्रश्नय प्रदान किया था। अपितु वे उसके अनुयायी भी थ। अभिलेखिक साक्ष्यो से विभिन्‍न रूपो मे शिव की उपासना और शैव सम्प्रदायों के विकास का सकेत प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त शाक्तधर्म तथा सौर सम्प्रदाय को भी प्रमुखता प्राप्त थी जिनके विकास का परिचय अभिलेखिक साक्ष्यो से स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है। इस काल के धार्मिक जीवन की रूपरेखा यद्यपि अभिलेखो के आधार

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पर स्पष्ट की जा सकती है क्योकि व्यवहारिक जीवन मे जिन धार्मिक सम्प्रदायो और उनसे सबधित उपासना का प्रचलन था उन सभी के विषय मे किसी किसी रूप से अभिलेखो मे वर्णन अवश्य है परन्तु धार्मिक विकास की समग रूप रेखा प्रस्तुत करने के लिए साहित्यिक साक्ष्यो एव विदेशी यात्रियो के विवरणो का आश्रय ग्रहण करना अपरिहार्य है।

शक्ति पूजा (शाकक्‍त मत) -

भारत मे शक्ति (देवी) पूजन के प्रमाण सैधवकाल से ही प्राप्त होते है। गुप्त काल मे शाक्त मत अन्य मतो की भाति प्रचलित हो गया था। पूर्व मध्यकाल मे शक्तिपूजा के प्रमाण अभिलेखो मदिरो तथा मूर्तियों के रूप मे प्राप्त होते है। मालव सवत 547 के श्रमर मात्ता (छोटी सादडी उदयपुर सभाग) अभिलेख का मगलाचरण असुर-सहारिणी शूलधारिणी दुर्गा की आराधना से सम्बन्धित है। कामा की एक गुप्तकालीन मूर्ति मे शिव पार्वती परिणय भाव अत्यन्त विलक्षण रूप मे अभिव्यक्त हुआ है। वर्मलात के विएस0 682 के अभिलेख मे क्षेमकरी दुर्गामाता क्षेमार्या' की वन्दना की गयी है। क्षेमार्या सुवास्थ्य की अधिष्ठात्री देवी मानी जाती थी।*

राजस्थान मे चाहमानो एव परमारो के शासन काल मे भी शाक्रधर्म का महत्व पूर्ववत बना रहा। आबू पर्वत शाक्त धर्म का प्रमुख केन्द्र और अर्बुदेश्वरी का निवास स्थान माना जाता था। परमाल काल मे जैन धर्मावलम्बी भी चण्डिका की अर्चना करने लगे थे। जैनो ने उसे प्रतिरक्षक देवी के रूप मे स्वीकार कर लिया था परन्तु उन्होने देवी के उग्र रूप के स्थान पर ललिता रूप की अर्चना की उन्होने उसे सच्चिका (सचिया) माता कहा।

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अन्य सम्प्रदायो की तरह शक्ति उपासको का भी एक अलग सम्प्रदाय होता है जिसे शाक्त सम्प्रदाय के नाम से अभिहित किया जाता है। इस सम्प्रदाय के उपासक शक्ति को मूल तत्व मानते है। वे शक्ति द्वारा धारण किये गये विभिनन रूपो की विभिन्‍न विधियो से उपासना करते है।

शाक्त सम्प्रदाय अत्यन्त प्रारम्भ से ही किसी किसी रूप मे प्रचलित था। पुराणो मे इस शक्ति की पा से शुम्भ निशुम्भ जैसे विकट दैत्यो के देवताओ द्वारा परास्त किये जाने की कथाये प्राप्त है। कतिपय अन्य कथाओ में यहा तक कहा गया है कि शक्ति ही मूलतत्व है तथा अन्य देवतागण उनके परिकर है। “ओकार” को शिव मे स्थित शक्तितत्व को हटा दिया जाय तो शिव केवल “शव” के अतिरिक्त और कछ भी नही है।

इस समय समाज में ऐसा कोई भी अलग सम्प्रदाय नही था जो केवल शक्ति की ही उपासना करता हो। लोगो मे धार्मिक सहिष्णुता थी। वे शिव विष्णु आदि देवाताओ के साथ-साथ शक्ति की सरस्वती और अम्बिका आदि विभिन्‍न नामो से उपासना करते थे। उदयादित्य के शासन काल मे लारबलिया ने धारा नगरी के एक मदिर मे पार्वती की प्रतिमा स्थापित की थी ।* देवपाल के समय व्यापारी केशव ने शिव मन्दिर के समीप अम्बिका और नकूलिश” देवी की प्रतिमा प्रतिष्ठित करके पूजा की थी। इसी प्रकार आबू शासक पूर्ण पाल ने नारायण गणेश और सरस्वती का पूजन किया था।

दुर्गा अप

शाक्त सम्प्रदाय की यह प्रमुख देवी थी। रौद्र और सौम्य दोनो रूपो मे दुर्गा की अराधना होती थी।” देवी के रौद्र स्वरूप का महिषासुरमर्दिनी नाम से उल्लेख मिलता है। अश्विनी मास शुक्ल सप्तमी तिथि से प्रारम्भ होकर

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दशमी तिथि तक दुर्गोत्सव चलता रहता था। देवी की पूजा और विसर्जन चलता रहता था। देवी की पूजा और विसर्जन के लिए कुछ विशेष नक्षत्र निश्चित होते थे। आद्रा नक्षत्र मे जागरणोत्सव, मूल एव उत्तरा मे पूजन और श्रवण नक्षत्र मे देवी का विसर्जन किया जाता था। नवमी तिथि को दुर्गा के उगृूरूप और दशमी की सौम्य रूप की पूजा की जाती थी। उग्र रूप के पूजन मे पशु बलि भी दी जाती थी, परन्तु सौम्य रूप के पूजन मे यह बलि कर्म नहीं अपनाया जाता

था ।*

था

सरस्वती की भी मन्त्रो द्वारा स्तुति की जाती थी, इन्हे भारती और वाग्देवी के नाम से भी सम्बोधित किया जाता था।*

इस समय लक्ष्मी पूजन मे लोगो की विशेष अभिरुचि थी।” लक्ष्मी की अधिकाश प्रतिमाए विष्णु के साथ ही मिली है।” दुर्गा की तरह लक्ष्मी का भी वार्षिकोत्सव मनाया जाता था। लोगो का विश्वास था कि लक्ष्मी पूजन का लोगो का एक प्रकार का ऋण रहता है जो इस उत्सव से पूर्ण हो जाता है।*

मातृका देवी :-

मातृकाओं की उपासना शक्ति पूजन का प्रमुख अश था। मातृकाए सस्था मे सात होती थी तथा एक ही शिलाखण्ड पर सातो प्रतिमाए अकित होती थी। इनके नाम क्रमश ब्रह्माणी, महेश्वरी, कौमारी, इन्द्राणी, वैष्णवी, बाराही और चामुण्डा थे।? अलबरूनी के अनुसार चामुडा देवी के पुजारी बकरो भैसो आदि की बलिया चढाते थे।” नवमी और त्रयोदशी तिथि को इनकी इष्टादेवी विशेष रूप से पूजा होती थी ।*

नकूलिश” की पूजा का उल्लेख आगम ग्रन्थों मे मिलता है। अलकारो से अलकृत तप्त सुवर्ण के समान आभावाली गरुड पर अधिष्ठित इनके

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स्वरूप की कल्पना की गयी है। इन्हे वाणी की अधिष्ठात्री देवी भी कहा गया है। इन्हे वाणी की अधिष्ठात्री देवी भी कहा गया है।” सनन्‍्तानोत्पत्ति के छठे दिन इसी शक्ति तत्व का षष्ठीदेवी के नाम से पूजन किया जाता था।/

शैव सम्प्रदाय --

शिव को सार्वकालिक उपास्यदेव मानने वालो का समूह शैव सम्प्रदाय कहलाता है। अधिकाश परमार राजा शिव के परम भक्त थे। सीयक हर्ष, वाक्‍्पति राज मुज, भोज, जयसिह, अर्जुनदेव वर्मन, देवपाल और जयवर्मन द्वितीय आदि ने दान द्वारा शिव पूजा को प्रोत्साहन दिया। उदयदित्य ने उदयपुर में एक शिवमदिर का निर्माण कराया। सर्व प्रथम विमकैडफिसस के सिक्‍को पर शिव प्रतिमा अकित मिलती है।” कृषाण शासको ने इनका अनुसरण किया। इसके बाद गुप्तो ने भी शैव उपासना का प्रसार किया। इसके बाद गुप्तो ने भी शैव उपासना का प्रसार किया। इस समय शिव प्रतिमाओ का निर्माण बडे पैमाने पर होता था।”

परमार वशी शासको क॑ समय यह सम्प्रदाय अपने विकसित अवस्था मे था तथा इस सम्प्रदाय को अनेक परमार शासको का पूर्ण सरक्षण मिला | प्रमुख परमार राजाओ के अभिलेख शिव स्तुति से आरम्भ होते है। परमार भोज के अभिलेख ऊँ नम व्योमकेशम या ऊँ नम समरारति से आरम्भ होते है। जिनका अर्थ शिव है।” परमार जगददेव का झालसपाटन एव डोगरगॉाँव अभिलेख ऊँ नम शिवाय से प्रारम्भ होता है।”

परमार वशीय शासको के समय यह सम्प्रदाय अपनी विकसित अवस्था में था तथा उसे तत्कालीन अनेक राजाओ का पूर्ण प्रश्नय प्राप्त था। सीयक, वाक्पतिराजमुज, सिन्धुराज, भोज, उदयादित्य और नरवर्मा आदि सभी मुख्य परमार शासक शिवभक्‍त थे |

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परमारो ने परम भट॒टारक महाराजधिराज परमेश्वर” की उपाधिया धारण की थी। उदयपुर प्रशस्ति मे राजा भोज को भर्ग्गभक्त के नाम से सम्बोधित किया गया है।” उपर्युक्त प्रमाणो से भी प्रमाणित होता है कि इस वश के शासक शिव भक्त थे। यद्यपि विभिन्‍न प्रकार के मन्त्रोत््चारणो से शकर की स्तुतियाँ की जाती थी, परन्तु “ऊँ नम शिवाय” इस समय का सर्व प्रधान एव प्रचलित मन्त्र था। शिव के साथ सलग्न रहने वाले अन्य देवताओं में गगा, सर्प आदि की भी स्तुतियाँ की जाती थी। तत्कालीन अभिलेखो" मे शकर की अनेक प्रकार की स्तुतियाँ मिलती है।

पूजा उपासना आदि की दृष्टि से शकर के अनेक नाम थे जैसे- व्योमकेश, स्मराराति, भवानीपति, शम्भू मारकण्डेश्वर, महाकाल, नीलकण्ठेश्वर” शूलपाणि, पीनाकपाणि,” कोटेश्वर, कनखलनाथ, अतुलनाथ, वलक्लेश्वर, सिद्धनाथ, मनेश्वर, वैद्यनाथ, उथलेश्वर और गोहेडेश्वर आदि। कही-कही अचलेश्वर के नाम से भी शिव का उल्लेख मिलता है।

अधिकाशत लिग रूपो मे ही शकर की पूजा होती थी। कभी-कभी यह लिग मुख के आकार का होता था। जिसका ऊपरी हिस्सा ब्रह्माण्ड का प्रतीक माना जाता था। इसके पूर्वी हिस्से मे सूर्य, उत्तर मे ब्रह्मा, पश्चिम मे विष्णु और दक्षिण भाग मे रुद्र की आकृतियाँ बनी होती थी। यह लिग शैव धर्म के दार्शनिक तत्व की पुष्टि करता है। जिसमे रुद्र सूर्य, विष्णु और ब्रह्मा एक ही सार्वभौम ज्योर्तितत्व के भिन्न-भिन्न प्रकाश स्वरूप माने गये है। वह सार्वभौम ज्योति सदाशिव तत्व है। भोज ने अपने तत्वप्रकाश नामक ग्रन्थ मे सदाशिवतत्व के विषय मे विस्तृत उल्लेख किया है। चारमुख वाले शिव लिगो की भी उपासना होती थी। जिन्हे चतुर्मुख मार्कण्डेश्वर के नाम से भी सम्बोधित किया जाता था। महाकूमार हरिश्चन्द्र ने इसी लिग की पूजा की थी।*

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परमारों के समय अनेक शिव मन्दिरों का निर्माण हुआ। इन मदिरों के नाम प्राय उनमे प्रतिष्ठित महादेव की मूर्तियों के नामों पर नीलकण्ठेश्वर, अचलेश्वर, आदि रखे जाते थे। इस वश के सबसे प्रतापी एव धार्मिक शासक भोज ने अपने शासन काल मे विभिन्‍न शिव मदिरो का निर्माण कराया था।” चित्तौड किले के मन्दिर मे इसने अपने नाम पर भोजस्वमिदेव नामक शिवलिग की प्रतिष्ठा” की थी। इसी तरह एक अन्य मन्दिर मे त्रिभुवन नारायण देव नामक एक दूसरे शिवलिग की स्थापना की थी।” इस मदिर के भग्न हो जाने पर इसका पुन जीर्णद्वार वि०0 स0 4458 मे महाराणा मौकल ने कराया था। आजकल वही मन्दिर अदबदजी (अद्भुत जी) का या मौकल जी का मदिर कहलाता है।” उदयादित्य ने उदयपुर मे नीलकण्ठेश्वर महादेव के मदिर का निर्माण कराया था। इसी प्रकार निमार और ऊणा नामक स्थानो पर सिद्धेश्वर, महाकालेश्वर वल्लभेश्वर, नीलकण्ठेश्वर और गुप्तेश्वर नामक उस समय के शिव मदिरो का उल्लेख मिलता है।”

परमार शासको के अतिरिक्त उनके सामनन्‍्तो ने भी अनेक मदिरो का निर्माण कराया था। जयसिह के सामन्त वागड के परमार शासक माडलिक ने पाशुलाखेटक गाव मे मडलेश्वर नामक शिव मदिर का निर्माण कराया। उसका खर्च चलाने के लिए जयसिह ने उस मार्ग से गुजरने वाले प्रत्येक व्यापारी के लिए यह निश्चित कर दिया था कि वह एक निश्चित बोझ के बदले मे एक विशोयक (सिक्का) मदिर को दे। माडलिक ने भी कुछ भूमि, धान के खेत और एक बगीचा इस मदिर के लिए दान दिया था।”

परमार अधिपतियो एव सामन्‍्तो के अतिरिक्त शिवभकक्‍त प्रजा भी मदिर निर्माण मे सहयोग देती थी। मालव शासक उदयादित्य के कार्यकाल मे जन्‍न नामक एक तेली पटेल ने एक मदिर बनवाकर उसमे सैन्धव देव नामक

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शिव प्रतिमा की स्थापना की। इस मदिर के वार्षिकोत्सव पर वह चार पैली तेल कुछ मिष्ठान नैवेद्य के निमित्त देता था।” इसी प्रकार देवपाल के शासन काल मे हर्षपुर मे केशव नामक एक व्यापारी ने एक शिव मदिर का निर्माण कराया। साथ ही उसने उसके समीप एक तालाब और अन्य देवताओ, हनुमान, गणेश, कृष्ण और अम्बिका देवी की प्रतिमा को प्रतिष्ठित किया ।* मीनमाल के परमार शासक कुूष्णराज के शासनकाल मे जैनक नामक एक ब्राह्मण ने शिव मदिर पर अपनी व्यक्तिगत सम्पति से एक स्वर्णकलश लगवाया था।” इसी तरह शैव तापस केदाररासी ने कोटेश्वर नामक शिव मदिर का जीर्द्वार करवाया था।” तत्कालीन शासको एव प्रजा की शैव सम्प्रदाय सम्बन्धी कृतियो को देखने से ऐसा मालूम होता है कि वे केवल मदिरो का निर्माण तथा जीर्णाद्वार ही नही करवाते थे, बल्कि भविष्य मे उनका खर्च चलाने के लिए उनकी पूर्ण व्यवस्थाये भी करते थे |

शैव सन्‍्यासियों के रहने के लिए मठो की भी व्यवस्थाये थी। आबू शासक धारा वर्ष के राज्यकाल मे शैव सन्यासी केदाररासी के सरक्षण मे चलने वाले नूतन नामक उज्जैन स्थित एक विशाल मठ का उल्लेख मिलता है। चडिकाश्रम नामक भी एक दूसरा विशाल मठ था। इन मठो मे शैव सन्यासिनी स्त्रियों के भी रहने की व्यवस्था रहती थी। शैव सन्यासिनी योगेश्वरी तो नूतन मठ की कुछ समय तक प्रधान सचालिका रही।*

शैव सम्प्रदाय की शाखायें-- शैवागम के अनुसार शैव सम्प्रदाय चार शाखाओ मे विभकत है। शैव अथवा वीर शैव, पाशुपत, कापालिक और कालमुख |

परमारवशीय नरेशों के राज्यकाल मे केवल पाशुपत और कापालिक नामक दो शाखाओ के ही उल्लेख मिलते है।

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पाशुपत - पाशुपत (सम्प्रदाय) शाखा वाले शैव लोग अपने ललाट पर भस्म लगाते एव हाथो मे रुद्राक्ष की माला रखते थे।* इस शाखा वाले लोग दिन मे तीन बार स्नान करते एव अपने सम्पूर्ण शरीर मे भस्म लगाते थे। ये लोग सदैव अह-अह शब्द करते और शकर की स्तुति से सम्बन्धित गीत गाया करते थे। शकर की ही तरह ताण्डव नृत्य तथा कुछ पागलो सा व्यवहार भी करते थे। ये सभी उनके दैनिक कार्य समझे जाते थे। परन्तु इन विचित्र प्रकार के कार्यों का प्रदर्शन सर्व साधारण लोगो के सामने नही किया जाता था। ये लोग भिक्षाटन द्वारा प्राप्त वस्तुओं से अपनी क्षुधाग्नि तृप्त करते थे।*

इस शाखा के सस्थापक लक॒लीश नामक एक व्यक्ति था। जिसे शिव का अवतार माना जाता था। यह सदैव अपने हाथ मे लकूटि (घडी) लिये रहता था। सम्भवत इसीलिए इसे लकुलिश कहा जाता था। कुछ लोगो के अनुसार पाशुपत और लकुशि ये दोनो भिन्न-भिन्न नाम थे।* डॉ0 भण्डारकर* के अनुसार पाशुपत सम्प्रदाय के सस्थापक लकूलिश थे। अत इस सम्प्रदाय को लकुलिश सम्प्रदाय कहा जाता था।

कालान्तर मे लकुलिश के स्थान पर पाशुपत (शिव) के नाम पर इसे पाशुपत सम्प्रदाय कहा गया। इन उपर्युक्त विचारो विमर्शों से स्पष्ट होता है कि लक्‌लिश पाशुपत एक ही शाखा का नाम था। धारा वर्ष के लिए शिलालेख से चापलगोत्रीय किसी पाशुपत धर्म के अनुयायी का ज्ञान होता है।” धारा वर्ष आबू का शासक था वो पाशुपत शाखा वाले शैवो का मुख्य केन्द्र माना जाता था। अशोक कुमार मजूमदार के अनुसार पाशुपत शाखा वाले लोग चापलगोत्रीय होते थे।* चापलगोत्रीय शैव लोग अपने नाम के अन्त मे रासी शब्द जोडते थे। जैसे-वाकलरासी, योगेश्वररासी, मौनिरासी और केदाररासी आदि।” आबू के अतिरिक्त मीनमाल की पाशुपतो का केन्द्र था। वहॉ के शासक कुूष्णराज ने पाशुपताचार्य नावल को भूमि दान दी थी।

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कापालिक -

यह शैव सम्प्रदाय की दूसरी शाखा थी, जिसे पाशुपतो की तुलना मे द्वितीय स्थान प्राप्त था। इस शाखा के अनुयायी भी अपने शरीर मे भस्म लगाते थे। ये लोग मृत व्यक्तियो के कपालो को खप्परो के रूप मे लिए रहते थे एव उसमे भोजन भी करते थे। इसी से इन्हे कापालिक कहा जाता था। ये लोग नग्न रहते हुए शिवलिग सदैव अपने साथ रखते थे। कापालिको की गतिविधियो को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि उन पर तात्रिको का प्रभाव था। ये लोग अपने नाम के साथ “महाव्रतधर” शब्द लगाते थे। उनका एक प्रकार का नाम सस्कार होता था जिसमे ये महाव्रतधर की उपाधि प्राप्त करते थे। भोज ने इस शाखा के दिनकर मुनि नामक महाव्रतधर को भूमिदान दी थी ।*

वैष्ण सम्प्रदाय '-

शिव की उपासना के साथ-साथ विष्णु की भी उपासना होती थी। विष्णु मूलत वैदिक देवता है, परन्तु पौराणिक काल मे मुख्य रूप से नारायण, विष्णु और वासुदेव नामो से लोग उनकी उपासना करते थे। इस प्रकार के उपासक वैष्णव के नाम से विख्यात हुए और इस उपासना में विहित विधियो के अनुयायी परम्परा को वैष्णव सम्प्रदाय के नाम से अभिहित किया गया। हे

यह परम्परा अति प्राचीन काल से ही अनुकृत है। महाभारत के नारायणी पर्व मे अवतारो की कल्पना की गई है।* वायु पुराण के दो अध्यायो मे भी इसका वर्णन किया गया है।” प्रथम अध्याय मे बारह अवतारो की और द्वितीय मे दस अवतार (शूकर, सिह, वामन, राम, रामदशरथी, वासुदेय, कृष्ण, दत्तात्रेय, अनाम, वेदव्यास और कल्कि) का उल्लेख मिलता है

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परमार वशीय राजाओ के कार्यकाल मे इस सम्प्रदाय की सर्वतोमुखी उन्नति हुई। महाभारत एवं पुराणों मे वर्णित आधार पर इस समय विष्णु के विभिन्‍न अवतारो को लोग मानते थे, जिनमे विशेषत नृसिहावतार,” एव बारहावतार” की प्रधानता थी। आबू शासक प्रताप सिह को सम्मान मे वाराह की उपाधि से विभूषित किया गया था। नागपुर प्रशस्ति” मे विष्णु के मत्स्यावतार का उल्लेख मिलता है। इससे स्पष्ट होता है कि इस अवतार की भी उपासना होती थी। मत्स्य तथा कूर्म आदि अन्य जीवो के रूप मे अवतार लेकर विष्णु के विश्व सम्भालने की कल्पना की गयी है। साथ ही साथ यह भी स्पष्ट है कि ईश्वर इस विश्व की रचना अपने से भिन्‍न रूप मे नही करता, अर्थात यह ससार कोई भिन्‍न तत्व नही, बल्कि ईश्वरमय ही है। विष्णु के वाहन गरुड का चिहन तत्कालीन वैष्णव सम्प्रदाय की ओर भी अधिक स्पष्ट करता है। सीयक द्वितीय वाक्पतिराजभुज और भोज के ताम्रपत्रों पर यह चिहून अकित पाया गया है।* भोज के एक शिलालेख” मे जो गरुडध्वज का उल्लेख मिलता है वह ध्वज सम्भवत विष्णु मदिर के समीप ही लगा था।

लोग अनेक नामो से विष्णु की उपासना करते थे जो नारायण" कृष्ण (मुररिपु)”, शाहिर्ण्गण,” हरि,” वासुदेव, . वामन और पुरुषोत्तम आदि। शिव के समान विष्णु की भी “ओम नम पुरुषार्थचूडामणै” और “ऊँ नम श्री नारायणाय”” के मत्रो से स्तुति की जाती थी।

मूर्ति रचना शास्त्र मे विष्णु के मत्स्यावतार की आकृति के विभिन्‍न विचार उपलब्ध होते है। कुछ लोगो के अनुसार शरीर का निचला भाग मछली का तथा ऊपरी हिस्सा मनुष्य के आकृति का होता था।” शिल्पशास्त्र मे इस अवतार को प्रदर्शित करने के लिए मछली की ही आकृति मिलती है। इसी प्रकार विष्णु के कच्छपावतार” को भी लोग मानते थे। परन्तु इस समय इनकी

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चतुर्भुजी प्रतिमा ही अधिक प्रचलित थी। इनके चार हाथो मे शख, चक्र, गदा और पद्म रहते थे। भोज ने चतुर्भुज विष्णु का उल्लेख किया है।”

इस समय अनेक विष्णु मदिरो के निर्माण और जीर्णद्वार कराये गये। पाटनारायण शिलालेख” से स्पष्ट होता है कि आबू के परमार शासक प्रताप सिह के ब्राह्मण मत्री वेल्हण ने विष्णु के एक मन्दिर का जीर्णोद्दारा कराया था। मान्धाता नामक स्थान के समीप दैत्यसूदन (विष्णु) के मदिर, निभार मे एक अपूर्ण विष्णु मन्दिर,” तथा चन्द्रावती मे बारह अवतारी विष्णु के मन्दिर का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार मुगथला स्थान स्थित मधुसूदन के मन्दिर का भी विवरण मिलता है ।*

विशेष तिथियो को वैष्णवोत्सव मनाये जाते थे। भाद्रमास के कृष्णपक्ष की अष्टमी को कृष्णजन्माष्टमी आषाढ मे शयनोत्सव और कार्तिक मास मे विष्णु का जागरणोत्सव मनाया जाता था।

सौर सम्प्रदाय :--

हिन्दू देवताओं मे शिव और विष्णु के बाद इस समय तृतीय स्थान सूर्य को ही प्राप्त था। वैदिक काल से ही भारत मे सूर्योपासना प्रचलित है। डॉ० भण्डारकर के अनुसार यह प्रथा वैदिक नही बल्कि सीथियनो की देन है।* भविष्यपुराण मे भग जाति द्वारा सूर्य मन्दिर निर्माण का उल्लेख मिलता है।” इसी भगजाति के लोगो का बाद मे शाकद्दीपीय ब्राह्ममण के नाम से सम्बोधित किया जाने लगा। बाराहमिहिर के अनुसार सूर्य प्रतिमा और मन्दिरो का निर्माण सर्व प्रथम भग अथवा शाकद्दीपीय ब्राह्मणो ने ही किया। अलबरूनी ने चर्चा की

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परमार कालीन समाज मे भी सूर्य पूजा प्रचलित थी। इसके उपासको का एक अलग सम्प्रदाय था। जिसे सौर सम्प्रदाय कहा जाता था।* सूर्य की स्तुतियाँ भिन्‍न-भिन्‍्न प्रकार के मन्त्रों से की जाती थी। जिनमे “ऊँ नम सूर्याय” मन्त्र” सर्वाधिक मान्य था। मीनमाल के परमार शासक कृष्णराज का एक शिलालेख सूर्य स्तुति से ही आरम्भ होता है। इस समय सूर्य पूजा की विधि भी कुछ भिन्‍न प्रकार की ही थी। भोज के निर्देश से स्पष्ट होता है कि सूर्य उपासक लाल वस्त्र पहनकर लाल ही चन्दन तथा नीम के पुष्प एव पत्तों से सूर्य की पूजा करते थे। रविवार के दिन विशेष प्रकार से सूर्य की पूजा की जाती थी। इस समय के मुसलमान यात्रियों ने भी सूर्य पूजा का उल्लेख किया है। अलबरूनी के अनुसार मुल्तान मे सूर्य की भव्य प्रतिमा थी, जहाँ दर्शनार्थ हजारो व्यक्ति हर वर्ष आते एव उपहार आदि समर्पित करते थे ।*

लोग नित्य सस्‍्नानादि के बाद सूर्य को अर्ध्य भी देते थे। सिन्धुराज ने अपनी अजुली मे जल और पुष्प लेकर अर्ध्य दिया था। कुछ विशेष तिथियो पर सूर्य व्रत किया जाता था। जिनमे शुक्ल और कृष्ण पक्ष की सप्तमी तिथिया विशेष मान्य थी किन्तु सम्पूर्ण दिन सप्तमी होने पर ही सूर्य का व्रत किया जाता था। यदि सप्तमी अष्टमी से युक्त हो अर्थात एक ही दिन दोनो तिथियो का योग हो तो उस दिन उपवास नही किया जाता था। ऐसा योग होने पर षष्ठी के दिन व्रत एव पूजन करके अष्टमी तिथि को धारण किया जाता था।[7

सूर्य भक्त राजाओं ने अनेक मन्दिरो का निर्माण कराया था। आबू के परमार शासक पूर्णपाल की विधवा बहिन लाहिणी देवी ने वाटपुर मे नदी के किनारे एक सूर्य मन्दिर बनवाया था।” इसी प्रकार मालव शासक जगदेव के मत्री लोलार्क की पत्नी पद्मावती ने निम्बादित्य नामक एक सूर्य मन्दिर का निर्माण कराया था।” शासको के अतिरिक्त प्रजा भी इस कार्य मे सहयोग देती

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थी। मीनमाल के शासक कृष्णराज के कार्यकाल मे व्यापारी धन्धुक ने जगतस्वामी नामक एक प्रसिद्ध सूर्य मन्दिर का निर्माण करवाया था तथा जेजक नामक एक ब्राह्मण ने अपने व्यक्तिगत धन से इस पर स्वर्ण कलश लगवाया

था 99

था। अन्य उपास्य देवगण -

गणेश - छोटे देवताओ मे गणेश की उपासना मुख्य थी। जो अभिलेखो से स्पष्ट है।” परन्तु यह सूर्य, विष्पु और शिव की तरह वैदिक नही बल्कि पौराणिक देव है। उदयपुर प्रशस्ति” मे शिव पार्वती के साथ गणेश की वन्दना की गयी है। इन उपर्युक्त प्रभावों से मालुम होता है कि इस समय पचदेवताओ (विष्णु, शिव, सूर्य, शक्ति और गणेश) की प्रधानता थी। आजकल की तरह उस समय भी कोई शुभ कार्य आरम्भ करने से पूर्व गणेश की स्तुति की जाती थी। इसके लिए भी गणेशाय नम का मत्र अधिक प्रचलित था। इसके अतिरिक्त हेरम्ब आदि नामो से भी इनकी उपासना होती थी।

कार्तिकेय - फाल्गुन मास की पूर्णिमा को सूर्य के कुम्भ राशि पर स्थित होने पर कार्तिकेय विशेष पूजा की जाती थी। कार्तिकेय प्रतिमा को रथ आवेष्ठित करके जुलूस भी निकाला जाता था।

वरुण *- जल के देवता माने जाते है। आबू के शासक पूर्णपाल के एक शिलालेख” मे इनका उल्लेख मिलता है।

क्षेत्राराल -- इनकी भी पूजा होती थी।” प्राचीन ग्रन्थों मे क्षेत्रपाल की सख्या 49 मानी गयी है। दही, ऊर्द और भात इनका नैवेद्य माना जाता था।” ये भूत, प्रेत, पिशाचिनी, डाकिनी एव बैताल आदि से सदैव घिरे रहते थे।” विवेच्ययुग मे क्षेत्रपाल नामक देवता खेत का सरक्षक समझा जाता था।

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देवपाल के राज्यपाल मे व्यापारी केशव ने शम्भू मन्दिर के समीप ही इनकी प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी |

हनुमान -- इस समय हनुमान जी की पूजा के भी प्रमाण मिलते है | 409

अगस्तय - अगस्त्य की भी पूजा की जाती थी। सायकाल जलपूर्ण कलश पर कासपुष्प के रूप मे अगस्त्यदेव की प्रतिमा स्थापित कर पुष्प, धूप, चावल दही आदि से पूजा की जाती थी। पूजा के दिन रात्रि मे जागरण भी किया जाता था। दूसरे दिन सुबह प्रतिमा की किसी जलाशय के समीप रखते थे तथा दिन भर उपपास कर रात्रि मे सुगन्धित पुष्प, मुनक्‍्का, वेर, खजूर, नारियल आदि फलो, पचरत्नो सात प्रकार के अन्नो, दही और चन्दन का अर्ध्यपात्र मे रख कर अगस्त्यदेव का अर्घ दिया जाता था। अर्ध्यक्रिया के बाद लोग उस वर्ष के लिए एक-एक प्रकार के अन्न फल और रसो के परित्याग की प्रतिज्ञा करते थे। अन्त मे खीर, लड्डू और घी से बने हुए भोज्य पदार्थ ब्राह्मण को खिलाकर कुछ द्रव्य वस्त्र और प्रतिमायुक्त कलश दक्षिणारूप मे दान दिये जाते थे।[* बलिवैश्वदेव --

उपर्युक्त देवताओों की पूजा और उपासना के अतिरिक्त बलिवैश्वदेव की क्रियाए भी की जाती थी।” भोजन तैयार हो जाने के बाद सर्व प्रथम पाक का कुछ हिस्सा अलग कर किसी पवित्र स्थान पर बैठकर तीन बार आचमन किया जाता था। तत्पश्चात्‌ु सकलप किया जाता था। कि “पचगूनाजनित समस्त दोष परिहार के लिए बलिवैश्वदेव करता हूँ।” पचगूना का तात्पर्य पाच प्रकार की अहिसाओ से चूल्हा (अग्नि जलाने से), चक्की (पीसने से) झाड़ू (झाडने से), ओखली (कूटने) और जल के स्थान (जलपात्र) के नीचे दबने से था। इन सब का सम्बन्ध भोज्य पदार्थों की तैयारी से होता है। उनके

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दोष निवारार्थ ही यह बलि विधि की जाती थी। सकलल्‍प के बाद अग्नि मे पाच आहुतिया देकर गाय, कौआ और कुत्ते को बलि दी जाती थी। यह क्रिया अधिकाशत ब्राह्मण वर्ग मे ही प्रचलित थी

इसके अतिरिक्त विश्वकर्मा, मर्जन्य, जयन्त, इन्द्र, यम, आदि की भी भिन्‍न-भिनन प्रकार के पुष्पफलो से अर्चनाये होती थी। सुगन्धित पुष्प चन्दन से विश्वकर्मा, घी, दूध, दही, से कार्तिकेय, चावल, उरद, गेहूँ आदि धान्यो से पर्जन्य, आग्र, द्राक्षा, खजूर, जैसे फलो से जयन्त, मालती और मल्लिका के पुष्प से इन्द्र, लाल चन्दन और पुष्पो से सूर्य, जम्बीर, नीबू और नारगी के पीले पुष्पो से सत्य नारायण देव, शहद और खीर से भगवान पूजन और मछली, मदिरा एव भागयुक्त भोज्य पदार्थ से यम की पूजाये की जाती थी। *

राम और परशुराम का भी उल्लेख मिलता है। राम का सकेत भूमिदान के प्रसग मे दान दी हुई भूमि की रक्षा करने के सम्बन्ध मे मिलता है 444

गाया 45 हम

गाय अत्यन्त प्राचीन काल से ही पूजनीय मानी जाती थी। भूमिदान की विधिपूर्ण करने के लिए देवपूजन के साथ-साथ गाय की प्रदक्षिणा की जाती थी। आबू के परमार शासक यशोघवल के एक लेख ' की शिला पर दुग्धपान करते हुए बछडे के साथ गाय की प्रतिमा अकित पायी गयी है। सन्‍्तानोत्पत्ति की कामना से लोग बछडा सहित गाय ब्राह्मणो को दान भी देते थे।

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जैन धर्म -

इस धर्म के जन्मदाता ऋषभदेव माने जाते है। यद्यपि उत्तरभारत मे यह धर्म पतनोन्मुख हो चुका था, परन्तु परमार क्षेत्रों में इसे राजाओं और बहुत बडी सख्या मे जनता का प्रश्नय प्राप्त था। विष्णु और शिव की तरह जिन भगवान वीतराम की भी “ओ०“ द्वारा स्तुति की जाती थी।”” आदिनाथ, नेमिनाथ, ऋषभनाथ, शान्तिनाथ और जरनाथ आदि भिन्न-भिन्न तीर्थकरो के नामो के माध्यम से जिन भगवान की प्रार्थनाये और उपासनाये की जाती थी।”? अनेक परमार शासको ने जैनाचार्यों को अपने यहा आश्रय दिया तथा जैन मदिरो का निर्माण करवाया था। 933 ई० मे देवसेन ने धारा स्थित पार्श्वनाथ के मदिर मे रहकर अपनी पुस्तक दर्शनसार की रचना की थी।” जैनाचार्य अमितगति, महासेन और धनेश्वर को वाक्पतिराजमुज का प्रश्नय प्राप्त था।” सिन्धुराज के महमात्य पर्पट का गुरु महासेन जैन ही था।£

मुनिरत्नसूरि विरचित आम्मारस्वामी चरित के अनुसार मानतुग और देवभ्रद सूरि भोज के मन रूपी मानसरोवर के दो राजहस थे।” जैनाचार्य प्रभावन्द्र भोज की श्रद्धा का अत्यन्त पात्र था जिसने धारा में उसकी चरण पूजा की थी |“ जैन कवि धनपाल के सम्पर्क मे आने पर इस धर्म के प्रति भोज की आस्था दृढ हो गयी थी।” भोज के ही आदेश पर धनपाल ने अपनी तिलक मजरी नामक पुस्तक की रचना की गयी थी। पुन उसने दिगम्बर पुलचन्द्र जैन को अपना सेनापति बनाया था।* एक बार धनपाल से जैन धर्म के बारे मे विचार विमर्श करने के बाद भोज इतना अधिक प्रभावित हुआ कि उसने उसे शैव और वैष्णव से भी श्रेष्ठ सिद्ध किया। जैन धर्म की महत्ता बताते हुए उसने एक स्थल पर कहा है कि जिस वस्तु को विष्णु अपनी दो, शिव तीन, ब्रह्मा आठ, स्कन्द बारह, लकेश्वर बीस और इन्द्र हजारो नेत्रों से नही देख सकते,

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उसको जैन विद्वान केवल अपनी एक ज्ञानचक्षु के द्वारा ही देख लेता है।” कच्छपद्यातवशी विक्रमसिह के दूवकुण्ड अभिलेख से ज्ञात होता है कि भोज की ही सभा मे जैनाचार्य शान्तिषेण ने अम्बरसेन आदि जैन विद्वानोको शाम्त्रार्थ मे परास्त किया था।” इस धर्म के बारे मे धनपाल का भोज से विचार विमर्श प्राय हुआ करता था।” अभयदेव को भी भोज का राज्याश्रय प्राप्त हुआ था।” भोज के उत्तराधिकारी जयसिह ने प्रभाचन्द्र को आश्रय दिया था।*'

भोज और जयसिह के बाद जैन धर्म के सरक्षको मे नरवर्मन का प्रमुख स्थान है। अपने पूर्वजों की ही तरह अन्य सम्प्रदायो के साथ-साथ उसने इस धर्म को भी प्रश्नय दिया। उसी के समय जैन विद्वान समुद्रघोष ने मालवा मे तकशास्त्र का अध्ययन किया, जिसकी विद्या से आकर्षित होकर नरवर्मन उसका परमभकत बन गया।” समुद्रघोष इतना प्रसिद्ध विद्वान था कि विद्बत सभा के उसके भाषणों के अवसर पर नर वर्मा के अतिरिक्त चालुक्य शासक सिद्दराज भी उपस्थित रहता था। सूर प्रजा को भी वहाँ सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त था।? जयन्त काव्य के अनुसार नरवर्मन ने जैनाचार्य जिन वल्‍लम के चरणो पर अपना मस्तक झुकाया था।” इस धर्म की उन्‍नति के लिए उसने अथक प्रयास किया था। जिन वलल्‍्लभ की विद्वता से प्रसन्‍न होकर नरवर्मन ने उपहार स्वरूप उसे तीन लाख पारुत्थद्रम प्रदान किया था।” रत्नर्भूरि ने भी शव आचार्य विद्या शिव वादी के साथ शास्त्रार्थ कर यश कीर्ति प्राप्त की थी”

कम

नरवर्मा के बाद कुछ समय तक यहाँ चालुक्य शासक कुमार पाल के संरक्षण मे ही जैन धर्म की उन्‍नति हुई। क्योकि जयवर्मा के निर्बल होने के कारण उसके राज्य पर कमारपाल ने अपना आधिपत्य जमा लिया था। दूसरी ओर आबू के शासक विक्रम सिह को भी भारकर उसकी गददी पर अपने अधीनस्थ उसके भतीजे यशोधवल को सिहासनारूढ किया। इस प्रकार करीब

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सम्पूर्ण परमार राज्य पर कुमार पाल की विजय पताका फहराने लगी। कुमार पाल हेमचन्द्र का अत्यन्त प्रिय पात्र था और उसी के प्रभाववश उसने जैन धर्म को सभी प्रकार का प्रोत्साहन दिया था।*'

विन्ध्यवर्मा के समय इस धर्म को पुन परमारो की छत्रछाया और आश्रय प्राप्त हुआ। जैन सिद्धान्त और व्याकरण का गम्भीर अध्ययन करने वाले धारा निवासी धरसेन के शिष्य महावीर को विन्ध्यवर्मन का प्रश्नय प्राप्त था।” इस समय पडित आशाधर भी धारा मे आकर जैन विद्वान महावीर शिष्य बना था।* विन्ध्य वर्मा के सरक्षण मे इसने कई ग्रन्थों का प्रणयन भी किया था।“ इनके अतिरिक्त जिनपतिमूरि और सुमतिर्गाण को भी उस राजा को प्रश्नय प्राप्त

था 44॥

था |

इसके बाद सुभट वर्मा सिहासनारूढ हुआ, परन्तु वह जैन धर्म का कटटर विरोधी था तथा उसे आमूल समाप्त ही कर देना चाहता था। चालुक्य राज्य पर आक्रमण कर उसने गुजरात तथा दमोई मे स्थित असख्य जैन मन्दिरो को विध्वस किया और उनमे स्थित 409 स्वर्णकलशो को लूटकर अपने साथ मालवा ले आया था।”

अर्जुन वर्मन की छत्रछाया मे यह धर्म उन्‍नति के पथ पर पुन अग्रसर हुआ। इस सदर्भ मे आशाधर ने कहा है कि अर्जुन वर्मन के समय मालवा मे जैन श्रावक अधिक सख्या मे विद्यमान थे। उन्ही श्रावक के साथ जैन सिद्धान्त को और अधिक पुष्ट और परिष्कृत करने के लिए वह (आशाधर) स्वय नलकच्छपुर नामक स्थान मे जाकर रहने लगा था, उसने इस धर्म के सिद्धान्तो को लेकर कई पत्रिकाओ का प्रणयन किया जिनमे जैन सन्यासियो के कर्त्तव्य स्यादवाद का आध्यात्मिक विवेचन और जैन अर्हतो के उपदेशो के उल्लेख है

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देवपाल और जैतुगीदेव ने भी पडित आशाधर को अपने यहाँ आश्रय दिया था। उनके आश्रय मेही उसने विशिष्ठास्मृति नामक ग्रन्थ पूर्ण किया था।* तेरहवी सदी मे देवेन्द्र उज्जैन के जैन मठ का सचालक था।* उसने वीरपाल और भीम सिह को 4245 ई0 मे जैन धर्म मे दीक्षित कर उन्हे क्रमश विद्यानन्द सूरि एव धर्मकीर्ति उपाध्याय की उपाधियो से अलकृत किया था।*

परमारों के समय जैन धर्म की केवल साहित्यिक उन्नति ही नही हुई बल्कि अन्य अनेक ठोस कार्य भी हुए थे। कई जैन मन्दिरो का निर्माण भी हुआ था। भोज के समय मुकतावली नामक गाव के अधिकारी रानकआमा ने श्वेतपाद नामक स्थान पर निर्मित जैन मन्दिर तथा मुनियो का खर्च चलाने के लिए सुव्रतदेव को कुछ भूमि, दो तेल की मिले, चौदह दुकाने और चौदह द्रम (सिक्का) दान दिया था। इस दान से प्राप्त आय से मदिर पूजा, नैवेद्य तथा वहा स्थित श्रावको का जीवन यापन होता था। आबू के शासक धारा वर्ष की पत्नी श्रगार देवी ने पार्श्वनाथ के मदिर के कुछ भूमि दान दी थी।” विजयराज के शासनकाल मे जैनाचार्य भूषण ने उथवणक (अर्धुणा) गाव मे वृषभनाथ के मदिर का निर्माण कराकर उसमे मूर्ति प्रतिष्ठित की थी। प्रहलादनदेव ने पहलादनपुर मे पाल्हविहार नामक एक जैन मदिर का निर्माण करवाया था। इस मदिर मे पार्श्वनाथ की स्वर्ण प्रतिमा भी प्रतिष्ठित की गयी थी ।* इस प्रकार कृष्णराज के राज्य काल मे बर्द्धान नामक व्यक्ति ने एक जैन मदिर मे वीरनाथ के नाम से एक जैन प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी। * -

पूजा उपासना एवं मदिर निर्माण के साथ-साथ इस धर्म से सम्बन्धित अनेक उत्सव भी मनाये जाते थे। आबू शासक सोम सिह के समय

अष्टायिका नामक एक जैनोत्सव का उल्लेख मिलता है। आठ दिन तक मनाये जाने के कारण ही सम्भवत इस उत्सव का नाम अष्टायिका रखा गया

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था। इसमे नेमिनाथ की पूजा आदि के विभिन्‍न क्रम होते थे। चैत्रमास कृष्णपक्ष की तृतीया को चन्द्रावती के श्रावः जिन अहोम की पूजा आदि द्वारा इस उत्सव का आरम्भ करते थे। इसमे चार जाति के श्रावक भाग लेते थे। जिसमे आधी सख्या प्रागवाट और आधी जोसवाल, श्रीमाली एव धर्कूट जाति के श्रावको की होती थी। ये विभिन्‍न गावो के होते थे तथा भिन्‍न-भिन्‍न दिनो पर भिन्‍न (निश्चित) गावो के श्रावको की गोष्ठी नेमिनाथ की पूजा करती थी। यह उत्सव वार्षिक होता था तथा श्रावको की गोष्ठिया अष्टायिका के लिए ही नियुक्त होती थी।

पच कल्याणिका नामक एक दूसरे जैनोत्सव का भी उल्लेख मिलता है।” यह उत्सव नेमिनाथ के गर्भारोहण, जन्म, तप दीक्षा) ग्रहण, ज्ञान और मोक्ष प्राप्ति करने की अलग-अलग पाच तिथियो पर मनाया जाता था।

व्रत एवं उत्सव

देवी देवताओं की पूजा अर्चना के साथ-साथ उनसे भी मनाये जाते थे। इनके मनाने की परम्परा के दो क्रम होते थे। तिथिक्रम और ऋतुक्रम | जहाँ तक तिथिक्रम से मनाये जाने वाले व्रतोत्सवो का सम्बन्ध है इस क्रम मे सामान्यतया कुछ तिथियो पर तो सभी भागो मे वे सम्पन्न किये जाते थे ओर सभी भागो मे वे सम्पन्न किये जाते थे और कुछ मास विशेष मे मनाये जाते थे। प्रत्येक मास की तिथि विशेष पर मनाये जाने वाले व्रतो एव उत्सवो मे षष्ठी, अष्टमी, एकादशी, त्रयोदशी और चतुर्दशी वाले उत्सवो की ओर निर्देश किया जा सकता है|

षष्ठी तिथि मे व्रत रहकर सप्तमी को सूर्य पूजा करके पारण किया जाता था। यदि सप्तमी और अष्टमी दोनो तिथियाँ एक ही दिन पड जाती

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तो भी सप्तमी युक्त अष्टमी मे पारण किया जाता था।* अष्टमी के दिन सामान्यतया लोग व्रत पूर्वक भगवान शिव की पूजा करते थे।*

एकादशी -

विष्णु से सम्बन्धित इस व्रत को ग्रहस्थ और सन्यासी अलग-अलग विधियो से मनाते थे। दो दिन एकादशी योग होने पर प्रथम दिन गृहस्थ और दूसरे दिन सनन्‍्यासी लोग इसका व्रत करते थे। यह व्रत दशमी विद्धा और द्वादशीविद्धा दो प्रकार का होता था दशमी विद्धा का द्वादशी मे और द्वादशीविद्धा एकादशी का त्रयोदशी मे पारण किया जाता था। इस व्रत मे दिन मे केवल एक बार जल ग्रहण किया जाता था। दुबारा जल पीने से व्रत भग

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समझा जाता था। त्रयोदशी एवं चतुर्दशी - इनमे क्रमश प्रदोष एव शिवरात्रि के व्रत किये जाते थे।

इनके अतिरिक्त तिथि क्रम के अतर्गत कुछ ऐसे व्रतौत्सवो का उल्लेख मिलता है जो विशेष मासो की तिथि विशेषो मे मनाये जाते थे।

चैत्रमास -

कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को लोग अपने-अपने घरो में सेहुड के पौधो को श्वेतकमल और रक्‍त ध्वजाओ से सजाकर एक प्रकार का उत्सव मनाते थे। इस उत्सव के पीछे यह विश्वास था कि इस दिन इस प्रकार की प्रक्रिया करने से पाप कर्म दूर हो जायेगे।

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वर्षप्रतिपदा --

नर्व वर्ष का प्रारम्भ इसी तिथि से होता है। इस दिन लोग नवीन वस्त्राभूषण पहनकर ब्रह्मा, शकर, सप्तसागर, शेषनाग और यक्षो की पूजा करते थे। स्कन्दषष्ठी -

को स्कन्द (कार्तिकेय) की पूजा की जाती थी। उसकी प्रतिमा के सामने लोग दीप जलाकर नृत्यगान आदि करते थे। वही खेलने के लिए एक मुर्गा भी छोड दिया जाता था। इस पूजा के सम्बन्ध मे लोगो का ऐसा विश्वास था कि स्कन्द की क॒पा से वे तथा उनकी सनन्‍्ताने सदैव निरोग रहेगी। अलबरूनी ने इस पूजा का उल्लेख करते हुए बताया है कि षष्ठी पूजा के बाद सप्तमी तिथि मे ब्राह्मणो को दूध और दही दान किया जाता था।४

अशोकाष्टमी -

उत्सव मे अशोक के फल से कामदेव की पूजा की जाती थी। यह तीर्थ यदि पुनर्वसु नक्षत्र से युक्त हो तो उस दिन विशेष प्रकार से पूजा का उपक्रम किया जाता था। जिसमे लोग अशोक की आठ कलियो को पीसकर पीते थे। सम्मवत इन्ही कारणो से भोज ने इस पर्व को अशोकाष्टमी के नाम से अभिहित किया है।

उपर्युक्त पूजाओ के अतिरिक्त रात्रि मे स्त्रिया चन्द्रमा की विशेष रूप से पूजा करती थी, चतुर्थि तिथि की रात्रि मे आरम्भ होकर अष्टमी तक के चार दिनों तक यह पूजोत्सव मनाया जाता था। इस विशेष पूजा के कारण ही

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इस तिथि को अष्टमीचन्द्रक कहा जाता था।

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मदनत्रयीदशी -

स्त्रियाँ केसरिया रग के वस्त्र पहनकर बडे उत्सव के साथ रति सहित कामदेव की मूर्ति की पूजा करती थी। यह उत्सव तीन दिनो तक चलता था। इस आयोजन को मदनोत्सव और बसन्तोत्सव भी कहा जाता था।'” इसमे लोग नृत्यगान नाटक आदि खेलते थे। पारिजात मजरी नाटिका इसी अवसर पर खेली गयी थी।”” अलबरूनी ने इस उत्सव के बहद (बसन्‍्त) के नाम से उल्लेख किया है।* बैशाख मास - के उत्सव

अक्षय तृतीया -

शुकल तृतीया का नाम अक्षयतृतीया है। ऐसा विश्वास है कि इस तिथि मे किय गये शुभकार्य अक्षय होते है। कुशतिलादि से इस दिन तर्पण किया

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जाता था तथा रात्रि मे वासुदेव का पूजन भी किया जाता था। ज्येष्ठ मास --

के कृष्णपक्ष मे होने वाले किसी भी व्रत एव उत्सव का उल्लेख नही मिलता बल्कि शुक्ल पक्ष मे किये जाने वाले कुछ व्रतोत्सवो का (उल्लेख) विवरण उपलब्ध होता है।

अरण्यषष्ठी '-

व्रत में षष्ठी तिथि को स्त्रियाँ अपने हाथो मे पखवा लेकर जगल (वाटिका) मे विहार करती थी।”” जगल का पर्यायवाचक शब्द अरण्य है। सम्भवत इसी से इस पर्व को अरण्यषष्ठी का नाम दिया गया है।

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गगा दराहरा -

उत्सव दशमी तिथि को मनाया जाता था। लोगो का ऐसा विश्वास है कि इसी दिन स्वर्ग से गगा (नदी) ने पृथ्वी पर आगमन किया था। इसी दिन लोग निश्चित रूप से गगा नदी मे अथवा गगा के नाम पर किसी तालाब या बावली में स्नान करते थे।” आजकल भी लोग इस तिथि को यह उत्सव मनाते है।

चतुर्दशी तिथि को स्त्रिया वैधत्व से बचने के लिए बट सावित्री का व्रत एव पूजा करती थी।” चण्डेश्वर के अनुसार इस दिन चावल एव फलो से परिपूर्ण एक घडा उपलेपित भूमि पर रखा जाता था। ताम्रपत्र पर उत्तीर्ण ब्रह्मा और सावित्री की प्रतिमा को इस घडे पर रखकर पुष्प धूप दीप से पूजा की जाती थी। पूजा के बाद एक शुद्ध चरित ब्राह्मण को दम्पत्ति को भोजन कराकर वस्त्र एव दक्षिणाए दी जाती थी।”

ज्येष्ठमास की पूर्णिता आदि ज्येष्ठा नक्षत्र से युक्त हो तो उस दिन विशेष प्रकार से स्नान एव पूजन किया जाता था। जिसे महाष्येष्ठीव्रत कहा

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जाता था | आषाढ मास ---

हरिशयनी .-- शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि यदि अनुराधा नक्षत्र के प्रथम चरण से शुरू हो तो उस दिन विष्णु का शयन उत्सव मनाया जाता था और उसे हरिशयनी एकादशी कहा जाता था। ऐसा विश्वास था कि इस दिन विष्णु अपनी योगनिद्रा मे आविष्ट होते है।

श्रावण मास की पूर्णिमा को एक विशेष प्रकार का आयोजन किया जाता था जिसमे द्विजाति भाग एक विशेष सस्कार की पूर्णता के लिए रनान ,

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पूजन, हवन आदि कार्य करते थे।” इसे श्रावणी कहा जाता था। धार्मिक जनता आज भी यह कार्य करती है जिसकी छटा काशी के घाटो पर देखी जा सकती है।

भाद्रमास --

कृष्ण जयन्ती - कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि रोहिणी नक्षत्र से युक्त होने पर जयन्ति के नाम से सम्बोधित की जाती थी। इसी दिन कृष्ण का जन्मोत्सव मनाया जाता था। झूले मे भगवान कृष्ण की प्रतिमा रखकर उसका पूजन कर बडे धूमधाम से नृत्यगान आदि उत्सव मनाया जाता था।” इसी दिन रात्रि मे मिट्टी की बेदी पर रोहणी के साथ चन्द्रमा की प्रतिमा स्थापित करके पुष्पफल आदि से पूजा की जाती थी और शख मे जल लेकर चन्द्रमा को अर्ध्य भी दिया जाता था।[

हरितालिका :-

व्रत मे शुक्ल पक्ष की तृतीया को स्त्रियाँ व्रत रखकर शिव पार्वती की पूजा करती थी तथा शिव पार्वती की कथा सुनकर रात्रि मे नृत्यगान द्वारा जागरण करके प्रात काल प्रतिमा को जल मे विसर्जित करती थी, प्रतिमा विसर्जन के बाद पारण किया जाता था।” चतुर्थी तिथि यदि स्वाति नक्षत्र से युक्त होती थी तो उस दिन चन्द्रमा का दर्शन नहीं किया जाता था, क्योकि इसके दर्शन मात्र से झूठा कलक लगता है। इस तिथि को हरिताली चतुर्थी

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कहा जाता था| इन्द्रध्वजोत्सव :--

को कई नामो से सम्बोधित किया जाता था। इसका उल्लेख समरागण सूत्रधार मे इन्द्रध्वजोत्सव और राजमार्तण्ड मे इन्द्रध्वजपूजा तथा

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इन्द्रोत्थापन के नाम से मिलता है। इनमे से जो भी नाम अगीकार किया जाय तात्पर्य केवल इन्द्र देवता की प्रसन्‍नता के लिए पूजा पूर्वक ध्वजोत्तोलन का आयोजन करना मात्र था। महाभारत और टद्वयाश्रयमहाकाव्य जैसे ग्रन्थों मे भी इस उत्सव का उल्लेख मिलता है। शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि मे स्थिर एव उदित सौम्य ग्रहों को देखकर यह पूजा आरम्भ की जाती थी।” 32 हाथ या 28 हाथ अथवा 24 हाथ के कपडे का एक बडा तिकोना ध्वज बनाया जाता था जिस पर आयुधों और आभूषणो से युक्त उत्तम प्रकार के वर्णों मे यक्ष देवता आदि के चित्र चित्रित किये जाते थे। ये चित्र शुभ सूचक माने जाते थे। कपडे का रग सफेद, पीला, लाल अथवा बहुरगा होता था। इसमे सफेद रग विजय देने वाला पीला मान प्रतिष्ठा देने वाला, बहुरगा जय और लाल वर्ण शब्त्र प्रकोप देने वाला माना जाता था।

इस कपडे को उत्तम कोटि के एक डडे से लगाकर एक उत्कृष्ट ध्वजा का रूप दिया जाता था। जिस कार्य को करने के लिए चतुर कारीगरो को नियोजित किया जाता था। नैवेद्य आदि से पूजित एव सुगन्ध मालाओ से अलकृत इस ध्वज की ब्राह्ममणो को आगे रखते हुए पूजा करायी जाती थी। जो स्वास्तिवाचन से प्रारम्भ होती थी। विविध पूजोपरान्त रात्रि मे गाप्तवाय तथा नटो एव नर्तकियो के नृत्य सहित ध्वजा के आगे रात्रिभर जागरण किया जाता था। सूर्योदय होने के बाद पुरोहित वर्ग अग्निकुड के पचम सस्कार (हवन कुड को झाडना, लीपना, तीन रेखाए करना, रेखा करने से उमडी हुईं मिट॒टी की बाहर फेकना तथा पुन जल छिडकना) द्वारा अग्नि स्थापना करता था। तदनन्तर हवन के लिए उपयोगी सामग्री (ध्ृत, धृतपात्र, गन्धपुष्प, धूपदीप, नैवेद्य, पलास समिधा, हवन करने के लिए साकलय द्रव्य) एकत्र की जाती थी। अग्नि के दीप्त होकर धूमरहित हो जाने पर हवन करतेथे। हवनोपरान्त दिग्पालो के लिए बलिया दी जाती थी।

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यह उत्सव दस दिनो तक चलता था। इसमे सम्भवत अन्य भी अनेक कार्यक्रम आयोजित किये जाते थे। अन्तिम दिन राजा विशिष्ट वस्त्राभूषण आदि से अलक॒त होकर “ओ नमो भगवति” वागुले सर्वविटप्रमरदनि स्वाहा” मन्त्र पढते हुए ध्वज को उठाते समय शुभ-अशुभ लक्षणो की परीक्षा की जाती थी। ध्वज पूर्व दिशा की ओर होने पर मत्री क्षत्रिय वर्ग एव राजाओं को तथा दक्षिण दिशा में होने पर वैश्यो को धन धान्य आदि सिद्धियो को प्राप्त कराने वाला माना जाता था। अन्य अनेक भविष्यसूचक चिहनो की परीक्षाएं की जाती थी। ध्वज के नीचे गिर जाने पर राजा की मृत्यु की सूचना समझी जाती थी। अन्तिम

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दिन रात्रि मे विधानपूर्वक पुरोहित द्वारा ध्वज का विसर्जन किया जाता था।

इस सन्दर्भ मे यह ज्ञातव्य है कि इस उत्सव के समय बन्दियो को बन्धनमुक्त कर दिया जाता था।” लोगो का ऐसा विश्वास था कि इससे अच्छी वर्षा होगी तथा देश धनधान्य से पूर्ण रहेगा |

शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि के श्रवण नक्षण से युक्त रहने पर विजया द्वादशी या श्रवण द्वादशी कहा जाता था। इस तिथि से मुख्य रूप से स्नान एव विष्णु पूजन आयेाजित होता था। ऐसा विश्वास था कि इस दिन के स्नान एवं पूजन विधि से दस वर्षों मे प्राप्त होने वाले पुण्य एक ही दिन प्राप्त हो जायेगे।”

अशि्विनमास :+-

पितृ पक्ष :- कृष्ण पक्ष को पितृ पक्ष के नाम से अभिहित किया जाता था। इसमे पित्तरो का श्राद्धकर्म किया जाता था। अमावस्या को विशेष रूप से श्राद्ध

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और पिण्डदान किया जाता था।

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इस मास का सर्व प्रमुख उत्सव दुगोत्सव होता था। यह महोत्सव प्रतिपदा तिथि से प्रारम्भ होकर नवमी तक मनाया जाता था। उत्सव सप्तमी तिथि के मूल नक्षत्र से विशेष रूप से आरम्भ होता था। अष्टमी को व्रत रहकर नवमी तिथि में देवी को पशुबलि अर्पित की जाती थी। नृत्यगान से युक्त इस उत्सव के अन्तिम तीन दिन बडे महत्व के होते थे। चौथे दिन दशमी का श्रवण नक्षत्र मे दुर्गा की प्रतिमा विसर्जित की जाती थी [?

प्रेतचतुर्दशी -

चतुर्दशी को सूर्य के तुला राशि और चित्रा नक्षत्र में होने पर विष्णु की पूजा की जाती थी। इस दिन विष्णु पूजन करने से मनुष्य को प्रेत आदि दुरात्माओ का भय नही रहता।” सम्भवत इसी से इस तिथि को प्रेत चतुर्दशी के नाम से सम्बोधित किया गया है।

पूर्णिमा को विष्णु की पूजा करके रात्रि मे जुआ खेला जाता था। लोगो का विश्वास था कि इस दिन चूतक्रीडा द्वारा लक्ष्मी (धन) का आगमन होता है। इस तिथि को कौमुदी महोत्सव अथवा कोजागर के नाम से सबोधित

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किया जाता था। कार्तिक मास -

दीपावली -- अमावस्या की रात्रि मे लक्ष्मी का विशेष रूप से पूजन किया जाता था। इस दिन लोग रात्रि मे अपने-अपने मकान, सडक, नदी के किनारे और देव मन्दिर आदि विभिन्‍न स्थानों पर दीपक जलाते थे। साथ ही लक्ष्मी के सामने आटे का विशेष प्रकार का दीपक जलाया जाता था। ऐसा विश्वास था कि इस तिथि मे लक्ष्मी अपनी योग निद्रा से जागृत होती है, इस तिथि को सुतरात्रि और यक्षरात्रि के नाम से भी सम्बोधित किया जाता था।*'

[5 ]

शुक्लपक्ष की द्वितीया तिथि को स्त्रियां अपने-अपने भाइयों को

विशेष स्नेह की दृष्टि से मिष्ठान खिलाती थी तथा भाई उन्हें उपहार स्वरूप

द्रव्य आदि कुछ वस्तुएं देते थे।” इस त्योहार को मातृ्‌ द्वितीय कहते थे।

देवोत्थानी एकादशी को चन्द्रमा के रेवती नक्षत्र के अन्तिम चरण में होने पर विष्णु का जागरणोत्सव मनाया जाता था। इस दिन लोग स्नान एवं विष्णु पूजा करके ब्राह्मणों को दान देते थे। आबू शासक धारा वर्ष के मंत्री कौविदास ने इसी दिन शैव भट्टारक को भूमिदान दिया था।” अलबरूनी ने भी इस उत्सव का उल्लेख किया है। वह कहता है कि इस दिन लोग अपने शरीर में गोबर लगाते और गाय के दृध, मूत्र और गोबर (पंचद्रव्य) से आचमन करते थे।*

इस तिथि को ईख के मध्य विष्णु की प्रतिमा रखकर पूजी जाती थी। तदन्तर प्रसाद के रूप में उस ईख के लोग चूसते थे।*

आकाशदीप :--

कार्तिक मास की प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक देवताओं एवं पितरों को लक्ष्य कर आकश में ऊँचे बांसों की सहायता से बांस की पिटारियों में रखे हुए दीपक जलाये जाते थे। इस प्रकार का दीपदान चौराहों, देव मंदिरों और ब्राह्मण ग्रहों में किया जाता था। ये दीपक घी या तिल में जलाये जाते थे |

97

इन्हें आकाश दीप कहा जाता था।

हु इसके अतिरिक्त प्रातः: काल ब्रह्ममुहूर्त में लोग स्नान करते थे। लोगों की यह धारणा थी कि कार्तिकमास के स्नान से चन्द्र एवं सूर्य ग्रहण में

(98 |

स्नान करने का फल प्राप्त होता है

ला

माघधमास -

वरचतुर्थी - शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि का वर चतुर्थी और कुन्दचतुर्थी के नाम से उल्लेख मिलता है। इस दिन प्रात काल स्त्रिया स्नानादि नित्यक्रिया से निवृत्त होकर स्वच्छ परिधान मे कौन्दी देवी की पूजा के लिए जाती थी। स्नान करती हुई स्त्रिया “उलु-उलु” शब्दोच्चारण भी करती थी, जो कामदेव के आवाहन का सकेत माना जाता था। कुन्द पुष्पो से देवी की पूजा करके आटे से बने हुए भोज्य पदार्थ नैवेद्य के रूप मे अर्पण किये जाते थे ।*

शुक्ल सप्तमी तिथि को माघ सप्तमी अथवा सौर सप्तमी के नाम से सम्बोधित किया जाता था। इस दिन सूर्य भगवान की पूजा विशेष रूप से की जाती थी?

शुक्ल पक्ष के पचमी तिथि को कलियुग की आरम्भ की तिथि मानकर कृशतिलादि से तर्पण और श्राद्ध आदि किया जाता था [”'

इसी पक्ष की अष्टमी को भीष्म पितामह की पूजा एव उनके नाम से तर्पण किया जाता था।” इसे भीमाष्टमी के नाम से सबोधित किया जाता था।

पूर्णिमा को विशेष विधि पूर्वक स्नान किया जाता था। इस तिथि

203

का माघी पूर्णिमा के नाम से भी सबाधित किया जाता था। फाल्गुन मास :-

शिव रात्रि - कृष्ण चतुर्दशी को लोग उपवास करके रात्रि के चार प्रहरो में शिव भगवान की पूजा करते थे। जागरण को आनन्दमय बनाने के लिए नृत्यगान आदि विभिन्‍न कार्यक्रम भी किये जाते थे। इस पूर्व को महारात्रि के नाम से भी सम्बोधित किया जाता था।[”

[ ]]7 ]

शुक्ल पक्ष की द्वादशी को सूर्य कुम्म राशि का, चन्द्रमा गुरु का और पुष्यनक्षत्र होने पर विष्णु की विशेष पूजा की जाती थी। द्वादशी का पुष्यनक्षत्र से योग होने कारण इसे पुष्यद्वादशी कहा जाता था। घी का प्राशन करके हविष्यपदार्थ का नैवेद्य लगाकर भगवान विष्णु की कथा श्रवण की जाती थी कार्तिकेय पूजा -

फाल्गुन पूर्णिमा को कृम्भ राशि को सूर्य होने पर लोग स्नान करके कार्तिकेय की पूजा एव परिक्रमा करते थे। अन्त में प्रतिमा को रथ पर रखकर लोग जुलूस निकालते थे [”

तिथिक्रम के अतिरिक्त ऋतुकर्म से भी मनाये जाने वाले अनेक उत्सवो के उललेख मिलते है। जो कि निम्नलिखित है।

बसन्त ऋतु के उत्सव -

शालमली क्रीडा :-- इस क्रीडात्सव मे किसी निश्चित दिन स्त्री एव पुरूषो के अलग-अलग वर्ग अपने-अपने अपने आखो मे कपडे की पदिटयां बाधकर शाल वृक्षों के समीप लुका छिपी (आख मिर्चानी) का खेल खेलते थे।” इसके अतिरिक्त इस ऋतु का एक प्रमुख उत्सव धूतमजिकोत्सव था। धूत आम का पर्यायवाचक शब्द है और मजिका का तात्पर्य तोडना। इस उत्सव मे स्त्रिया आभ्रमजरी को तोडकर उससे अपना श्रगार करती थी, तथा शैष समय नृत्यगान आदि मे बिताती थी 2

उदकदवैडिका उत्सव :-- आधुनिक होली की तरह ही यह होता था। इसमे लोग पिचकारियो से एक दूसरे पर रग छोडते थे जो कि सुगन्धित जल से बनाये जाते थे |”

[8 ]

नवलतिका - बसनन्‍्त ऋतु मे मनाया जाने वाला एक विशेष उत्सव होता था। इसमे स्त्रिया आम की मनन्‍्जरियो को लेकर अपने प्रियतम के साथ मधुरभाषण कर उन्हे आकर्षित करती थी। सरस्वती कठाभरण मे आम्रमजरी के स्थान पर पलाशपत्र शब्द का उल्लेख मिलता है, जिससे यह प्रतीत होता है कि आमृमजरी की जगह पर पलाश पत्र से भी काम लिया जाता रहा होगा |” श्रगार प्रकाश में भी इस उत्सव का नवलतिका के नाम से उल्लेख मिलता है

पाचालानुयान "- बसन्त ऋतु मे किसी विशेष दिन स्त्रिया किसी विशेष देवी प्रतिमा के पास एक जुलूस मे होकर जाती थी और वही नृत्यगान आदि करती थी [* राघवन ने तमिलसाहित्य मे इस उत्सव का “पावे” के नाम से उल्लेख किया है। पावे का अर्थ होता है गुडिया इससे प्रतीत होता है कि इस उत्सव मे गुडिया के खेल का तथा गोण्डाली नृत्यगान विशेष का आयेजन किया जाता

था [8

था। ग्रीष्म ऋतु के उत्सव -

उद्यान यात्रा :- ग्रीष्म ऋतु मे लोग किसी निश्चित दिन बगीचे मे जाकर भोजन

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करते और आनन्द मनाते थे | सलिलक्रीडा :--

उद्यान की बावलियो मे जाकर लोग मनोरजनार्थ एक दूसरे पर जल को उछालकर इस उत्सव का आयोजन करते थे“ क्रीडोत्सव का उल्लेख किया है

धनपाल ने इस

वर्षकऋतु के उत्सव -

शिखंडिलास्य :- वर्षाकाल मे मेघो के सर्व प्रथण आगमन पर उनमत्त मयूरो के नृत्य को देखकर लोग आनन्दित होते एव उत्सव मनाते थे। इसे नावाम्बुदाभ्युदय के नाम से भी सम्बोधित किया जाता था।*

[ ]9 ]

कदम्बयुद्ध - उत्सव मे स्त्री पुरूष दोनो परस्पर कदम्बवृक्ष की कोमल टहनियो को लेकर आपस मे मनोरजनार्थ युद्ध करते थे

शरदऋतु के उत्सव -

नव पत्रिका - उत्सव शरदऋतु के आरम्भ मे मनाया जाता था। इसमे स्त्री-पुरूष नवोदभूत घोसो पर बैठकर भोजन एव मनोरजनार्थ हसी-मजाक करते थे [7

विशखादिका उत्सव "-- मनाने के लिए दम्पत्तिवर्ग विकसित कमलो वाली बावलियो मे जाकर दातो से कमलनाल को काटते थे। इस क्रिया को पहले पति और बाद मे पत्नी करती थी [7

उन उपर्युक्त उत्सवो के अतिरिक्त भ्रमर क्रीडा, चन्द्रिका लालन, हसलीलावलोकन और सरितपुलिनकेलि आदि छोटे-छोटे अनेक उत्सवो के नामोल्लेख मिलते है।”

हेमन्तऋतु के उत्सव :-

देवतादोलावलोकन एवं क्रीडाशकुन्तसघात नामक केवल इन दोनो उत्सवो का ही उल्लेख मिलता है। प्रथम उत्सव मे लोग देव मन्दिरों मे विशेष रूप से सज्जीकृत झूले मे भगवान का दर्शन करते थे। द्वितीय उत्सव मे तीतर

222

बटेर तथा मुर्गों आदि की लडाइया कराकर आनन्दोत्सव मनाये जाते थे।

उपर्युक्त तिथियो और ऋतुक्रमिक उत्सवो के अतिरिक्त चन्द्र एव सूर्य ग्रहण तथा संक्रान्तियो के अवसरो पर भी व्रत और उत्सव मनाये जाते थे। इन अवसरों पर सस्‍्नानादि के विशेष आयोजन किये जाते थे।

[20 ]

दान व्यवस्था

परमार राजाओ एव उनकी प्रजाओ ने केवल देव पूजन , मदिरो निर्माण तथा उनका जीर्णोद्धार ही नही कराया बल्कि उन्होने मुक्तहस्त से ब्राह्मणो को दान भी दिया उनमे मुक्तहस्त से ब्राह्मणो को दान भी दिया उनमे भूमिदान मुख्य थे।

लोग स्मृति और पुरणो के दान सम्बन्धी नियमो का पालन करते थे। स्मृति लेखको का मत है कि दान देना गृहस्थो का मुख्य कर्त्तव्य है। “दानमेव गृहस्थानाम |” बृहस्पति -स्मृति मे कहा गया है कि भूमिदान से मनुष्य को स्वर्ग की प्राप्ति होती है और वह अपने सब पापो से मुक्त हो जाता है। महाभारत मे भूमिदान को सर्वश्रेष्ठ दान कहा गया है। तत्कालीन अभिलेखो को देखने से स्पष्ट होता है कि स्वर्गप्राप्ति के उद्देश्य से ही भूमिदान किये जाते थे।” दान दी हुई भूमि से प्राप्त सभी वस्तुए विभिन्‍न प्रकार का भाग भोगकर” आदि भी दान ग्रहणकर्ता को मिलती थी। अर्थात उन भूमियो से जो कर राजा को प्राप्त होते थे। उन्हे वसूल करने का अधिकार अब दान ग्रहण करने वाले व्यक्ति को ही प्राप्त हो जाता था|? अन्य दोनो के विपरीत भूमिदान की कुछ व्यावहारिक विधिया थी। जिनके अनुसार दान की सूचना उस गाव के निवासियो, राज कर्मचारियों तथा अन्य सम्बन्धित लोगो को दी जाती थी” यह घोषणा इसलिए की जाती थी कि दान दी जाने वाली भूमि के बारे मे किसी प्रकार के सन्देह की सभावना रहे।

एक बार दान मे दी हुई भूमि का या उसके एक हिस्से का भूलकर भी किसी दूसरे ब्राह्मण को फिर से दान कर देने पर राजा इसकी सूचना पाते ही प्रायश्चित करता था और प्रथम दान ग्रहण करने वाले ब्राह्मण को उस भूमि या उसके अश का मूल्य चुकाता था। अत दान देते समय अन्य

[2 ]

ब्राह्मणे के प्रदत्त हिस्सों को छोडकर ही (अवशेष) भूमि का दान दिया जाता था। भोज, जयसिह और देवपाल आदि शासको के अभिलेखो” मे उल्लिखित “देव ब्राह्मण भुक्तिवर्णम” वाक्य इसी बात का सकेत करता है|

भूमिदान किसी निश्चित अवधि तक के लिए नही होता था। बल्कि सृष्टि के अस्तित्व तक इसका स्थायित्व माना जाता था। सीयक, वाक्पतिराजभुज, भोज आदि ने अपने-अपने दान सकल्पनो मे “आचन्द्रावर्कार्णव क्षितिरामकालम्‌” की घोषणाए की थी |”'

दान पत्रों पर दाताओ के हस्ताक्षर होते थे। सीयक, भुज, भोज, जयसिह आदि नरेशो ने हस्ताक्षर के लिए “स्वहस्तो ---+- नाम ++++ स्य” आदि लिखते थे।” मदिरो के खर्च निर्वाह, देशान्तर से आये हुए ब्राह्मणो के भरण पोषण एव शैक्षिक क्षेत्रों के विद्यार्थियों और शिक्षको की आवश्यकतापूर्ति के लिए भी दान दिये जाते थे। वाक्पतिराजभुज के शासनकाल मे व्यवसायी महासाधनिक ने उज्जैन की भट््‌टेश्वरी देवी के मन्दिर का खर्च चलाने के लिए सेम्युलपुर नामक गाव दान दिया था।” शिक्षा की उन्‍नति के लिए जयसिह अमरेश्वर पटटशाला के लिए दान दिया था।”

दान के लिए देश, काल और पात्र का विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए [” असमय मे अथवा अनुचित पात्र को दान देने से दान का फल नष्ट हो जाता है।” परमारवशीय शासको ने अपने दानो के सम्बन्ध मे इन बातो का ध्यान दिया था। दान के लिए स्थान निश्चित होते थे। पवित्रतीर्थ, नदी नट देवालय आदि दान देने के स्थल होते थे। पवित्र तीर्थों मे कुरुक्षेत्र, गया और वलकलेश्वर आदि उल्लेखनीय है। कभी-कभी राजा लोग अपनी राजधानी में रहकर भी दान देते थे।” देश के साथ-साथ समय का भी विशेष ध्यान दिया जाता था। दान के लिए अधिकाशत धार्मिक पर्व ही उचित समय

[ 22 ]

माने जाते थे। प्राय सूर्य अथवा चन्द्रग्रहण के अवसर पर भूमि दान दिया जाता था। सूर्यग्रहण” पर महाकुमार हरिश्चन्द्र एव अर्जुन वर्मा ने और चन्द्रग्रहण* पर वाक्पतिराजमुज और यशोवर्मा ने ब्राह्मणो को भूमिदान किया था। मन्दिरो के लिए देवाग्रहार के रूप मे भूमिदान किया जाता था [#

विजय प्राप्ति -- के उपलक्ष्य मे भी दान कार्य किया जाता था। भोज ने अपनी कोकणविजय के उपलब्ध मे भूमिदान दिया था। उपर्युक्त अवसरो के अतिरिक्त अन्य अनेक तिथियो पर दान दिये जाते थे। वाक्पतिराजमुज ने भाद्रशुक्ला चतुर्दशी को” भोज ने माघतृतीया” को देवपाल और महाकुमार हरिश्चन्द्र ने क्रमश भाद्र एव वैशाख मास की पूर्णिमा को तथा जयवर्मा ने

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मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया को ब्राह्मणो को भूमिदान दिया था।

विशेष तिथियो के अतिरिक्त सामाजिक सस्कारो के अवसर पर भी भूमिदान की प्रथा प्रचलित थी। यशो वर्मन ने अपने माता-पिता के वार्षिक श्राद्ध की तिथियो पर ब्राह्मणो को भूमिदान दिया था। पुत्रोत्पत्ति के उपलब्ध में

254

भी भूमिदान का कार्य किया जाता था।

देशकाल के अतिरिक्त दान के सम्बन्ध मे पात्र का भी ध्यान रखा जाता था। दान प्राय वैदिक तथा उत्तमगोत्र प्रवरवाले ब्राह्मणो को ही दिये जाते थे। इनके प्रमाण देवपाल और जयवर्मा द्वितीय जेसे अनेक राजाओ के अभिलेखो से प्राप्त होते है।* हैं

दानविधि :- दानार्पण के लिए कुछ आवश्यक शास्त्रीय विधिया भी होती थी। जिनक अनुसार भूमिदान देने वाला व्यक्ति नदी आदि किसी जलाशय में स्नानोपरान्त स्वच्छ श्वेत वस्त्र पहनकर देव, ऋषि और पितरो के लिए पर्तण एव भगवान शकर की पूजा करके समिधा और कुशतिलादि से हवन करता था।

085,

तत्पश्चात वह गाय की तीन बार प्रदक्षिणा करके उत्तम कुल गोत्र वाले वैदिक ब्राह्मणों को भूमि दान देता था।” अलबरूनी ने भी ब्राह्मणो को दिये जाने वाले भूमिदानो का उल्लेख किया है|

भूमिदान के अतिरिक्त अन्य वस्तुए भी दान मे दी जाती थी। भोज के सामन्त यशोवर्मन ने एक जैन मन्दिर के पुजारी सुव्रतमुनि को मन्दिर का खर्च चलाने के लिए भूमि के अतिरिक्त दो तेल की मिले, व्यवसायिओ को चौदह दुकाने (दुकानों से प्राप्त होने वाले कर) और चौदह (दुकानो से प्राप्त होने वाले कर) और चौदह द्रम (सिक्के) दान मे दिया था। इसी प्रकार जनन नामक एक तेली (पटेल) ने सैधवदेव नामक शिव मदिर मे चार पैली तेल शिव उत्सव के अवसर पर दान दिया था|”

आबू शासक प्रताप सिह ने पट््‌टविष्णु के मन्दिर का खर्च चलाने के लिए अनेक व्यवस्थाए की थी।” वागड के शासक चामुण्डराय ने एक शिव मदिर के सम्बन्ध मे चैत्रमास मे मनाये जाने वाले उसके वार्षिकोत्सव के लिए पीतल के बर्तन बनाने वाले (ठठेरो) से प्रतिमास एक-एक द्रम, शराब खाने से प्रति चुम्बुक चार रूपक, द्युतगृह से दो रूपक, प्रतिवर्ष तेल से एक पाणक तेल, प्रतिरमक नारियल से एक नारियल, प्रतिभूटक नमक से एक माणक नमक और प्रतिपटक घी से एक पालिका घी दान के रूप मे देने की व्यवस्था की थी।” इसी प्रकार मीनमाल के शासक कृष्णराज ने जगत स्वामी नामक सूर्यमदिर के लिए भूमि के अतिरिक्त अनाज की व्यवस्था की थी।

इस प्रकार इस समय के लोगो की दान शीलता ने धर्म को अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचा दिया था। महाराज वर्मन के बारे मे उल्लेख मिलता है कि उसने अपने दान कार्यों द्वारा एक पैर वाले धर्म को अनेक पैरो वाला बना दिया |”

[ |24 ]

उपर्युक्त विवरणो के एकत्र समवाय को धार्मिक सहिष्णुता का मूर्तरूप कहा जा सकता है। इसकी विवेचना मे यह ज्ञातव्य है कि तत्कालीन शासक एव प्रजा दोनो ही वर्ग अपने व्यक्तिगत धर्मों के अतिरिक्त अन्य सम्प्रदाय एव धर्मा को भी प्रश्नयात्मक महत्व की दृष्टि से देखते थे। इस सन्दर्भ मे यह भी जानने योग्य बाते है कि अपने अभिमत सम्प्रदाय से भिन्‍न सम्प्रदायो के व्रतों एव उत्सवों में भी लोग भाग लेते थे। यह बात अलग है कि स्त्री प्रधान व्रतों एव उत्सवो मे स्त्री ही भाग लेती थी। ऐसे भी अनेक व्रतोत्सव आयोजित होते थे। जिनमे सामूहिक रूप से सभी लोग भाग लेते थे और किसी प्रकार का भेदभाव नही होता था। उदाहरणार्थ इन्द्रध्वजोत्सव आदि।

सीयक द्वितीय के एक शिलालेख मे शिव और विष्णु दोनो की स्तुतियाँ साथ-साथ की गयी है।” इसी प्रकार भोज शिवभक्‍त होते हुए वैष्णव एव शाक्त सम्प्रदायो के साथ-साथ जैन धर्म का भी आश्रयदाता था। जैनाचार्य सूरिभानतुग और देवभद्र भोज के मनरूपी सरोवर के दो राजहस कहे गये है।” यद्यपि यह सकेत तो कुछ उत्युक्तिपूर्ण मालुम पडता है कि धारा के अब्दुल्लाह चगाल की कव्र के हिजरी सन्‌ 859 (ई0 स0 4455) के लेख के अनुसार भोज ने मुसलमानी धर्म ग्रहण करके अपना नाम अब्दुल्ला रख लिया था। गुलदस्ते अब्र नामक उर्दू की एक पुस्तक के अनुसार भी भोज अब्दुल्लाशाह फकीर की करामातो को देखकर मुसलमान हो गया था।” परन्तु किसी भी समकालिक विश्वस्त प्रमाण के अभाव मे यह इस्लामी मुल्लाओ की कंपोल कल्पना के अतिरिक्त और क॒छ भी नही प्रतीत होता। भोज जेसे विद्वान धार्मिक शिव भक्त और प्रतापी शासक का बिना कारण ही अपने वशानुगत धर्म को छोडकर मुसलमानी मजहब की शरण लेना असम्भव प्रतीत होता है।

[25 ]

यह अवश्य सम्भव प्रतीत होता है कि उसने अपने राज्य की विभिन्‍न धर्मावलम्बनी प्रणाओ की तरह मुसलमानो को पूर्ण धर्म सहिष्णु दृष्टि से देखा हो जिससे बाद के मुसलमानों मुल्लाओ ने उसकी इस्लाम धर्म में आस्था का भ्रम कर लिया हो |

[26 ]

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पाद टिप्पणी

डी0 सी० गागुली-परमार राजवश का इतिहास पृष्ठ 64 2 5$] ]929-30 7? 87

?ए२ 5 99, ? 65

8] 9, ? 88-92 गोपीनाथराव--हझल्यथ्रा$ प्रागरतप [0070९279070५9 ? 342

वरदा 2 पृष्ठ 54

जिद्याप टाव्रपाशा 729989 2226 263

देवीभागवत, पचम स्कन्द, अध्याय 30,34

जत्िपुरारहस्य महात्म्यखड, अध्याय 8, श्लो0, 53--402 | 4330२ ५०, 7५, ? 99

[७ ५०0, ऋऋ, ? 32

788२8 ए0ा, ऋतशा, ? 78

मूलेन प्रतिपूजयेद भगवती चण्डा शुचण्डाकृति -----

#307र, ए0 , एएशणश , 7 327 द्रष्टव्य, मारकण्डेयपुराण का देवी महात्म्य अध्याय | 4830रा ५४0, ऋऋणा, 327-28 नयो मारत्ये, प्रासादार्थ माधुर्य समाधिसमता दय - युवरयौर्य गुण सन्ति वाग्देव्यौ तैपि सन्‍्तु | ए0णा, ॥, ? 82- ति0 म0 पृ० 37, ।8. ७४0, श, 7? 5, ए0ा, जाए 7 60 [76 85000 7२2८20प75 (०7काणा 07 ]707 77089, ? 253 दूयाश्रुयमहाकाव्य, सोलहवा, 6 [76 800०0-२८॥९0705 ०0407 ०7०77 704, ? 250

[ 27 ]

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ति0 म0, पृ० 63

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गगाम्बु संतिक्त भुजगभक्त

मालैक्लैन्दोरम्लाक्राभा,

यन्मूध्नि नर्मेक्ति कल्पवल्या

मातीवभूलै तथास्तु शम्भु - 8] ५४०॥ 7० 233

वृतगगन सिधुपुट्ट शैक्तसुता शलमजिका समग

जयति जगभयमण्डप मूलस्तम्भो महादेव

भोजदेव प्रणीत तत्वप्रकाश पृष्ठ--85

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[29 ]

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बलदेव उपाध्याय, भारतीय दर्शन, पृ० 547

धवल भस्म ललाटिकाभि अदामालिका परिवर्तन प्रचलकरत-लाभि पाशुपत व्रतधारिणीभि कादम्बरी, पृ० 424

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शूकर, नृसिह वामन, राम, वासुदेव, और कृष्ण

वायुपुराण पृष्ठ 97, 98

वियुच्चककडार केसर सटाभिन्नाम्बुद श्रेणय

शोण नेत्रहुताशडम्बर धृत सिहाकृते शाडिदर्ण्गण

डा ०0, जाए, 7 24.,

[ 30 ]

07

06

09 70 है| 2 /3 4 75

76

पं.

ह८ /5

80

8].

82 83

चन्द्रावती परकुलौदधिदूर मग्नाम्‌,

उर्वी वराह इव दघधार

[७ ४0, जा ५, 78

वैश्वरूपय समस्यस्य मीना आकृति कैतवात्‌

एवा भिन्‍न निर्मिताशेष विश्वो विष्णु पुनातु

2 ०0, ॥., ? 82

था ४0, जाए, 77, ४0ा, हज़5, ? 236 [9७0 ५४0, हुणा, ? 323

[6 0७0, ज्ाए५, 77, 7887265, ए0, जुदा, ? 78 [७& ए0ा, एा,? 5, ए0, हा५, ? 60

शि्‌ 0४0, जाऊ 24]

5830रा, ए0, एऋ़ऋऋण, 332 ५७४० 35 अनय बामन शीरिं वैक॒ण्ड पुरूषोत्तमम्‌

वासुदेव हृषीकेश माधव मधुसूचदनम्‌

साराह पुण्डरीकाक्ष नृसिह दैत्य सूदनम्‌

दामोदर पद्मनाभ केशव गरूणहवणम्‌

530रा, ५0, एफ, 7? 32, ५७:४८ 9-20. [887२48. ए0ा, हज॒शा, 78, 7305 ४0.,.णा, ? 25 माहएा0रर 07 82705, ५४0, ॥, श॒-ा )70 7 जि ४0. शा, ?. 243.

नारायण चतुर्बाहु शख चक गदाधरम्‌

4580रा 0०0, ज॒हएऋणा, 7 32, ५७४४० 22 [80. ५0, जा,५9, 77.

था. ५0.. 5, ?. 09, [76 20

270 7२९७०. 5 ए४/९४८०7॥ (7706. 906-7, ? 26 395२ (एफ्रगाशशाीक्षाए) ५०7, ए, ? 270.

[3 ]

84 ०] 86

67 88 69 90 9]

92 93

94 95

96

97

98.

530२, ए0ा, एएऋणा, 7 34-6, 320-22, (0[6ठट66 ए४००४८३ छावधावक्धादव, ४०0] [५, ? 22] मकरो भगवान देवो भास्कर परिकीर्तित मकर ध्यान योगाश्च मगाहयेवे प्रकीर्तिता भविष्य पुराण अध्या0 434, 6 5050-रटाशा0०प5 एगावा।णा एप पादा9, के 257 502०0 २९॥४7005 (९0700707 007४7 98, 7? 257 580०797, ४५०, 7 7? 2] 9807 082, ४0, |, ?वव 7, ? 472 झा ए0, उऊ़ता, 59-60, 807 02 ५0, ] ए््का , ? 472 यस्योदयास्त समये सुरमुक्‌ट निस्पृष्ठ करचरण कमलौस्मि करूते जलि त्रिनेत्र जयतिधाम्ना निधि सूर्य

807 02 ५४0, 7, ?४7 7? 472 स0 सू0, छत्तीसवा अध्याय स0 सू० छत्तीसवा अध्याय हा ४0. हुआ 60 ७8०7४7, ४५0, 7, ? 0 ति0 म0, पृ० 207, 209, नवसहासाकचरित, द्वितीय 82-83

[& ५0, हएण, 354 दिनमिव्यपिनी कृष्णा शुक्ला चैन तु सप्तमी उपाव्या सा महापुण्या अवश्मेघकल्प्रवा | | दियिव्यामिनी षष्ठी सप्तम्या अष्टमी मवैत्‌ षष्ठया सौरब्रत कुयविष्टम्यामेव पारणम्‌ ।। 5302 ४0, ऋण, ?ए. 34

सा. ए0ा.. 5, ? 3 [99. ए0.. >छआ, ? 6]

[32 ]

99 307 082 ५४७0, |, ए&॥ 7, ? 472

00 [0 ए0, ह55, ? 32, 788725 ए0, हा, 78

0]। शा ए0, ॥, ? 234

]02 भोजविरचित शालिहोगत्र, 7558 ५0 शा, 7? 736, 7887१65$, ४0, >ःएा, 78 [0 ५४0, 55%, 3]

03 480रा, ५४0, हएऋएएण, ? 332

04 788१8 ए४र0ा, हुशा, ? 78

05 ॥4 ०७0, 55, 7 32

]06 हवनात्मक महारुद्र प्रयोग, पृ० 438-52, 69

07 वही, पृ० 438-52 |

08 [6 ०७0, ह5, ?ए 32

09 [छा60 7? 32

]0 380र, ४0, ऋण, ?ए 38-20

!! 580रा पए0ण, #ऋण:,रए 320

!2. ति0 म0 पृ० 55ए बल्‍लालक॒त, जगदीशलाल, भोज प्रबन्ध, पृ० 295 |

3 स0 सू0, 36 | 4-25 |

4 पता, जा, ?8, जणा, ?.320, ५०0, पा, ? 48

5 ५0, जाए, 7 60, ०0, हएणा, ? 252, ए0.. ५, ? 48 [छ्र0. ए0, शा, ? 305

5 3887२285$. ए0, जता, ?ए 75, 7458. ४0 ..एणा, ? 737 ?( ॥99/769५, ?. 538,

!6. 4, ४0..,श/, ? 2

]!7. ति0 म0, पृ०0 52

[ 33 ]

8

[[9 20 [2] [22 00.3 [24 [25 [26 [27

(26

[29

30.

]3] 32

नमो वीवरागाय | जयतुजिन भानुर्मव्य राजीवराजी ।। जनित वर विकाशोदत्त लोक प्रकाश ला ०ए0ा, हुफा, ? 50 235धा0 7२८5८०७०॥०९$, ४५०) ५] ? 32 भारती, फरवरी 4955, पृ0 446-7 ?ह&इ07'$5 70फपा7 7२९००7॥, [77/007८707, ? 3 नाथूराम प्रभी, पृ० 442 ?ह05975 ॥#76२6900 7? 9], ४८४5८ 23 छाशा9]08 (70708, ४५), ॥, ? 35 2( 499769, ? 52 [976, ? 46 द्वाम्या यन्‍न हरि वमिर्न चहर सृष्टा चौवाष्टनिर्यन्न द्वादशभिर्गुहो दशकन्धैेन लकापति।| - प्रचि0 मू0 पाठ, पृ0 39

2(, 4०ए6५, ? 57 आख्यानाधिपतौ वृधादविगुणै श्री भोजदेवनपे | अमिभव्यम्बर से सपण्डित शिरोरत्नादिवृधन्मदान | | योइनेक्तत्‌ शतशो व्यजेण्ट पटुताभीष्टौयमी वादन | शास्त्राम्योनिधि पारगोइमवदता श्री शान्तिषेणो गुरु ।।

डा ४0ा,ए ?ए 239 ?,(. ॥४एा९५ - ? 36-42 ए?छशाडआइणा'ड ४0705 7२6००7 पर7076८%07 ? 4 नाथूराम प्रेमी पृष्ठ -- 289 ?छशाइणांड ॥#7व47२67907, ? 95, ४८४४८ 8

[ 34 ]

33 34 35 36 37 ]36 39

[40 4 [42 43

]44 ]45 ]46 [47 [48 ]49

50.

एह&85०7 5 7]60 २९००॥४, ? 95, ४८5४८ 9-0 भारत के प्राचीन राजवश, पृ० 444--445 द्रष्टव्य परिच्छेद शिक्षा एव साहित्य रेउ, राजाभोज, पृ०0 348 विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य, & 6 |/बरुणा0%०, ? 34 नाथूराम प्रेमी, पृ० 347 | भारत के प्राचीन राजवश, पृ० 457, नाथूराम प्रेमी, पृ० 347 ]वद्रा775 २९७०॥ 06 9607८॥१ 00 76 80567 /७7507।[( 883-84, ?? 04 द्रष्टव्य शिक्षा एव साहित्य भारती, फरवरी, 4955, पृ० 422 | ताइ0तए 076 एथा749 क्‍09१9889. ? 96 श्री मदभुर्जनम्‌पाल राज्ये श्वावकसकुले निजधर्मोदपार्थ यौ नलकच्छपुरेड्वसत्‌ |

7ए०णाव०वव राइ0०ए 0०767 709, ? 46 द्रष्टव्य, शिक्षा एव साहित्य भारत के प्राचीन राजवश, पृ0 467 [७ ए0, जा, ? 255 [4 ए0, जा, 7 255 (लाश०णाठ्थ 7१९९००० 0 वध) ४0. हाह, 72-73 भारत के प्राचीन राजवश, पृ0 79

बशा।ओआाओ पा रि्वु8४7 40, ? 25 तेनाकारि मनोहर जिनगृह भूषणम्‌ श्री वृभभनाथ नाम्न प्रतिष्ठितं भूषणेन बिम्बमिदम्‌

छा ४0, 5हा, ? 54

[35 ]

5] 52 53 34 55 56

57 58 [59 60 6] 062 863 64 65

]66 67 ]66 ]09 70 [7]

क्‍2५ 0एथाए्रणा, साइंतज 076 एशथ्या॥79 09459, ? 39-20 काला) पा रिक्वु४वा।, 2? 25

या ४0, शा, ? 200

! 00, ? 200

[990 ? 200-20]

षठयापुपोण्य सभ्यक सप्तम्यामर्क मर्कमर्चयेत्‌-- दिनाभिव्यापिनी षष्ठी सप्तम्याष्टमी भवेत्‌

षष्ठया सौरबत कूर्यादण्टम्यामेव पारणम्‌

2080र ए0ा, जऋणा ?ए 308 34 ५७०56 -53 4307, ए0.. जएऋणा, 308, ५८5४८ 3

[976, ? 35-6

[006, ? 308, ४८४5८-३

230२ ०७0, ह़ऋएऋणा, 334, ५७६४० 240

कू० क0 नियतकालकापड्‌ पृ० 377-82 कू0 र०0, पृ० 403-8 वही, पृ0 382--83, वही, पृ0 449

५७०४०, ४५0], |, 76.

#&30र ४0, ह़ऋएऋणा, 7 333, ५७६४०, 233-35. स्पृहयन्तीव्रतक अष्टमीचन्द्रक सहि चेत्र चतुर्थित - अष्टमचतुर्थयाम्‌ उदीयमान कामिनीमिरम्यच्यते

राघवन, श्रंगार प्रकाश, पृ0 649

5830र ए0. जप, 7 233. ५७६९ 236-37

श. ४0. शा, ? 96

५४०८087, ५४0७) .,. ]7, ?. ]78.

4330र7, ५७०, &&&०]॥, ?. 37, ५०८56 84, 0 ४७०, <&[५, ? 98 4&30रा ५0. >एऋपा, ? 335, ७४८ 25]

[ 006, ? 335-336, ४०४४८ 252-60.

[36 ]

[72

]73 ]7/4 [75 [76 क। ]78

79.

80 8]

82

]83 84

85 ]86 87 88 69

90.

ज्येष्ठमसि चतुर्दश्या सावित्रीव्रतमुत्तमय्‌

अवैधव्य कर्वन्ति स्त्रिय श्रद्धा समन्विता

#छाशर0 ०0, एए़ऋणा, ? 335, ५७४० 349

कूृ0 र०0, पृ0 495

राघवन, श्रगार प्रकाशण पृ0 654

45830रा ए0ा, एएऋणा, 7 3]4, ५७४5० 6

[070, ? 327, ४७४5८ ]78-79

[90, ? 3200-22, ४८४56 ]!3-40

--- पृज्यदेव सचन्द्रा रोहिणी तथा

शख तोय समादाय-- चन्द्रायार्ध निवेदयेत

580रा ए0, हजहहणा, 323 ४८5८ 34-35 530रा ए0. हएहऋणा, 7 323, ५८०४० 4-44 ]99, ? 323, ४८४४९ 444

स0०0 सू0 सत्रहवा अध्याय

58307र., ए0, हऋऋणा, 324-27 ५७०४० 45-77 महाभारत, आदिपर्वण चौसठवा अध्याय, तीसरा 8 45330? ४०0, #(४५णशए, ?. 323, ५८४४८ 45 5802, ए0ा, हएएशएणा, 7 323-27, ५७४०, 45-77 स0 सू0, 47 / 20--242

स0 सू0, 47/434

48302. ४0, एऋरऋरशणा, 7 320, ५०७४० पा-2

87. १/४|[एणा749-३ ?. 286.

6530२. ५०. हएएऋएणश ? 3327-28, ४८४८ 80-84. 33072, ए0, हएएएऋणा, 7 329, ५०४० 9-98 [ 90, 7. 328, ५७४४८, 90

37_

9]

92 ]93 94 95 [96 97 98

99

200.

20] 202 203 204 2035 206 20/

208

स0 क0, पृ० 579, ति0 म0, पृ० 224० राघवनण श्रगार प्रकाश पृ0 657 ४80र प४्र०णा, ऋऋषणा, 7 329

3930रा ०४0, हजएऋण, ? 329

580रा ४0, जएऋण, 35

[७ ४७०0, जागगा, 7? 93

58०87, ४५७॥, ॥, ? ]77

राघवन, श्रगार प्रकाश, पृ० 658

580रा ४0, हजऋऋणा, 7 330, 7? 330 ५८४८ 204-5, 208-9 -“--- यन्द्रसूर्यग्रहोपमान्‌

कार्तिके सककते मासे प्रात

/55380रा पा, ऋण, ?ए 33], ७४० 25 राघवन, श्रगार प्रकाश पृ० 653,

#530र₹, ए0, हऋऋण, 33, ५८४० 26-7 530रा ४0ा, एऋणा, ? 332

9094, 332, ४०४४९ 225-26

06, ? 332, ४०४४८ 225-26

[ 906, ? ३33३3[]-32, ४८४८, 28-2]

[54 ए0, 7५/, 9 5]

#830रा ए0ा, ऋरऋणा, 7 333

[90, ? 332, ५४८४6 227-29

एकमेव कुसुमनियर शाल्मलीवृक्षमानित्यत्र मुनिमीलित काणिभि. लैलता कीडा कीडैक शाल्मली राधवन, श्रगार प्रकाश, पृ0 65॥

राघवन, श्रगार प्रकाश, पृ० 652

[38 ]

209

20

2] 22 23 24 2435 26 247/ 26

29 220 <2५2.0 222 223

224

गन्धोकवकपूर्ण वशनाडी नत्डगकादिभि चूना प्रियजनाभिषेक कदमेन कीडा उदकदवैदिया राघवन, श्रगार प्रकाश, 653

यत्र कस्ते प्रिय इति पृच्छदृभि पलाशा दिन वल तामि प्रियो जनो हयते सा चूतलतिका

राघवन, श्रगार प्रकाश, पृ० 653

राघवन, अश्रगार प्रकाश, पृ० 653

वही, पृ0, 654

वही, पृ0 654

राघवन, श्रगार प्रकाश, पृ० 655

वही, पृ० 655

ति0 म0, पृ० 45

राघवन, श्रगार प्रकाश, पृ0 655

वर्षासु कदम्बनी पर्धारद्रकादि कुसुमे प्रहरणभूते द्विधा बल विभज्य कामिना कीडा कद्म्बयुद्धानि राघवन, श्रगार प्रकाश, पृ० 656

राघवन, श्रगार प्रकाश, पृ0 656

राघवन, श्रगार प्रकाश, पृ० 657

वही, पृ0, 658

राघवन श्रगार प्रकाश, पृ0 659

ति0 म0, पृ० 448, 7458 ४०0, शा 7? 737

४30७, ४०07.. शा, ?. 32-33 छिल्ला989व7 शग्रातर।, 3 5

[ 39 ]

22)

226

227

2268

229

230

23.

232

233.

234

अति दानानि सर्वाणि पृथिवीदानमुच्यते

महाभारत, अनुशासन पर्व, 62 / 42

षष्ठिवर्ष सहप्राणि स्वर्गे तिष्ठति भूमिद

भूमि स॒प्रतिगृहणाति यश्च भूमि प्रयच्छति

उमौ तौ पुण्यकर्माणी स्थित स्वर्गगामिनौ

लि 0४0, [ह ?ए 47, 7058 ५४0, शा, ? 736,

[5 ०0, हुए, 252

विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य, राज्य की आय के साधन

दीयमान भाग भोगकर हिरण्यादिक माज्ञा---- समुपनैतव्य स---- सहिरण्यभागभोगकर सोपरिकर सर्वादायसमेत सनिधिनिदीप प्रदत्त /74 ४०0, शा, ? 48, 53

8] 0४0, जाज, 7 236, ४0, 5,7 03, ए0एा, हएणा, ? 320, ए0, जरा, 8, 7058 ४0, शा, ? 736

सुमुपगतान्समस्त राजपुरूषान्‌ ब्राहमणोतरान्‌ प्रतिनिवासि पट्टकिल जनपदार्दीश्च समादिलत्यस्तु सविदितम्‌

3७ ०0, ह़णु ? 254, ७0, हाएण, ? 60

सा ए0, जा, 7. 82, ए0, हजणा, ?ए 322, ए0, पा, ?ए 48 [पाए ४०, शा, ? 3

[0 ४0. णा, ? 305, छा, ए0., पा, ?ए 48

५0.5, 7? 03, 7

छा. ए0ा. हाफ, 236, ४०0 .. जा-? 8]

०0. पए, 48, ए0, हज॒णा 7? 320

[७ ए0ा, जाए? 60 ५४0, ण॒, ? 48, 7/858 ०0 ..णा, 736 छा. ए0ा. हा, ? 8[.

[५७. ०0. हजा५. ? 60

[40 ]

233

236 237 238 239 240 24 | 242 243 244

243.

246

247

248 249 2350 23] .0.2 2353

2354

सर्वादाय समेतश्च श्री अमरेश्वर पट्‌टशाला ब्राह्मणेभ्य भोजनादि निमित्तम

४0, पा ? 49

[॥#6 8060-२८॥९0प5 (:0ताणा 0] 093, ? 302, )४ 6 [ 96, 9 7

07२७७, 902-3, ? 256

ए0ा, हएए५, 7 37

[छ6, ए० जाफ,? 7]

[8 ५0, शा, ? 48

7458 ५०0, शा 737, 740$ ५0, शा, ? 32-33

[७ ५०0, जाए, 60, ०0, जाए, 7 353, 9 ७00 99, ? 324 ति0 म0, पृ0 448

“कोकणग्रहण विजय पर्वणी”

सर ए0ा, जा 82, ए0ा, हए॒णा, ? 323

“भाद्रपद शुक्ल चतुर्दस्या,'

[७ ५0, शा, 7? 5

“माधवसित तृतीयायाम्‌”

80 ५0. शा, ?. 53

सर ए0ा, (5, 7 09, 7058 ५०0, शा, 737-38

छा. ए0, 5.7? 22.

[७ ५०0. हाफ, 7 349, 353

[996, ४0, ह़णशा, ? 30

जा ए0ा.5, ए, 402 7.

[७ 0७0. हजएणा, 7. 252, ए/0ा, श, 9? 5, छा ०0. जा, ? 82, 04$8. ए0.. शा, 7? 736

5230०780, ५४५7, त, ?. ]47

[4 ]

2353

256

257 258 259 260

26] 262 203

तैल पाणक हय वागकष्ट्टाश्चतुर्दश हया ऐव शात्र चतुर्दश ददाति हा 0४0, जाए ? 73 तैलिकान्वय पट्टकिल चाहिलसुत पट्टाविलजनकेन श्री सैन्धवदेव पर्वनिमित दीपतैल चतु पल मेक--- कीत्वा 85$58 ५०0, > 7? 242 [5 ०0. जाप, 79 ला ए0, जाए, 7? 302-3 307 (022 ४07..], ?०४॥ 7, ? 472 प्रतिप्रभात दत्तैग्रमिपदै स्वयम्‌ अनेकवदता निन्‍ये धर्मों येनेकपार्दाभ 8 ४0, [5, 7? 2], 7७058 ०४0, शा, ? 25 छा. ए0ा, जाए, 7 236, ५0, 7, ? 32 एटांथशडणा5 77790 ९९०07, ?. 9 रेउ, राजाभोज, पृ0 96 छा

[ 42 ]

दर

जै+ >> जैज जै॥ 3 जे चजै#- जैऔ जे॥+ जै+ ै#- -ै४० -ै४- ै#- 0

के 0०0७७-५७-७०-५०-५७-७०-५०--०७०७-५०-१५०-०१--५“ जे खीर रत +जपत “तिल “हल “करत “कील “और “कील “कील “रत “तल “कील

जे जै#- जैऔ+ जे जैऔ- जै#- जै#+ +जै#- +जै#- जैऔ- जै#- +जै#- जै#- +जैऑ -जै#- जै#- +जैऔ जे +जैऔत

शिक्षा साहित्य एवं कला

शिक्षा और साहित्य के विकास की दृष्टि से परमार काल अपने पूर्ववर्ती और परवर्ती राजवशो मे विशिष्ट स्थान रखता है। परमार राजवश के शिक्षा और साहित्य के बारे मे तत्कालीन अभिलेखो से ज्ञान प्राप्त होता है। परमार शासक स्वय तो विद्या और साहित्य अनुरागी तो थे ही उन्होने विद्वानों को पर्याप्त सरक्षण भी प्रदान किया। परमार भोज की मृत्यु पर एक समकालीन कवि ने यह कहा कि “आज भोजराज के दिवगत हो जाने पर धारा (नगरी) निराधार हो गयी है, सरस्वती निरालम्ब हो गयी है और सभी पण्डित (अपने आश्रय से) टूट गये है।”

“अद्य धारा निराधार निरालम्बा सरस्वती | पण्डिता खण्डिता सर्वे भोजरात दिवगते ||

परमार भोज की बहुमुखी प्रतिभा और उसके अधीन मालवा की बहुश्रुति (ख्याति) ध्यान मे रखते हुए गयारवी शताब्दी का प्रथमार्द्ध भारतीय इतिहास मे भोज का युग कहा जा सकता है।'

वास्तव मे परमार नरेशो के विद्या और साहित्य के प्रति लगाव का परिचय उनके अभिलेख लेखन शैली से ही प्राप्त होने लगता है। परमार अभिलेखो का आरम्भ उनके ईष्ट अराध्य की वन्दना से होता है। महान भोज एक सहिष्णु शासक थे उन्होने व्यक्तिगत रूप से शैव हाते हुए अन्य सभी धर्मो के प्रति अनुराग प्रदर्शित किया। भोज परमार के अभिलेख जयति व्योम केशा' या ओओ नम समरारति' के उदबोधन से आरम्भ होते है जो भगवान शिव के प्रति उनके समर्पण एव निष्ठा के द्योतक है-

[ 43 |

(।।) जयति व्योमकेशासो सर्ग्गाय वि(वि) भर्ति ता (ताप)। एदवी सि (शि) रसा लेखा जगही (ही) जाकुराकृति (तिम) |।। (4।॥)

तन्वतु स्मराराते कल्याण मनिस (श) जरा | कल्पान्त समयोद्यामत डिट्दलयपिगला ।। (2।॥)

परम भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री सीयकदेवपादानुध्यात्‌ परम भट्टारक महाराजधिराज

परमेश्वर श्री वाक्पतिराजदेव पदानुध्यात्‌ परमभट॒टारक महाराजधिराज परमेश्वर श्री सिन्धुराज देव पादानुध्यात्‌ परमभट््‌टारक महाराजधिराज परमेश्वर श्री भोजदेव

2५ 2५

रु भगवन्त भवानीपति समभ्यच्चर्य ससारस्यासारतादृष्टवा (वा) (।॥) वाताभ्रविभ्रममिद वसुधधिपत्य

मापातमात्रमधुरी विषयोपभोग | प्राणास्तुणाग्रजलवि बि दुसमा नराणा धर्म्म सखा परमहोपरलोकयाने भ्रमत्ससार (चक्रागधाराधारमिमा श्रिय (यम) प्राप्य ये ददुस्तेषा पश्चात्ताप पर फलामि |

>< हु हु स्वहस्तोय श्रीभोजदेवस्य (॥*

उपरोक्त अभिलेख भोदजेव का देपालपुर ताम्रपत्र है। जिसमे

सबसे पहले परमार भोज के अराध्य देव शिव की अर्चना आरम्भ की दोनो पक्तियो मे की गयी है। पुन महान भोज के पूर्वजों श्री सीयक देव श्री वाक्पति राजदेव श्री सिन्धुराज के प्रति सम्मान प्रकट करने के बाद भोजदेव का नाम

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आया है। अभिलेख की नवी दशवी पक्तियों मे भूमिदान का उल्लेख है जो दानग्रहीता के जीवित रहने तक का है। अत मे भोजदेव का नाम उर्त्कीण है जो यह सिद्ध करने के लिए है कि अभिलेख के अत मे अभिलेख उर्त्कीण कराने वाले राजा का नाम होना चाहिए |

इसी तरह झालरापाटन का जगद्‌ देव का अभिलेख नम शिवाय की स्तुति से और डोगरगाव प्रशस्ति भी नम शिवाय से आरम्भ होता है।

जैनद पाषाण प्रशस्ति जो कि जगददेव के समय का है "ओ नम सूर्याय' की स्तुति से आरम्भ होता है|

उपरोक्त सभी अभिलेखो मे अभिलेख लेखन की मान्य परम्पराओ का पालन-पहले मगलाचरण फिर परिचय प्रकाशन विषय तिथि और अत मे उपसहार और उर्त्कीण कराने वाले का नाम उ््कीण रहता था किया गया है।

इसी तरह भोजदेव के कल्वन ताम्र लेख में - सूर्यग्रहणे सागरतरग चचल जीवलोकच्छा यासमा लक्ष्मी उत्कीर्ण हे जिससे यह स्पष्ट होता है कि उक्त अभिलेख सूर्यग्रहण की तिथि का उत्कीर्ण हुआ |

नरवर्मन उदयादित्य अर्नुनवर्मम और स्वय भोज आदि सिर्फ विद्वानो के समादरकर्त्ता थे अपितु स्वय की उच्चकोटि के विद्वान थे- महानभोज ने साहित्य की सभी विधाओ मे लेखन कार्य किया जिनमे प्रमुख है।

(() व्याकरण और अलकार शास्त्र-सरस्वती कंठाभरण श्रुगार प्रकाश और प्राकृतव्याकरण

(2) योगशास्त्र - पातजलयोग सूत्रवृत्ति (राजमार्तण्ड)

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(3) काव्य और नाटक-कूर्मशतक चम्पूरामायण (भोजचम्पू) और श्रुगारमजरी (4). शिल्प शास्त्र - समरागणसूत्रधार और कृत्यकल्पतरु (5) शैवागम-तत्वप्रकाश 6) ज्योतिष और वैधक - भुजबलनिबध राजमृगाक (70 कोश- नाममालिका और शब्दानुशासन |

अनेक युद्धों के विजेता और समसामयिक राजनीति में सतत रुचि लेने वाले महाराजधघिराज कविराज शिष्ट शिरोमणि धारेश्वर श्री भोजदेव की उपरोक्त साहित्यक कृतिया उसकी असीम शारीरिक और बौद्धिक शक्ति की और

वशजो ने शिक्षा और साहित्य के विकास का जो प्रकाशपुज प्रज्वलित किया वह आज तक मानव सभ्यता एवं साहित्य को प्रज्जवलित कर रहा है।

सामान्यत अभिलेखो की रचना विजयो दानो उत्सवो एव अवसर विशेष पर ही की जाती थी इसलिए ततकालीन शिक्षा और साहित्य पर अभिलेखो मे विस्तृत वर्णन प्राय नही मिलता है परन्तु तत्कालीन साहित्यिक साक्ष्यों के परवर्ती साहित्यिक साक्ष्यो के समर्थन से परमारकालीन शिक्षा और साहित्य के चतुर्दिक विकास की पुष्टि होती है।

प्रशस्ति एवं अभिलेख रचनायें:- शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में शिलालेख एव ताम्रपत्रो का भी

कुछ कम महत्व नही है। विषयगत दृष्टि से ऐतिहासिक परिचय प्राप्त करने के लिए इनका विशेष महत्व है। सुविधानुसार ये भिन्‍न-भिन्‍न भाषाओ और

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भिन्‍न-भिनन विधियो से उत्कीर्ण करवाये जाते थे। सामान्य विशेषताए निम्नलिखित है--

मगलाचरण --

प्राय प्रत्येक अभिलेख के प्रारम्भ में अपने सम्प्रदाय के अनुसार अपने इष्टदेव की स्मरण से सम्बन्धित मगलाचरण का प्रयोग किया जाता था। ये मगलाचरण कही छन्‍्दोबद्ध और कही गद्यमय रचना के रूप मे उद्धृत किये जाते थे। कही-कही इन मगलाचरणो के अनेक श्लोक मिलते है ।*

परिचय --

मगलाचरण के बाद शिलालेख लिखाने वाले राजा के पूर्वपुरूषो के सक्षिप्त परिचय के साथ प्रकाशक का निजी परिचय दिया जाता था। राजाओ के पारस्परिक सम्बन्धो के परिचय के लिए अनुध्यात, या पदानुध्यात पद के प्रयोगो का बाहुलल्‍य रहता था।*

प्रकाशन विषय:--

अभिलेखो के लिखाने का उद्देश्य मुख्य रूप से शिलालेखो के मध्य भाग मे रहता था। ये उद्देश्य कई प्रकार के होते थे। यथा विजयो के उल्लेख, दान सम्बन्धी विवरण एव श्राद्ध आदि सामाजिक अवसरो का ज्ञापन

उपसहार.--

प्राय प्रत्येक प्रशस्ति के अत मे कुछ सामान्य बाते होती थी। अधिकांशत अभिलेखों मे जीवन के प्रति दार्शनिक विचार उपलब्ध होते है। जीवन को जलबिन्दुवत क्षणिक माना जाता था।* दान के सम्बन्ध में यह विश्वास

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था कि भूमिदान करने वाला व्यक्ति मृत्युपरान्त स्वर्ग प्राप्त करता है तथा दान दी हुई वस्तु का हरण करने वाला नर्कवास या उसी प्रकार की अन्य अधोगति प्राप्त करता है।' इस सदर्भ मे यह भी ज्ञातव्य है कि अभिलेखो मे कथनो की पुष्टि के लिए पूववर्ती अभिलेखो मे सन्निहित श्लोक एव अन्य विवरण लिखवाये जाते थे। अभिलेखो के इस प्रकार के अश कुछ तो उनकी रचना करने वालो द्वारा निर्मित होते थे” और कुछ शास्त्रीय ग्रन्थो से उद्दत होते थे। इसी कारण तत्कालीन अभिलेखो में पुररूक्तिया बहुश मिलती है। कही-कही तो ऐसा प्रतीत होने लगता है कि उपस्थित लेख-पूर्वपठित शिलालेख का अनुलेख मात्र है। इस प्रकार के अभिलेखो मे अभिलेखकर्त्ता के नाम आदि का भिन्‍नता मात्र के अलावा कोई नवीन बात नही मिलती ।”

- शिक्षा

शिक्षा का अर्थ एवं उद्देश्य -

मानव का सर्वागीण विकास शिक्षा के बिना सभव नही है। इसके द्वारा विकसित बुद्धि ही पशु और मनुष्य के अतर का स्पष्ट करती है। परमार वशीय शासको के युग तक भारतीय शिक्षण पद्धति का सम्यक विकास हो चुका

था।

भारतीय साहित्य मे सर्वप्रथम “शिक्षा” शब्द ऋग्वेद मे आया है।” राहुल सास्कृत्यायन के अनुसार उक्त स्थल मे प्रयुक्त शिक्षा का अर्थ “देना” है।* अन्यत्र शिक्षाका अर्थ है विद्या प्राप्ति के लिए गुरू के निकट जाना।” यही व्यवहार मे भी प्रचलित है।

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जहाँ तक भारतीय विचारको का मत है धर्म अर्थ काम और मोक्ष चारो पुरूषार्थों की प्राप्ति ही शिक्षा का उद्देश्य है। यह उददेश्य शिक्षा को धर्म के साथ जोड़ता है। धर्मविहीन शिक्षा विषतुल्य समझी जाती है। भोज प्रबन्ध” मे कहा गया है कि जो मनुष्य धर्म से विमुख है वह बलवान होते हुए असमर्थ, शास्त्रज्ञ होते हुए मूर्ख और धनवान होते हुए भी निर्धन है। ऐसा प्रतीत होता है कि परमारकाल के पूर्व शिक्षा का जो अर्थ एव उद्देश्य स्थिर हो चुका था। वही इस युग मे भी मान्य है।

प्रारम्भिक एवं उच्च शिक्षा -

साधारणतया वर्ष की अवस्था से बालको की शिक्षा आरम्भ की जाती थी।* प्रारम्भिक शिक्षा मे अक्षरज्ञान आदि कराया जाता था। छात्र के पूर्ण व्युत्पन्न हो जाने पर विद्या विशेष आदि का आरम्भ होता था। विद्यारम्भ सस्कार के विषय मे शुभ समय का विशेष रूप से ध्यान दिया जाता था। आद्रा, श्रवण, स्वाती, चित्रा, हस्त, भूल, पूर्वात्रय, रेवती, अश्लेषा पुनर्वसु, मृगशिरा, घनिष्ठा और अश्विनी नक्षत्रो एव बुध गुरु और शुक्रवार के दिन विद्यारम्भ करवाया जाता था।” अध्ययन आरम्भ करने के पूर्व विद्यार्थी हरि, लक्ष्मी, सरस्वती आदि देवी, देवताओ की स्तुति करके अपना अध्ययन कार्य आरम्भ करते थे।”

उच्च शिक्षा का पर्याप्त प्रचार था। किन्तु यह बताना सभव नही है कि साधारण लोग शिक्षा से कितना लाभ उठाते थे एव देश में कितने प्रतिशत लोग उच्च शिक्षा प्राप्त करते थे। परमारो के समय शिक्षा के लिए बड़े-बड़े स्कूल, पाठशालाओ की व्यवस्था थी।” प्रारम्भिक शिक्षा सम्भवत अक्षरज्ञान से प्रारम्भ होकर विद्याविशेष प्राप्त करने के अधिकारी बनने तक होती थी और उच्च शिक्षा अध्ययन विशेष नीतिशास्त्र धर्मशास्त्र आदि की होती थी।

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शिक्षा के विषय -

भारत एक धर्म प्रधान देश रहा है। समाज की धार्मिक आस्था का प्रभाव पाठ्यक्रम पर भी पडता है। प्रारम्भिक शिक्षा के समाप्त हो जाने के बाद विद्यार्थी विशेष शिक्षाओ को प्राप्त होने मे प्रवृत्त होते थे। विशेष शिक्षा का पाठ्यक्रम निम्नलिखित होता था

वेद - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद | वेदाग- शिक्षा, कलप, व्याकरण, निरुकक्‍त, छन्‍्द, ज्योतिष,

शास्त्र - न्याय (तर्कशास्त्र आदि), वैशेषिक, साख्य, योग, मीमासा, वेदान्त (उपनिषद आदि)

पुराण-- भागवत अदि |

साहित्य-- रस, अलकार, दृश्यकाव्य, नाटक, प्रबन्ध, उपन्यास, आख्यायिका आदि

अन्य-इतिहास, भूगोल, चित्रकला, वीणावादन,” कामशास्त्र,” शिल्पशास्त्र, रसायन विज्ञान, औषधि विज्ञान, खगोल विद्या आदि।”

शास्त्र विद्या- धनर्वाण, खड्ग, कुन्त, गन्दा, चक्र, शूल, कृपाण आदि युद्ध सम्बन्धी अन्य शस्त्रकलाये।”

उपर्युक्त पाठयक्रम मे वेद की शिक्षा ब्राहमणवर्ग के लिए अनिवार्य होती थी।” इसे कुछ लोग अर्थ सहित कठस्थ करते थे और कुछ लोग अर्थरहित। इसका पठन-पाठन एक दूसरे से सुनकर चलता था।” यह परम्परा इस समय के लिए नवीन नही थी बल्कि वैदिक काल से चली रही थी।

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इसी से इसे श्रुति भी कहा जाता है। अलबरुनी” के अनुसार ब्राह्मण और क्षत्रिय ही वेदाध्ययन के अधिकारी होते थे। किन्तु जहा तक धर्मशास्त्र का सम्बन्ध है वैश्य भी इसका अधिकारी माना जाता है। सभव है उस समय वैश्य वर्ग मे इस विषय की शिक्षा दीक्षा नगण्य हो गयी हो। यह तो स्थिर है। जैसा कि अलबरुनी ने भी कहा है कि शूद्र को वेदाध्ययन करना तो दूर रहा, वह उसके श्रवण का भी अधिकारी नही ता था।

धर्मशास्त्र नीतिशास्त्र, और शस्त्रविद्या की शिक्षा क्षत्रियवर्ग विशेषत युवराजो को दी जाती थी।” इसके अतिरिक्त अन्य विषयो मे भी इनका प्रवेश कराया जाता था।

अन्याय विषयो मे लोग अपनी अभिरुचि या पेशा के अनुसार प्रवृत्त होते थे। वाक्पति राजमुज के समय बसताचार्य एक महान दार्शनिक था। भोज स्वय ज्योतिष, खगोलशास्त्र, शिल्प, साहित्य आदि विषयो मे अनेक ग्रन्थों की रचना की थी।” उसने कहा है कि नीतिहीन शासको की सुख-सम्पत्ति शीघ्र ही नष्ट हो जाती है।*

क- साहित्य

काव्य रचना+--

शिक्षण पद्धति के समुचित विकास पर ही साहित्य का विकास निर्भर करता है। परमारो ने शिक्षा के विकास के लिए पर्याप्त प्रयास किया। अभिरुचि प्राय. समान रूप से साहित्य की ओर उनन्‍्मुख थी। जिसका परिचय भोज आदि परमार वशी राजाओ की कतियो से प्राप्त होता है। दोषरहित, गुणवान, अलकार सहित, रसयुक्‍त, काव्य कवि की कीर्ति एव प्रतिष्ठा को बढाता

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है। इस तथ्य के परिप्रेक्षष मे इस समय साहित्य रचना के सम्बन्ध मे निम्नलिखित प्रकार के विविध विचार किये जाते थे

दोष विचार- भोज के अनुसार निर्दोष काव्य निर्माण के लिए सोलह दोषो को ध्यान में रखना आवश्यक होता था। वे थे- असाधु, अप्रयुक्त, कष्ट, अनर्थक, अत्यधिक, अपुष्टार्थ, असमर्थ, अप्रतीत, क्लिष्ट, गूढ, नैयार्थ, सदिग्ध, विरूद्ध अप्रयोजक, वैश्य तथा ग्राम्य | पदवाक्य तथा वाक्यार्थ मे होने वाले दोषो पर ध्यान देने वाला कवि ही दोषरहित काव्य की रचना कर सकता है।” इस प्रकार काव्य रचना सम्बन्धी दोष विचार साहित्य रूप की पवित्रता के लिए आवश्यक समझा जाता था

गुण विचार:- काव्य रचना के दूसरी ध्यान देने योग्य वस्तु गुण है। ये वाहय अभ्यतर और वैशेषिक भेद से तीन प्रकार के होते थे।” वाहयगुण का सम्बन्ध शब्द से आभ्यतर अर्थ से और वैशेषिक गुण का दोष युक्त रहने पर भी गुणयुक्त बनाने वाला होता है। इन गुणो की सख्या चौबीस थी।*

अलंकार विचार- साहित्य रचना का तीसरा तत्व अलकार है। अलकर की अर्थ होता है आभूषण। आभूषण के बिना जिस प्रकार सुन्दरी युवती का सौन्दर्य भी दर्शकों का दृश्य आकृष्ट करने मे असमर्थ रहता है उसी प्रकार अलकार के बिना काव्य चमत्कृति नगण्य सी रहती है। इस क्षेत्र मे राजा भोज की एक विशेष देन थी। जिसका हम अवलोकन करेगे |

अलकार के तीन भेद माने जाते है। शब्द से सम्बन्ध रखने वाला अलकार शब्दालंकार, अर्थ से सम्बन्ध रखने वाले अलकार अर्थालकार तथा दोनो से सम्बन्ध रखने वाले अलकार उभयालकार कहलाते है।

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अ- शब्दालंकार:- भोज के अनुसार शब्दालंकारों की संख्या चौबीस होती है।* जाति, गति, रीति, वृत्ति, छाया, उक्ति, मुक्ति, गणित, गुम्फना, शय्या, पठिति, यमक, श्लेष, अनुप्रास, चित्र, वाकोतार्थ, पहेली (प्रहेलिका) गूढ़। प्रश्नोत्तर, आध्येय, श्रृव्य, प्रेक््य तथा अभिनीत। इन चौबीस अलंकारों में श्लेष, यमक अनुप्रास और चित्र इन चार शब्दालंकारों से तो हम भलीभांति परिचित है परन्तु इनक अतिरिक्त हम रीति, वृत्ति आदि भी शब्दालंकार की श्रेणी में आते है।”

शब्दालंकार में मुख्य अलंकार ज्ञातव्य की दृष्टि से निम्नलिखित माने जाते थे।

चित्रालंकार:- चित्र का अर्थ होता है आश्चर्यकारक वर्ण, स्थान, स्वर, आकार,

गति और बन्ध आदि इनके छः भेद होते थे।

(क) वर्ण चित्रालंकार:- इसमें व्यंजन सम्बन्धी अलंकार को वर्ण चित्रालंकार कहते हैं। चार, तीन दो और एक व्यंजनों से बने हुए श्लोक होते थे।' हस्व एवं दीर्घ स्वरों आदि की रचनाएं होती थीं।“

।. चार व्यजनों वाला श्लोक

जजौजोजाजिजिज्जाजी तं ततो$तिततातितुत |

भा भौ भी भा भिममामूरारा रि रि रो रः |।360| | तीन व्यंजनों वाला श्लोक-

देवानां नन्‍्दनो देवों नोदनो वेदनिन्दिनाम्‌ |

दियं दुदाव नादेन दाने दानव नन्दिन: ||364 ||

|. [53]

दो व्यजनो वाला श्लोक- भूरिभिर्भारिमिर्भरीर्भुभारैरभिरैभिरे | मेरीरेभिभर भ्राभेरभी रुभिरिमौरिमा |।|362 || एक व्यजनो वाला श्लोक- नोननुन्नो नुन्नोनो ना नाइनानानना ननु। नुन्‍्नो नुन्‍नो ननुन्नेनो नाइनेनानुन्न नुन्न ननुन्‌ ||363 || - स0 क0, परि0 2, पृ0 275--76 2 हस्व स्वर वाला श्लोक- ऊरुगु घुगुरू यूत्‌मु चुकूशुस्तुष्टुदु उझू। लुलुमु पुपुषुर्मुत्सु मुमुहुर्तु मुहुर्मुहु 37 |। दीर्घ स्वर वाला श्लोक- वैधेरे नै रै शै रैन्द्रै रे जे रे ले जैने से द्वै।। मै त्रे नै कै धेयय वै रै दै स्वै स्वैरैदैवैस्तैस्ते | |378 |। स0 क0, परि0 2, पृ० 280--8॥

ख- बन्ध चित्रालंकार:- चित्रालकारो मे वर्ण चित्रालकार के बाद महत्व की दृष्टि से बन्चचित्रालकार विचारणीय है। इसके अनेक भेद होते थे। जैसे-अष्टवलकमलबन्ध, चतुषपत्र कमलबन्ध, पोडसपत्रकमलबच्ध,

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ग--

पेडचक्रकमलबन्ध, तुरगपदबन्ध, द्विचतुषचक्रबन्ध, श्रुगारकबन्ध, विविडित चक्रबन्ध, शरयन्धबन्ध, व्योमबन्ध, मुखबध, एकाक्षरमुरजबन्ध, मुरजप्रस्तारबन्ध, पादनोमूत्रिका बन्ध, आदि |

प्रहेली रचना .- प्रहेली रचनाओ का भी कम महत्व नही था। इसके यह भेद माने जाते थे। च्युताक्षरा, दत्ताक्षरा, अक्षरमुष्ठी, बिन्दुमती और अर्थपहेली। एक या दो अक्षर रहित पदों का कथन मे प्रयोग करना च्युताक्षरा पहेली कहा जाता है। वाक्य प्रयोग मे एक या दो अक्षर जोड देने से उसे दत्ताक्षाा पहेली कहा जाता है। जिस पहेली मे कही वर्ण कम दिये जाय और कही बढा दिये जाय तो वह च्युतदत्ताक्षरा पहेली हो जाती थी। एक प्रकार से अक्षरों के समूह का जिस वाक्य मे बार-बार प्रयोग होता है उसे अक्षरयुष्टि पहेली कहते है। सामान्य भाषा में पहेली बुऔवल के कहा जाता है। उस समय रचना मे शब्दों की योजना कुछ ऐसे तोड मरोड के साथ रखने की विधि भी प्रचलित थी जैसे किसी शब्द से एक अक्षर कम कर दिया, किसी मे एक अक्षर कम कर दिया, किसी मे एक अक्षर बढा दिया। कही-कही तो ऐसे विचित्र शब्दो का विन्यास मिलता है जिनमे से एक-एक वर्णों को हटा कर उनके स्थानों पर नये वर्णों का प्रयोग कर दिया गया है। परन्तु फिर भी अर्थाबोध मे कोई त्रुटि दिखाई नही देती।”

उस समय बिन्दुगत श्लोको की भी रचनाये होती थी। जिस रचना मे व्यजन या स्वर वर्णों के स्थान मे बिन्दु का प्रयोग होता है और यात्राये ज्यो की त्यो रहती है उसे बिन्दुमती रचना कहते है। जैसे-

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00" 000 000 000 00

900 वा00 0 6 060 00 0ीर्वव ||

अर्थालकार- विशुद्ध रूप से अर्थालकार याने जाने वाले अर्थालकारो की सख्या चौबीस है। जाति (स्वभावोक्ति) विभावना, हेतु अहेतु, सूक्ष्म, उकर, विरोध, सम्भव, अन्योन्य, परिवृत्ति, निदर्शना, भेद, समाहित, श्रान्ति, वितक, मीलित, स्मृति, भाव, प्रत्यक्ष, अनुमान, आप्तववचन (आगम) उपमान, अर्थापत्ति और अभाव|* इन अलकारो के लक्षण अधिकाशत दडी के लक्षणे की भाति ही है। भोज ने आवश्यकतानुसार केवल सूक्ष्य परिवर्तन करके अच्छे लक्षणों को उद्धत किया है। उक्त सूची मे कुछ नाम नये प्रतीत होते है परन्तु वस्तुत वे प्राचीन अलकारो के नवीन नामकरण मात्र

है। भोज के अर्थालकारो के विषय मे कुछ प्रमुख बाते इस प्रकार है-

(4)

(2)

भोज ने रुद्रट के करणमाला को अपने अहेतु नामक अलकार मे अतर्भूत कर लिया है।

भोज ने दृष्टान्त नामक कोई अलकार नही माना है। बल्कि निदर्शना को ही दृष्टान्त की भाति ग्रहण किया है।

व्यातिरेक को इन्होने भेद के नाम से अभिहित किया है।

भ्राति मे इन्होने इसके समस्त भेदो-श्रान्ति, श्रान्तिमान, भ्रान्तिमाला, भ्रान्त्यातिशय और श्रान्त्याव्यवसाय को अन्त्यर्भूत कर दिया है। वितर्क, संशय, या सदेह का ही दूसरा नाम है।

मिलित के अतर्गत इन्होने विहित, अविहित, तवगुण और अदतगुण-इन चारो को माना है।

[56 |

(8) अभिनय, आलेख्य, मुद्रा और प्रतिबिम्ब नामक अलकार चतुष्टय भोज के उपमान के अतर्गत आते है।

(9) रूद्रट के उत्तर एव सार नामक अलकारो को भोज ने एक करके ------ नाम से सम्बोधित किया है।

स- उभयालकार - अलकार शात्त्र मे अर्थालकार समझे जाने वाले प्राय सभी अलकारो को भोज ने उभयालकार की कोटि मे परिणित किया है। उनकी भी सख्या 24 होती थी। उपमा, रूपक, साम्य, सशयोकक्‍्ति, अपहनुति, समाच्युक्ति, समासोक्ति, उत्प्रेक्षा, अप्रस्तुतस्तुति, तुल्ययोगिता, उल्लेख, सहोक्ति, समुच्चय, आक्षेप, अर्थान्तन्यास, विशेष, परिष्कृति (परिकर) दोपक, द्रम, पर्याय, अतिशय, श्लेष, भाविक और ससृष्टि [” अन्यत्र भोज ने शब्दालकार को वाहय, अर्थालकार को आभ्यन्तर और उभयालकार को वाहयअभ्यन्तर कहा है।”

रस विचार +-

काव्य रचना का चौथा तत्व रस है। जिसे कुछ लोगो ने काव्य की आत्मा माना है। अभिमान, अहकार तथा श्रुगार रस के पर्यायवाचक शब्द माने जाते थे।” भाव, जन्मानुबन्ध आदि रस की चौबीस आश्रयभूत विभूतियाँ मानी जाती थी।*

रस के विवेचन सम्बन्धी भोज का सिद्धान्त सर्वाधिक नवीन है तथा पूर्वाचायो से पृथक सिद्धान्तो पर अवलम्ति है। यद्यपि यह सही है कि अलकारशास्त्र सम्बन्धी सिद्धान्तो, नियमो या लक्षणो का निर्धारण करने मे भोज ने साधारणत. मम्मट एव दण्डी के मार्गों का अनुसरण किया है। परन्तु उनके रस सिद्धान्त मे उक्त आचार्यद्रय के सिद्धान्तो की अपेक्षा कुछ परिमार्जित प्रगति

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परिलक्षित होती है। भोज ने प्रसिद्ध नौ रसो के अतिरिक्त अनेक अज्ञात रसो का भी उल्लेख किया है जैसे- वीर, औद्वत्य, साध्वल आदि |” इन रसो मे से रीति, अभर्ष, विषाद एव जुमगुप्सा के द्वारा सम्भवत इन्होने श्रगार, रौद्र, करुण तथा वीभत्स की सूचना देनी चाही है परन्तु अन्य रसो की गणना राजा भोज की सर्वथा नई सूझ की परिचायिका है।

साहित्य के शब्द विन्यास पर भी विशेष ध्यान दिया जाता था। वर्णों की रक्षा के लिए उदयादित्य और नववर्मन ने तो स्वय घोषणा ही कर दिया था| धनपाल ने अठारह प्रकार के अक्षरों का विन्यास करने का सकेत किया है।*

लिखित अक्षरों को सुखाने के लिए सनहले रग का चूर्ण पदार्थ छिडका जाता था। उससे लेख सुन्दर दिखाई पडते थे।” ग्रन्थो के आरम्भ मे मगला चरण लिखने की प्रथा उस समय भी प्रचलित थी | चित्रपट द्वारा शिक्षा देने की विशेष प्रथा का उल्लेख मिलता है। धारा नगरी स्थित शारदा सदन (आधुनिक कमालभौल मस्जिद) की दीवारो पर दो रेखाचित्र उत्कीर्ण है जिनमे व्याकरण के साधारण नियमो का उल्लेख किया गया है।” प्रथम चित्र मे नागरी के सस्कृत वर्णक्षर तथा व्याकरण के सिद्धान्त उत्कीर्ण है। सम्भवत ये दोनो चित्र विद्यार्थियो के निर्देशन के लिए बनाये गये थे। इसी प्रकार का एक रेखाचित्र उज्जैन के महाकाल मदिर मे भी उत्कीर्ण पाया गया है।*

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शिक्षण संस्थायें

प्रारम्भिक काल मे परिवार ही शिक्षा के केन्द्र होते थे जहॉ बालकों को हर प्रकार की शिक्षा दी जाती थी। धीरे-धीरे समाज की प्रगति के साथ-साथ शिक्षा का क्षेत्र बडने लगा। और उसमे दुरुहता और विविधता का समावेश हुआ। परिणाम स्वरूप इसके लिए अलग सस्थाओ का निर्माण होने लगा।

महान विद्यानुरागी राजा भोज ने धारा नगरी मे सस्कृत के पठन-पाठन के लिए भोजशाला नामक एक विशाल शिक्षण सस्था का निर्माण कराया था। उसे शारदा सदन के नाम से भी सबोधित किया जाता था।” आजकल इसके स्थान पर कमालमौल मस्जिद विद्यमान है। भोज के समय इस सस्था को शिक्षा का सबसे बडा केन्द्र होने का गौरव प्राप्त था। जहाँ दूर-दूर से विद्यार्थी अपनी बौद्धिक पिपासा शान्त करने के लिए किये जाते थे। इसमे बडे-बडे विद्वान अध्ययन कार्य के लिए नियुक्त थे।*

इसी विद्यालय के समीप एक कुआ था जो सरस्वती कूप के नाम से विख्यात था। लोगो की ऐसी धारण थी कि जो व्यक्ति इस कुए का जल पी ले उस पर सरस्वती की कृपा हो जायेगी।*

मदिरो एव शैवाचार्य तथा जैन मठो मे भी शिक्षण कार्य होता था। उदयपुर के नीलकठेश्वर मदिर की दालान मे विद्यार्थियों को वेदाध्ययन कराने का उल्लेख मिलता है।* इसी प्रकार धारा नगरी के पार्श्वनाथ के जिन बिहार और उज्जैव के शैवमठ इस सदर्भ मे उल्लेखनीय है।” आबू मे भी सस्कृत शिक्षा का एक केन्द्र था जहा भारत के विभिन्‍न कोनो से लोग शिक्षा ग्रहण करने के

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लिए जाते थे।* जालौर मे कुमार विहार नामक सस्था जैन साहित्य के शिक्षण का मुख्य केन्द्र थी ।* ;

शिक्षण कार्य विद्यालयो के अतिरिक्त व्याख्यान मडलियो अथवा व्याख्यानशालाओ से भी होता था।” कहदी-कही सभाओ मे भी लोग काव्य के गुण दोष पर विचार करते थे [*

शिक्षण सस्थाओ का आकर्षण एव उपादेयता बढाने के लिए उनकी दीवारों पर शिक्षाप्रद एव व्यवहारोपयोगी श्लोक सूक्तिया और भिन्‍न-भिनन रचनाए उत्कीर्ण करायी जाती थी। भोजशाला की दीवारो के पत्थरों पर भोज द्वारा रचित कूर्मशतक, नामक दो खण्डो वाले प्राकृत काव्य और भर्तहरि की कारिका जैसे अन्य कई ग्रन्थ उत्कीर्ण थे।” उदयदित्य, नरवर्मन, अर्जुनवर्मन, आदि नरेशों ने उस पर शिलालेख उत्कीर्ण कराये थे। रेउ महोदय ने इस पाठशाला मे श्याम पत्थर की बडी-बडी शिलाओ पर करीब चार-चार श्लोको के समूह खुदवाये जाने का अनुमान किया है।” नरवर्मन ने इस पाठशाला के स्तम्भो पर अपने पूर्वज उदयादित्य के बनाये वर्ण, नाम और धातुओ के प्रत्ययो के नाम बन्धचित्र खुदवाया था।” अर्जुन वर्मन ने अपने गुरु मदन की बनायी पारिजात मजरी नाटिका शिलाओं पर खुदवायी थी। उस नाटिका में से दो अक प्राप्त भी है।'

स्‍त्री शिक्षा :-

भारतीय शिक्षा का इतिहास स्त्री शिक्षा के अध्ययन के बिना पूर्ण नही होता। तत्कालीन स्त्री शिक्षा के दो प्रकार मिलते है। गृह स्थसत्‌ परिवारों की कुल वधुओ के लिए उपयुक्त शिक्षा, तथा गणिकाओ का उनके योग्य शिक्षा

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सामान्य सतपरिवार की स्त्रियो की व्यक्तिगत प्रतिभा तथा योग्यता के आधार पर उच्च शिक्षा के अध्ययन का अवसर प्राप्त होता था। यद्यपि स्त्रियो के लिए कोई निश्चित पाठ्यक्रम नहीं निर्धारित था, परन्तु तत्कालीन साहित्यिक ग्रन्थों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि वे वेद, उपनिषद, नाटयवेद, गाच्धर्ववेद, गीतवाय, व्याकरण,” भाषाविज्ञान, साहित्य, कामसूत्र, राजनीति, शिल्पशास्त्र, गणित, छनन्‍्द,* आदि विविध विषयो की शिक्षाए प्राप्त करती थी। भोज के समय की कवियित्रि सीता महती पडिता थी। जिसने वेद, रधुवश महाकाव्य, वात्सय्यायन के कामसूत्र एव चाणक्य की राजनीति सम्बन्धी ग्रन्थों का अध्ययन किया था।* इसी प्रकार भास्कराचार्य की पुत्री लीलावती गणित की पडिता था जिसके नाम पर ही भास्कराचार्य ने ((2वी शदी के अत में) गणित की एक पुस्तक (लीलावती) की रचना की थी।*

स्त्रियाँ छन्‍्दो का भी ज्ञानर्जनज करती थी। वे अपने विदेश गये हुए पतियो को छन्‍्दबद्ध रचनाओ द्वारा सदेह भेजा करती थी।” वे छन्‍्दो के उच्चारण मे निपुण एव प्राकृत भाषा की विशेषज्ञ होती थी।

गणिकाओ की शिक्षा का कुछ और ही क्रम होता था। इन्हे कामसूत्र में वर्णित चौसठ कलाओ मे निपुणता लास्य नृत्य मे प्रवीणता, काव्य रचना मे चातुरी आदि योग्यताओ से सम्पन्न कराया जाता था।* भोज के अनुसार श्रूगार मजरी वार्ता करने मे कुशल, चौसठ कलाओ मे निषुण, प्रश्नोत्तर मे मुखर, लास्यनृत्य में प्रवीण और काव्य रचना में चतुर थी तथा कामसूत्र आदि पुस्तको को समझने की शक्ति रखती थी।” इसी प्रकार रत्नदत्ता की वार्ता से ज्ञात होता है कि उसने युवावस्था मे ही सभी विद्याओ एव कलाओ का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। नृत्य मे भी उसने योग्यता प्राप्त की थी।' श्रूगारमजरी से

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स्पष्ट होता है कि गणिका वर्ग के अध्ययन का क्षेत्र बडा व्यापक था तथा गणिकाय साधारण वर्ग की स्त्रियों से अधिक शिक्षित होती थी |

स्त्रियो मे रचनात्मक प्रवृत्ति होती थी वे किसी भी पद्याश की पूर्ति तत्काल कर लेती थी।” एक बार भोज ने धनपाल को यह आदेश दिया कि वह तिलक मजरी मे उसे ही प्रधान पात्र के रूप मे चित्रित करे। कहते है कि धनपाल के वैसा करने से अस्वीकार करने पर भोज ने उसकी वह पुस्तक जलवा दी। राजा के इस कृत्य से धनपाल बहुत दुखी हुआ। उसकी पुत्री बालपडिता को तिलकमजरी का प्रथम भाग याद था। जिसे उसने अपने पिता की सात्वना के लिए लिख दिया। पुन इसका दूसरा भाग स्वय लिखकर तिलकमजरी को उसने पूर्ववत तैयार कर दिया ।*

भोज का दरबार अनेक विदुषी स्त्रियों की प्रतिभाओं से युक्त था। वे पुरूषो के समान ही प्रखर बृद्धि वाली थी। एव अपनी योग्यताए से शकाओ का समाधान तथा वाद विवाद करती थी। भोज अपने दरबार मे उपस्थित एक ब्राह्मण वधू के सुन्दर शब्दों और परिष्कृत शैली मे वार्तालाप को सुनकार सोचने लगा कि निश्चय ही वाग्देवी की विलासमयी मूर्ति है। निसन्देह एक अशिक्षित स्त्री इतनी उच्च कोटि की विदुषी नही हो सकती।* एक अन्य बूढी ब्राह्मणी की शिक्षा से प्रभावित होकर भोज ने उसे पुरस्कृत किया था। इस प्रकार भोज प्रबन्ध मे अनेक ऐसी स्त्रियो के उल्लेख मिलते है जिनकी वाकचातुरी और प्रबन्ध रचना से स्वय भोज चकित हो जाता था।

स्त्रियों के प्रश्नोत्तर विद्वतापूर्ण होते थे। जिनके अनेक उदाहरण प्रबन्ध चिन्तामणि में मिलते है। एक ऐसी ही विदुषी के उत्तर से प्रभावित होकर मेरुतुग ने उसे बुद्धि की कोष एव सरस्वती की कृपापात्री आदि कहा है। इस विदुषी स्त्री से अपने प्रश्नो का तत्काल उत्तर पाकर भोज ने उसके प्रत्येक शब्द

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का तीन--तीन लाख मुद्राए पुरस्कार मे दी।” पुरस्कार की इस मात्रा का वर्णन अतिरजित हो सकता है। किन्तु इससे तत्कालीन स्त्रियो की स्मरणशक्ति, प्रतिभा एव उन्हे प्राप्त होने वाले राजकीय सम्मान का ज्ञान तो होता ही है।

कवि एव लेखको का राज्याश्रय --

शिक्षा एव साहित्य के उन्‍नयन मे कवियों एव लेखको को प्राप्त होने वाले राज्याश्रय बडे महत्वपूर्ण साबित होते है। समुचित राज्याश्रय और गुण ग्राहकता प्राप्त होने पर ही कवि या लेखक अपनी प्रतिभा का पूर्ण परिचय दे पता है। परमार शासको के प्रशासन मे कवियों एव लेखको को पर्याप्त प्रश्रय प्राप्त था। वाक्पतिराजमजु के राज्याश्रय मे पद्मगुप्त, भट्टहलायुध, धनिक, धनजय, धनपाल, अमितगति, शोभन” महोसन,” और भल्‍ल्ल” के निवास करने के सकेत मिलते है। पद्मगुप्त धनन्‍जय और महासेन के तो राजकवि के पदो पर आसीन होने की परम्परा मिलती है।” सिन्धुराज के समय भी पद्मगुप्त को राजकवि के नाम से ही सम्बोधित किया जाता था। भाज के समय उत्वट, सीता,” प्रभाचन्द्र, श्रीचन्द्र” श्रुतिकीर्ति" और धनपाल ने भरपूर राज्याश्रय प्राप्त किया था। नरवर्मन का आश्रयभूत एवं प्रिय लेखकर जिन वलल्‍लभ था। विन्ध्यवर्मा के समय विल्हण और आशाघर ने साहित्य क्षेत्र को प्रकाशित किया। विल्हव, अर्जुन वर्मा और देवपाल का भी समकालिक था। इसी प्रकार आशाधर भी सुभट वर्मन, अर्जुनवर्मन देवपाल और जैनुगीदेव के राज्यकालो में रह चुका था।” अर्जुनवर्मम के राज दरबार का मुख्य लेखक मदन था। जो उसके

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राजगुरू के पद पर भी आसीन था।

सरस्वती के इन वरद पुत्रों को राजागण उपाधियों से अलकृत एव पुरस्कार द्वारा सम्मानित कर उनके गौरव के साथ अपना भी गौरव बढाते थे। वाक्पतिराज मुज ने अपनी सभा के कवि धनपाल को सरस्वती की उपाधि से

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और भोज ने भास्कर भट्ट को विद्यापति की उपाधि से विभूषित किया था।” बिल्हण कवि शिरोमणि!” तथा मदन बाल सरस्वती“ के विरूदो से अलक॒त हुए थे। कवि या विद्वत वर्ग भी आश्रय देने वाले विद्वत प्रेमी राजाओं को विशेष उपधियो से अलकृत किया करते थे। धनपाल ने वाक्पतिराज मुज से सर्व विद्यात्यि विरुद से तथा पद्मगुप्त ने सिन्धुराज को कवि वान्धव की उपाधि से अलकृत किया था।” उदयपुर प्रशस्ति मे भोज की कविराज की उपाधि से विभूषित किया गया हो?”

शासक विद्वानो को उनकी विद्वता पर प्रसन्‍न होकर पुरस्कार भी देते थे। भोज के बारे मे मो यहा तक उल्लेख मिलता है कि वह विद्वानों को एक-एक श्लोक पर एक-एक लाख मुद्राये पुरस्कार स्वरूप देता था।” यद्यपि इस लोक विश्वास मे अत्यधिक अतिशयोक्ति प्रतीत होती है परन्तु इसे हम कृतज्ञ कवियो की कोरी कल्पना नही मान सकते। उदयपुर प्रशस्ति भी भोज की दानशीलता का प्रमाण उपस्थित करती है।” नरवर्मा ने जिन वललभ के व्यापक ज्ञान से प्रभावित एव प्रसन्‍न होकर उसे सम्मानपूर्वक तीन लाख पारुत्थ (सिक्का) तथा तीन गाव दान मे दिये थे।”” यह निश्चित प्रतीत होता है कि शास्त्रार्थ आदि विभिन्‍न अवसरो पर विद्वान पुरस्कृत किये जाते थे।

अनेक परमार शासक स्वय बडे विद्वान एव प्रतिभा सम्पन्न कवि और लेखक थे। वाक्पति राजमुज के लिए उदयपुर प्रशस्ति के- कहा गया है कि वक्तुत्वकला, उच्चकवित्व, तर्क प्रतिपादन तथा शास्त्री सिद्धान्तो को जानने वाला श्रीमत वाक्पतिराजदेव के नाम से अभिनन्दित किया जाता था। पद्मगुप्त ने भी भुज के लिए कहा है कि विक्रमादित्य और सात वाहन के बाद सरस्वती ने कवि मित्र (मुज) मे ही आश्रय लिया।” मुज की सरस्वती कं प्रति अनन्य निष्ठा का यह स्पष्ट प्रमाण है। दक्षिण चालुक्य शासक तैलप के कारागृह

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मे कैद होने पर अपने जीवन के अन्तिम क्षणो मे सरस्वती के प्रति दुख प्रकट करते हुए मुज ने आहे भरते हुए कहा है कि मुज के कवलित कवलित होने पर लक्ष्मी को विष्णु के पास और वीर श्री वीर मदिर मे चली जाएगी परन्तु सरस्वती निराश्चित हो जाएगी अध्ययन अध्यापन की व्यवस्था स्थिर रखने के लिए शासक वर्ग सदैव तत्पर रहता था। धारा प्रशस्ति के अनुसार वर्णों की रक्षा के लिए उदयदित्य तथा नरवर्मन की तलवारे सदैव तैयार रहती थी।* यहाँ वर्ण का अर्थ स्वर और व्यजन आदि वर्णों से लिया गया है।

साहित्यक गोष्ठियोँ एवं शास्त्रार्थ .--

विभिन्‍न प्रकार की साहित्यक गोष्ठियो के आयोजन मे परमार शासक बडी रूचि लेते थे। इन गोष्ठियो मे विशेषत पद वाक्य विचार, दार्शनिक विचार, ग्रन्थ विशेष से सबधित विचार तथा प्राचीन कवियों के कठस्थ काव्यो के पाठ आदि किये जाते थे।” राजा भोज प्रति वर्ष दो बार एक ऐसे उत्सव का आयोजन करता था जिसमे प्रसिद्ध गायक, नर्तक और विद्वान लोग सम्मिलित होते थे। इन्हे वस्त्र धन आदि देकर सम्मानित किया जाता था।? इस उत्सव का आयोजन गोष्ठियो के समान ही होता था। जिसमे लोगो का मनोरजन और विद्वानों को अपनी प्रतिमा एव योग्यता प्रदर्शित कर राजाओ द्वारा सम्मान प्राप्त करने का अवसर मिलता था। अबुल फजल कहता है कि भोज ने एक बार अपने दरबार मे पाच सौ विद्वानो को आमत्रित किया जिनमे शास्त्रार्थ हुए थे।

नरवर्मन ने भी उज्जैव के महाकालमदिर मे एक बडे शास्त्रार्थ का आयेजन किया था। एक बार उसके दरबार मे दो दक्षिणी पडितो ने वहाँ उपस्थित पंडितो से एक समस्या-“कठे कृठारः कमठे ढकार” - का समाधान पूछा |? कहते हैं कि नरवर्मा के कवि जिन वललभ ने इस समस्या का समाधान तुरन्त निम्नलिखित पक्तियो में दिया-

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रे रे नपा श्री नरवर्ममन प्रसादनाय क्रियता नतोड्‌ मै कण्ठे कुठार कमठे ढकारएचक्रे यरुश्वौडग्रखुराग्रधात |

यह प्रतीत होता है कि समस्या समाधान बुद्धि विलक्षणता की पहचान का सर्वप्रिय माध्यम माना जाता था और राज्य सभाओ अथवा विद्वत सभाओ मे समस्यापूर्ति अथवा अन्य विशेष प्रकार के प्रश्नोत्तरो का क्रम चलता रहता था। तदनुसार किसी श्लोक के पदो मे अर्थ बोध के लिए बिन्दु, यात्रा एव अक्षरों की कमी करके उत्तर पक्षवालो के द्वारा उसकी पूर्ति करवायी जाती थी।*

तत्कालीन रचनायें -

वास्तुशास्त्र का शिल्पी किसी प्रासाद के निर्माण के पूर्व दो प्रकार के मानचित्रो का निर्माण करता है - एक भूविस्तार एव दूसरा निर्मेय प्रासाद का आकार प्रकार| ठीक इसी प्रकार साहित्य के क्षेत्र में काव्य रचना सम्बन्धी विचार भी वाहय आकार प्रकार के परिलक्षक होते है। दूसरी ओर इन विचारो की आधारभूत शिलाये तत्कालीन रचनाये है। ये रचनाये मूलग्रन्थ, टीकाग्रन्थ तथा फटकर रूपो मे मिलती है।

मूलग्रन्थ व्याकरण :+-

भोजकृत प्राकृतव्याकरण मे व्याकरण सम्बन्धी नियमों का उल्लेख किया गया है। भोज की दूसरी रचना सरस्वतीकठाभरण” भी व्याकरण का एक ब्रहद ग्रन्थ है। जो आठ अध्यायो मे विभकत है। प्रत्येक अध्याय चार-चार पादों मे विभक्त है। पाणिनी की अष्टाध्यायी के बाद व्याकरण के क्षेत्र मे सरस्वतीकठा भरण को द्वितीय स्थान देने में समवत कोई आपत्ति होगी,

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व्याकरण के अतिरिक्त सरस्वतीकठाभरण'“* मे अलकारशास्त्र का भी विवेचन है। इसमे काव्य के गुणदोष, शब्दालकार, अर्थालकार, उभयालकार, रसस्वरूप आदि विषयो पर पाच परिच्छदो मे विशद रूप से विचार किया गया है। प्रथम परिच्छेद मे काव्य प्रयोजन, काव्यलक्षण, काव्यमेद, पद, वाक्य एव वाक्यार्थ के क्रमश सोलह दोष और शब्द के चौबीस गुणो का, द्वितीय मे शब्दालकार के चौबीस भेदो का तृतीय मे अर्थालकार के चौबीस भेदो का चतुर्थ मे शब्दार्थ के चौबीस भेदो का और पचम मे रस तथा उनके भेदो का उल्लेख किया गया है।

अलंकार -

भोजकृत श्रूगार प्रकार्शँ” अलकार साहित्य का ग्रन्थ है, इसमे इस बात का पूर्णरूप से विवेचन किया गया है कि श्रुगार, अभियान, और अहकार रस के ही पर्यायवाक शब्द है। यह ग्रन्थ कुल छत्तीस प्रकाशों में विभकत है। धनिक ने भी काव्यनिर्णय नामक अलकारशास्त्र के एक ग्रन्थ की रचना की है।

ज्योतिषशास्त्र +-

भोजक्‌त राजमृगाड़का मे मध्यमाधिकार, स्पष्टाधिकार, चन्द्रपर्णाधिकार आदि आठ अध्यायो मे ज्योतिष के सिद्धान्तों का उल्लेख किया गया है। ज्योतिष शास्त्र पर भोज के राजमार्तण्ड? नामक एक दूसरा भी ग्रन्थ लिखा। इसमे जन्म से मरणपर्यन्त अनेक शुभ कार्यो के मुहूर्त दिये गये है। इसके रीतिविधि फलम्‌ नामक प्रकरण में सुराचार्य, विशालक्ष और विष्णु के तथा वही पर गण्डयोग मे यवनाधिपति गण्डगिरि, वाराहमिहिर आदि के मत भी दिये गये है।

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इसी विषय की भोज की तीसरी पुस्तक आदित्य प्रताप सिद्धान्त है। विद्ववजनवल्लर्भा” भी भोज की ही कृति है। इसमे शुभयात्रा बन्धमोक्ष आदि विभिन्‍न विषयो की चर्चा की गयी है भुजबलनिबन्धा” मे भी भोज ने ज्योतिष सम्बन्धी विचारों का उल्लेख किया है। इसमे कुल अठारह अध्याय है- रिष्टाध्याय स्त्रीजात कलक्षणम्‌, योगाध्याय, व्रतप्रकरण, विवाह, काल शुद्धि निर्णय आदि |

दर्शनशास्त्र --

आशाधरकृत अध्यात्मरहस्य” मे योगकृत तत्वप्रकाश शैव सम्प्रदाय का दार्शनिक ग्रन्थ है। इसमे शैव दर्शनान्तर्गत शैवागम के प्रतीक पति, पशु और पाश की विभिन्‍न स्थितियो का उल्लेख किया गया है। भोज ने पतजलि के योगसूत्र पर टीका के रूप मे राजमार्तण्ड योग सूत्रवृत्ति” लिखी है। उसी ने शैवदर्शन पर शिवत्वरत्नकलिका की रचना की। शैव दर्शन का भोजकृत सिद्धान्तसग्रहँ” एक अनय ग्रन्थ है। देवसेन ने प्राकृत भाषा मे जैन दर्शन पर दर्शनसार” की रचना की। अभितगतिकृत पचमग्रह” में जैन दर्शन के सिद्धान्तो का वर्णन है।

राजनीति एव धर्मशास्त्र -

भोज की रचना चाणक्यराजनीतिशास्त्र” राजनीतिशास्त्र की पुस्तक है। उसी की दूसरी पुस्तक चारुचार्या” है। जिसमे नित्यकर्म शौचविधि, स्नानादि सम्बन्धी विषयो पर विचार किया गया है। युक्तिकल्पतरु” नामक भोज की रचना मुख्यत राजनीति का ग्रन्थ है। परन्तु इसमे यत्र तत्र नगर एव नौकाओ आदि की निर्माण विधि का भी उल्लेख किया गया है। इसके अन्य मुख्य विषयो मे अमात्यादि, बल, यान, यात्रा, दूतलक्षण, द्वैध, मत्रिनीति युक्‍क्ति

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आदि आते है। इसके अतिरिक्त भोज ने पूतमार्तण्ड“, व्यवहारसमुच्च्या/, और विविधविद्याविचारचतुरा// नामक ग्रन्थों का प्रणयन किया है। इनमे से व्यवहारसमुच्चय में व्यवहार (धर्म और विधि) सम्बन्धी विचारों का चित्रण है। अमितगति ने अमितगतित्रवकचार/” और धर्मपरीक्षा/” नामक ग्रन्थों की रचना की है। इनमे क्रमश जैन धर्म का विवेचन और हिन्दू धर्म पर उपहासात्मक ढग से आक्षेप किया गया है। धनपालकृत ऋषभपचशिका में जैनतीर्थकर ऋषभनाथ की स्तुति की गयी है। आशाघर ने धर्मामृृत, नित्यमहोद्योत, राजीमती विप्रलम्भ, और रत्नत्रयविधान की रचना की है जिनमे क्रमश जैनमुनि और श्रावको के आचार जैव तीर्थकरो की पूजाविधि नेमिनाथ की जीवनचर्या और रत्नत्रय की पूजा के महात्म्य का उल्लेख मिलता है।“ देवेन्द्र ने सिद्ध पचशिका में आर्यछन्द के पचास प्राकृत श्लोको मे मनुष्य के पारलौकिक जीवन के आनन्द का वर्णन किया है। सत्यपुरीय महावीरउत्सव धनपाल का एक अप्रभश्नश महाकाव्य है। जिसमे जैन महावीर की स्तुति की गयी है। भोज ने सिद्धान्त सारपद्धति मे सूर्य पूजाविधि, प्रायश्चितविधि। आचार्याभिषेकविधि, पादप्रतिष्ठा आदि अनेक विधियो का उल्लेख किया है।*'

शिल्पशास्त्र :-

मल्लकृत प्रमाणमजरी“ शिल्पशास्त्र का एक विशेष ग्रन्थ है। इस समय के शिल्पशास्त्र विषय के अन्य ग्रन्था के मुख्यतया प्रासाद एव देवमदिरों का ही उल्लेख मिलता है। परन्तु प्रमाण मजरी मे ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि चारो वर्णों के भवन निर्माण का विस्तृत रूप से उल्लेख किया गया है। भोजकृत समरागणसूत्रधार” शिल्पशास्त्र की इस समय की सर्वश्रेष्ठ रचना है। इसमे मुख्यत नगर भवन, और प्रासाद, (मंदिर) निर्माण के नियम, प्रतिमा निर्माण के ढग (विभिन्‍न मुद्राओ मे प्रतिमाओ के निर्माण करने की विधि) का विस्तृत रूप से

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उल्लेख किया गया है। इनके अतिरिक्त इसमें चित्रकला की कुछ आवश्यक विधियो एव विभिन्‍न प्रकार के यत्र (मशीन) निर्माण करने की विधियो का भी उल्लेख है।

काव्य एव नाटक -

देवसेन ने आराधना सागर मे एक सौ पन्द्रह गाथाओ का सग्रह किया है। काव्य एव नाटकवि विषयक के अन्तर्गत प्रभाचन्द्र ने आराधनाकोष, देवेन्द्र ने कर्मग्रन्थ,” और भट्टहलायुध ने कविरहस्या” नामक ग्रन्थ की रचना की है। भोजशाला से भोज से करर्मशतकर” नामक दो प्राकृत काव्य एक शिलालेख पर खुदे हुए उपलब्ध हुए है। प्रत्येक काव्य एक सौ नौ आर्याछन्दो मे लिखित है जिनमे भगवान विष्णु के कच्छपावतार का उल्लेख किया गया है। चम्प्रामायण* पाच काण्डो वाली भोज की रचना है। जिसके छठे काण्ड (युद्धकाण्ड) की रचना लक्ष्मण नामक कवि ने की है। जैन धर्म के प्रति भोज की जिज्ञासा तृप्ति के लिए धनपाल ने तिलकमजरी'” की रचना की। इसमे तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक स्थितयो का भी यत्र तत्र दिग्दर्शन कराया गया है। धनजय ने दशरूपकर्ँश! नामक नाटक लिखा। पदमगुप्तपरिमल रचित नवसाहसाकचरित'” कुल अठारह सर्गों मे विभकक्‍त एक काव्य है। जिसमे सिन्धुराज और नागकनन्‍्या शशिप्रभा के विवाह की विस्तृत कथा है। मदन की परिजात मजरी नाटिका* नामक ग्रन्थ में कुल चार खण्ड थ। दुर्भाग्यवश उसके दो ही खण्ड उपलब्ध हुए है। अर्जुनवर्मन एव उनकी पत्नी परिजात मजरी अथवा विजयश्री इस नाटिका के मुख्य पात्र है। प्रहलादनदेव ने पराक्रम पार्थपराक्रमब्यायोग* तथा भोज ने महाकाली विजय और विद्याविनोद"* की रचना की है। भोज की दूसरी रचना श्रगारमजरीकथा 7? नामक सस्कृत गद्य मे लिखी एक आख्यायिका है। इसमे कुल तेरह कथानक है।

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प्रत्येक कथानक मे वेश्याओ के विभिन्‍न प्रकार के जीवनयापन के ढगो का उल्लेख किया गया है। अमितगति ने सुभाषितरत्न सदोह' नामक सुभाषितो का एक सग्रह तैयार किया। यह ग्रन्थ कुल बत्तीस अध्यायो मे विभकत है। प्रत्येक अध्याय मे बीस अथवा पचीस श्लोको के सग्रह है। इसमे यत्र-तत्र जैन श्रावक धर्म के भी उल्लेख किये गये है। आशाधर ने त्रिषष्ठि स्मृति” मे 63 जैन महापुरूषो की कथाये वर्णित की है।

वैद्यकशास्त्र --

भोज ने वैद्यकशास्त्र पर आयुर्वेदसर्वस्व”" तथा राजमार्तण्ड (योगसार सग्रह) नामक ग्रन्थो की रचना की है। राजमार्तण्ड में कुल 34 अध्याय ( अधिकार) है। जिनमे वृद्ध, युवक एव बालकों के प्रत्येक शरीरावयव मे होने वाले विभिन्‍न रोग के कारणो अथवा निदानो के भी उल्लेख है। इस विषय पर भोज का तीसरा ग्रन्थ विश्रान्त विद्याविनोद' है।

भूगोल -

वाक्पतिराजमुज ने मुजप्रतिदेश व्यवस्था 7 में भारत की भौगोलिक स्थिति का उल्लेख किया है। कोशग्रन्थ -

भट्टहलायुधकृत अभिधान रत्नमाला. सस्कृत कोष है। इसके अतिरिक्त भोज ने भी नाममालिका* और शब्दानुशासन नामक संस्कृत कोशो का सग्रह किया है। धनपाल ने लच्छीनाममाला नामक प्राकृत भाष्रा का शब्दकोश तैयार किया है।

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टीकाग्रन्थ -

आशाधर ने अष्टाड्गहृदयोद्योत'” नामक वाणभद्टसहिता की टीका लिखी है। इसी लेखक ने क्रिया कलाप”* नामक अमरकोष की टीका धर्मामत पर भव्य कुमुदचन्द्रिका एव ज्ञानदीपिका'” नामक टीका और भरतेश्वाभ्युदय काव्य पर भरतेश्वराभ्युदयकाव्य' नामक टीका ग्रन्थों की रचना की है। इनके अतिरक्‍्त आशाधर ने आराधनासागरटीका,'” इष्टोपदेशटीका, हि चतुर्विशतिस्तवटीका,'* मूलाराधनाटीका, .. रुद्रटकृत काव्यालकार की टीका, सटीकसँहग्रनामस्तव,” और सटीक जिनयज्ञकल्प नामक टीका ग्रन्थो की भी रचना की है। प्रभाचन्द्र ने आत्मानुशासन टीका, आदिपुराणटिप्पण, रह उत्तरपुराणटिप्पण,” मूलाधार,”” रत्नकरण्ड, समाधितन्त्र,” सर्वाथसिद्ध और समयसार* नामक टीकाग्रन्थों की रचना की है। उज्वट ने यजुर्वेद पर निगमभाष्य* नामक टीका और वापसनेहसहिता पर मत्रभाष्य नामक टीका लिखी है। इसी ने ऋग्वेदप्रातिशास्त्र”” टीका की भी रचना की है। धनपाल ने शोभव के ग्रन्थ चतुर्विशिका पर चतुर्विशिका नामक ग्रन्थ लिखा है। धनिक ने दशपावलोक” नाम से दशरूपक की टीका लिखी। श्रीचन्द्र ने रविसेनाचार्य विरचित पद्मचरितटीका” नामक टीका लिखी है। इसी ने जैनों के महापुराण पर महापुराणटिप्पण” नामक टीका की रचना की। भद्टहलायुध ने मृतसजीवनी” नामक पिगलछन्दसूत्र की टीका लिखा है। रसिकसजीवनी नामक छमरुशतक के टीका की रचना मालवशासक अर्जुनंवर्मन ने की थी। सुल्हण ने केदार विरचित वृत्तरत्नाकर की टीका वृत्तरत्नाकर नामक ग्रन्थ के रूप में की है।

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अन्य ग्रन्थ -

उपरोक्त मूलग्रन्थ एव टीकाग्रन्थो के अतिरिक्त कुछ ऐसे ग्रन्थों का भी नामोल्लेख मिलता है जिनके विषय विभाजन के सम्बन्ध मे साधारणतया कुछ कहना कठिन है। शोभन ने चतुर्विशिकास्तुति, अमितगति ने चन्द्रप्रज्ञाप्ति, जम्बद्दीपप्रज्ञाप्ति, व्याख्याप्रज््ॉपतिा और सार्द्धद्वयद्वीपप्रज्ञाप्ति” वीर ने जम्बूस्वामीचरित,” देवसेन ने तत्वसार” देवेन्द्र ने धर्मरत्नवृत्ति, सुदर्शनचरित, सिद्धदडीस्तव, . श्राद्धजिनकृत्य,” प्रभाचन्द्र ने प्रवचनसरोजभास्कर, सगृहमजिका,” महासेन ने प्रद्युम्नचरित”' श्रीचन्द्र ने पुराणसार” और भोज ने अश्वशास्त्र पर शालिहोत्र/? नामक ग्रन्थ की रचना की थी। इस पुस्तक में अश्वो के शुभाशभ लक्षण तथा गुण-दोष का उल्लेख है। भिन्‍न-भिन्‍न ऋतुओ मे अश्वो का किस प्रकार पालन करना चाहिए। इसका भी सकेत किया गया है।

फूटकर रचनायें :-

मूलग्रन्थो एव टीकाग्रन्था के अतिरिक्त कुछ फुटकर रचनाओ के सदर्भ भी प्राप्त होते है। किन्तु उनके विषय में यहा यह कहना कठिन है कि ये रचनाये उनके लेखको की किन्‍्ही विशेष पुस्तको से उद्धत है अथवा कंवल उतनी ही मात्र है। जितनी कि उपलब्धियो का सदर्भ प्राप्त है। क्षेमेन्द्र रचित कविकाण्ठाभरण के वाक्पतिराजमुज के नाम से निम्नलिखित श्लोक उद्धत है।

मात्सर्यतीव्रतिभिरावृतदृष्टयो ये, ते कस्य नाम खला व्यथयन्ति वेत | मन्ये विमुच्य गलकन्दलमिन्दु मौले-

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येषा सदा वचसि वत्मति कालकूट ।।

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क्षेमेन्द्र के औचित्यविचार चर्चा मे भी मुज द्वारा रचित एक श्लोक उपलबंध होता है।

अहौ वा हारे वा वलवति रिपौ वा सुहृदि वा,

मगो वा लौष्टे वा कुसुमशयने वा दृषदि वा।

तृणे वा स्त्रेणे वा मम॒ सदृशो यान्ति दिवसा , अवचित्यपुण्यारण्ये शिव शिव शिवेति प्रलपत |।7

मुद्रततिलक मे श्री क्षेमेन्द्र ने उत्तलराज के नाम से एक श्लोक का उद्धरण दिया हे 6

हृतानजनश्यामरूथस्तैव स्थूला किमित्य श्रुकणा पतन्ति, मृड॒ण्गाइव व्यायत्तपड्‌ क्तयौ ये तनीयसी रोमलता श्रूयन्ति | | सूत्रस्येवात्र तीक्ष्णाग्र श्लोकस्य लघुना मुखम्‌ |

कप्र विशति निविध्न सरलत्व नोज्फति।।

गुर्वक्षेण सरुद्ध ग्रन्थि युक्तभिवाग्रत |

करोति प्रथम स्थूल किचित्कर्णकदर्थनाम्‌ | |

वल्लभदेव ने भी अपनी सुभाषितावली में वाक्पतिराजमुज (उत्पलराज) द्वारा लिखित दो श्लाको का उल्लेख किया है।

अहो वा हारे वा कुसुमशयने वा हर्षादि वा,

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मणी वा लौष्टे वा बलवति रिपौ वा सुहूदि वा। तृणे वा स्त्रैणे वा मम समदृशो यान्ति दिवसा, कदा पुण्येरण्ये शिवशिव शिवेति प्रलपत || 3443 धनोद्यानच्छायापिदमरु पथाछाव दहना- तुषाराम्नी वापिमिव विषविपाकादिव सुधाम्‌ | प्रवृद्धादुन्मादात्प्रकृतिमिव निस्तीर्य विरहाललमेय त्वदमिक्त निरुपमारसा शकर कदा।। 3444

इनके प्रथम श्लोक को क्षेमेन्द्र ने भी अपने ग्रन्थ औचित्य विचार चर्चा में उदृत किया है |

इनके अतिरिक्त धनिक के दशरूपक की टीका दशरूपावलोक, अर्जुनवर्मा की रसिक सजीवनी एव सारगधर पद्धति मे मुज के नाम से कुछ रचनाओ के सदर्भ मिलते है। परन्तु इनके विषय मे साधारणतया कुछ कहना कठिन है।

वास्तुकला, मूर्तिकला एवं चित्रकला

सास्कृतिक जीवन मे साहित्य के बाद प्रमुख स्थान कला का होता है। जिसके अनेक प्रकार है। जहा तक परमार शासकों का सम्बन्ध है। वे साहित्य के साथ-साथ कला के भी प्रेमी थे। इनके सरक्षण मे वास्तु, मुर्ति एवं चित्रकला की पर्याप्त उन्‍नति के प्रमाण मिलते है। भोज और उदयादित्य जैसे अनेक सम्राटो ने इस क्षेत्र मे सराहनीय कार्य किये। यद्यपि उनके अधिकाश

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मदिर एव प्रासाद मुसलमान मूर्तिमजको ओर आक्रामको ने नष्ट कर दिया, जो बचे है और जो पूर्णत नष्ट नहीं किये जा सके उनके अवशेष उनकी (परमारो) कीर्ति के ज्वलन्त उदाहरण है।

वास्तुकला

वास्तुकला के इस क्षेत्र को अध्ययन की दृष्टि से दो भागों मे विभकत किया जा सकता है। धार्मिक वास्तु और लौकिक वास्तु। प्रथम भाग में देव मदिर, मठ, चैत्य आदि तथा लौकिक में नगर, दुर्ग, भवन, झील, तालाब आदि आते है। जिनके विवेचन इस प्रकार है-

4 धार्मिक वास्तु -

धार्मिक दृष्टि से परमार शासको ने अन्य समकालीन शासको की तुलना मे अत्यधिक मदिरो का निर्माण कराया, जो कला की दृष्टि से बहुत ही श्रेष्ठ माने गये है। इस समय के स्थापत्य कला की विशिष्टताओ को जानने के लिए कूछ विशिष्ट स्मारको का उल्लेख करना आवश्यक है जो निम्नलिखित है -

उदयपुर का नीलकण्ठेश्वर मंदिर :-

उदयादित्य ने उदयपुर मे नीलकठेश्वर महादेव के मदिर का निर्माण कराया था #* इसे उदयेश्वर महादेव भी कहा जाता है। लाल पत्थरो से निर्मित यह मदिर वर्गाकार एक विशाल आगन के मध्य मे स्थित है। इसके शिखर पर एक ओर तो सुन्दर एव बारीक नक्काशीदार देव प्रतिमाए उत्कीर्ण है। दूसरी ओर एक विचित्र मानव का भी चित्र अकित है। इस आकृति को मदिर के निर्माता शिलाकार की मूर्ति माना गया है। वह मानो मदिर के बाहर चारो ओर

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एक चहारदीवारी बनी है जिसके बाहरी मुख्य की तरफ सुन्दर नक्काशिया की गयी है। इस प्रकार की भीतरी और लोगों के आराम करने के लिए थोडी-थोडी दूर पर पत्थर की छोटी-छोटी चौकिया (शिलापीठे) बनी है। इस (चहारदीवारी) मे चारो दिशाओ मे चार प्रवेश द्वार है। मदिर मे प्रवेश करने वाला मुख्य द्वार पूर्व दिशा की ओर है। इन सभी द्वारो पर द्वारपालो की प्रतिमाये बनी है।*

उपर्युक्त नीलकठेश्वर मदिर आठ अन्य छोटे-छोटे मदिरो से आवृत था। जिनमे से दो तो पूर्णत नष्ट हो चुका है किन्तु छह मदिरो के अवशेष आज भी पाये जाते है। इस मदिर मे बनावट की दृष्टि से गर्भगृह, सभामडप और प्रवेश मडप विशेष उल्लेख है। गर्भगृह मे एक ऊँचे पादपीठ पर एक शिवलिग प्रतिष्ठित है। इस गृह का बहिरग सितारो के समान कई महलो वाला है जिससे गर्भगृह मे अनेक अलकृत कोणे बनी हुई है। जिनमे हिन्दू धर्म के विभिन्‍न देवी देवताओ की मूर्तिया प्रतिष्ठित है।/' मदिर के बाहरी हिस्से मे ब्रह्मा, विष्णु, गणेश, कार्तिकेय और अष्टदिग्पालों की मूर्तिया उत्कीर्ण है। शिव और दुर्गा की प्रतिमाये अधिकाश है जो विभिन्‍न आकृतियो मे बनी है। मदिर के सामने एक हवनकृण्ड भी बना है।> स्थापत्यकला की दृष्टि से यह मदिर सर्वाग श्रेष्ठ माना गया है।

वेलगर* महोदय के मत मे यह मदिर कलात्मक दृष्टि से गौरवपूर्ण है। इसमें फूलपत्तियो की नक्काशी उदाहरणीय एव अपने ढग का निराली है। ऐसा नही है कि चित्रकारिता के बाहुल्य से मदिर का सौन्दर्य समाप्त हो गया है। सजावट की प्रभावोत्पादिका शक्ति अन्य उपकरणो के माध्यम से काफी उन्‍नत है। फर्ग्युसन* ने भी इस मदिर के प्रत्येक अवयव मे आकर्षक और बारीक नककाशी पायी है जो पूर्णत प्रशशनीय है। इस श्रेणी के

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ऐसे बहुत ही कम मदिर है जिनमे इस समय की मदिर कला का अच्छा ज्ञान प्राप्त हो सके।

ऊणा नगर के मदिर -

आधुनिक इन्दौर राज्य के दक्षिणी हिस्से को ऊणा के नाम से सम्बोधित किया जाता था। यह नगर परमारो के समय कला की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान बन गया था। मालवा के शासको के सरक्षण मे यहा करीब एक दर्जन मदिरो का निर्माण हुआ। यहाँ के मन्दिरो को देखकर यह कहा जा सकता है कि खजुराहो का छोडकर उत्तरी भारत मे ऐसा कोई स्थान नही है जहाँ प्राचीन मदिरों के इतने अधिक अवशेष एक साथ उपलब्ध होते हो। यद्यपि यहाँ के मदिरों की नक्काशी आदि खजुराहों की अपेक्षा बहुत अधिक उत्कृष्ट नही है फिर भी कुछ हद तक ऊणा की तुलना खजुराहो से की जा सकती है। वहाँ हिन्दू और जैन दोनो सम्प्रदायो के मदिरों उपलब्ध है।” यहाँ का चौबारादेरा मदिर वास्तुकला की दृष्टि से सराहनीय है। अन्य मदिरों की तरह इसके भी मध्य मे खम्मो पर अवलम्बित तक एक विशाल सभा मडप है। ग्वालियर के सास बहू मदिर की तरह ही इसमे मडप के तीनो तरफ तीन द्वारा मडप (पोचर्स) है। इसके शिखर का कुछ अश ध्वस्त हो गया है। मण्डप के चार गोल सुन्दर नक्काशीदार स्तम्भो के निचले हिस्सो मे स्त्रियों की आकृतियाँ उत्कीर्ण है तथा ऊपर लिटल बना है। इसी लिटल के ऊपर गुम्बदाकार शिखर है। यह शिखर आबू पर्वत पर स्थित वास्तुपाल तेजपाल द्वारा निर्मित दिलवाडा के जैन मदिर की तरह ही उत्कृष्ट माना जाता है।” मण्डप के समीप ही एक छोटे सस्ते (गौलरी) से जुटा हुआ गर्भगृह है। गर्भगृह के रास्ते की उत्तरी दीवार पर उदयदित्य की सर्वबन्ध रचनाये खुदी है।” मण्डप के सम्मुख प्रवेश द्वार के लिटल पर गणेश, ब्रह्मा, शिव, विष्णु और सरस्वती की मुर्तिया अंकित की गयी

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है। गर्भगृह मे शिव और सप्त मातृकाओ की प्रतिमाये प्रतिष्ठित है। शिव प्रतिमा की प्रधानता होने के कारण ही यह मदिर शिव मदिर माना गया है।”

चौबारादेरा का उत्तर दिशा मे महाकालेश्वर शिव का एक विशाल मदिर है जिसके गुम्बर का ध्वसावशेष आज भी उपलब्ध है। इसमे दक्षिण दिशा की ओर एक द्वारमडप है। मेहराबे भी बनी है जो क्रमश गर्भ गृह के भीतरी द्वार और सभा मण्डल के बीच वाले स्थल को अलकृत करती है। मण्डल मे ब्रह्मा, शिव तथा एक शिरविहीन नन्‍्दी की प्रतिमा है। शिखर मे यत्रतत्र दरारे हो गयी है जिससे गर्भगृह की दीवारे गिरने की अवस्था मे कुछ झुकी (मसकती) हुई सी प्रतीत होती है। गर्भ गृह के तीनो ओर चमुण्डा, नटेश और त्रिपुरारि की प्रतिमाये प्रतिष्ठित है ।”

ऊणा मे भी नीलकण्ठेश्वर महादेव का एक मदिर था जिसके मडल शिखर और दालाने (द्वारमडप) अब नष्ट हो गयी है। पुजारियो ने इन॑ दलानो के स्थानों पर अपनी छोटी-छोटी झोपडिया बना ली है। मडप से गर्भगृह मे प्रवेश करने वाले द्वारा का लिटल भी टूटा हुआ है लेकिन समीप वाली दलान दो छोटे-छोटे पत्थरों के खम्भो पर अवलम्बित है। गर्भगृह के सामने वाले दोनो द्वारो के लिटलो पर सुन्दर नक्काशिया की गयी है। जिनमे एक पर सप्तमातृकाओ के साथ नर्तक की मुद्रा मे शिव की प्रतिमा उत्कीर्ण है। गर्भगृह मे एक शिवलिग प्रतिष्ठित है।** हे |

नीलकष्ठेश्वर के समीप ही भूमि की सतह के नीचे गुप्तेश्वर महादेव का एक छोटा मदिर है। इसके गर्भगृह की सतह नीकश्ठेश्वर महादेव के गर्भगृह की सतह से तीस फीट नीचे है। इसका शिखर समाप्त हो चुका है। गर्भगृह के सामने वाली फर्श पर पत्थर की ईटे बिछायी गयी है। जिसके आकार एव विस्तार से ऐसा प्रतीत होता है कि यहा एक छोटा सा मण्डप था।*

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ऊणा मे गोलेश्वर नामक एक अन्य प्रसिद्ध जैन मदिर इसके सभामण्डल के सम्मुख अन्य मदिरो की तरह कोई द्वार मण्डप नहीं है बल्कि वर्गाकार एक कमरा है गर्भगृह की फर्श मण्डल से करीब दस फीट नीची है जिसमे सभा मण्डल से जाने के लिए कुछ सीढिया बनी है। खजुराहो के पार्श्वनाथ मदिर की तरह ही इसका गुम्बद कई छोटे-छोटे शिखरों से आवृत है। गर्भगृह से बने हुए एक पादपीठ पर एक ही पक्ति मे तीन दिगम्बर जैन मूर्तिया खडी मुद्रा मे प्रतिष्ठित है।*

नेगवर के मदिर समूह -

सिद्धनाथ मदिर हर्दा स्टेशन से बारह मील दूर नर्मदा नदी के किनारे यह नगर स्थित है।* कला की दृष्टि से यहा का सिद्धेश्वरमदिर उत्तरी भारत का एक उत्कृष्ट नमूना माना जाता है। इसमे सिद्धेश्वर नामक शिव की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। नदी के किनारे स्थित होने के कारण बाढ के प्रभाव को रोकने के लिए इसकी नीव खूब दृढ बनायी गयी है। इस मदिर में भी कलात्मक दृष्टि से सुन्दर शिखर युक्‍त, गर्भगृह तथा भव्य नक्काशीदार खम्भो पर अवलम्बित गुम्बदवाला सभामण्डल है। गर्भगृह मे शैवागम के प्रतीको, भैरव, ताण्डवशिव, ब्रह्मा, ब्रह्माणी, महिषा सुरमर्दिनी आदि की मूर्तिया उत्कीर्ण है। मण्डल की भीतरी छत मे कमलपुष्पो के बीच विभिन्‍न भगिमाओ मे स्त्रियों की प्रतिमाये है। सभा मण्डल तथा दालान के बाहरी हिस्से में भी सुन्दर-सुन्दर प्रतिमाए उत्कीर्ण है।“* उदयपुर के नीलकण्ठेश्वर मदिर के शिखर के तरह से इसके शिखर का भी निर्माण किया गया है। इन दोनो शिखरो में चित्रकारिता बडी ही सूक्ष्म और बडे आकार मे की गयी है। जो परमारकालीन वास्तुकला की विशेषता है।

[ 80 ]

विष्णु का अपूर्ण मंदिर.

सिद्धनाथ मदिर की उत्तरी दिशा मे विष्णु का एक अपूर्ण मदिर है। यह केवल एक टीला सा दिखाई पडता है। इसके शिखर मण्डप आदि का कोई स्पष्ट रूप नही मिलता। इसके प्रवेशद्वार मे कई मूर्तिया उत्कीर्ण है जिनमे अधिकाशत विष्णु की ही प्रतीत होती है।” जिनसे यह प्रमाणित होता है कि यह विष्णु का ही मदिर रहा होगा।

मोदी गॉव का शिव मदिर -

मोदी नामक परगना मे मुख्य स्थान मोदी नामक गाँव का था। जिसका वास्तु कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान था। यहाँ पर शिव मदिर का एक जीर्ण अवशेष मिला है जिसके अन्य भाग तो नष्ट हो गये है लेकिन गर्भगृह अभी भी सुरक्षित है। प्रवेश द्वार के लिटल पर लकुलिश शिव की प्रतिमा उत्कीर्ण है |” ऐसा विश्वास था कि कला की दृष्टि से यह मदिर मालवा में एक दर्शनीय स्थल रहा होगा।

भोजपुर का शिव मंदिर -

आधुनिक भोपाल राज्य मे भोजपुर नामक गाव का नामोल्लेख मिलता है। जिसे राजा भोज ने अपने नाम पर बसाया था। यहा पर शिव मदिर कला की दृष्टि से सराहनीय था। इस वर्गाकार मदिर का गुम्बद शुण्डाकृतिवाले चार नक्काशीदार प्रशस्त खम्भो पर अवलम्बित है। मदिर के अन्य भाग अस्पष्ट

हे 237

[8] ]

भिलसा का बीज मदिर -

भिलसा बीज मदिर नामक एक मस्जिद है जिसके एक स्तम्भ पर नरवर्मा का एक लेख उत्कीर्ण पाया गया है। उससे यह ज्ञात होता है कि वह चरयिका देवी का उपासक था। इस लेख का देखने से यही आभास होता है कि यह मस्जिद चरयिका देवी का ही मदिर था। इसकी दीवार पर उदयदित्य का भी का लेख पाया गया है।” जिससे यह कहा जा सकता है कि यह मस्जिद अपने वास्तविक रूप मे मूलत एक हिन्दू मदिर था। जिसे मुगलो की ध्वसलीला ने मस्जिद के रूप मे परिणत कर दिया।

अर्बुदमण्डल के मंदिर-

आबू शाखा के परमार शासक भी अनेक देव मदिरो के निर्माता थे। इतिहास साक्षी है कि इनकी राजधानी चन्द्रावती मे 408 मदिर थे। किन्तु अब अधिकाश कालकवलित हो चुके है|

कयाद्रा का अपेश्वर मंदिर .-

सिरोही राज्य मे वासा नामक स्थान से सोलह मील दूर कयाद्रा गाव स्थित है जिसके पश्चिम में अपेश्वर महादेव का एक मदिर है। इसमे भी गर्भगृह, सभामण्डप और दालाने बनी है। सभामण्डल के मध्य अष्टभुजाकार स्वरूप मे आठ खम्मो पर एक गुम्बद बना है। मदिर के उपगृह के लिटल पर गणेश की प्रतिमा उत्कीर्ण है। गर्भगृह मे एक शिवलिग तथा लिग के पीछे पडने वाली दीवार पर त्रिमूर्ति की एक प्रतिमा बनी है। जिसके तीन मुख और छह भुजाये है। मदिर के सामने तोरणद्वार भी है। गर्भगृह के चारो तरफ कई अन्य छोटे-छोटे मदिर है। उनमे से एक मदिर की ताखाओ मे गणेश, कार्तिकेय, और लकुलिश शिव की दूसरे मे विष्णु, सिंहवाहिनी अम्बिका एव शिवपार्वती और

[ ]82 ]

तीसरे मदिर मे सूर्य की मूर्ति प्रतिष्ठित है। इन मदिर के शिखर ईटो से बने है और ऊपर सगमरमर के मसाले का पलस्तर किया गया है ।”

मुगथला का मधुसूदन मंदिर '-

आबू सडक से दक्षिण पश्चिम की ओर करीब पाच मील की दूरी पर यह मुगथला नामक गाव स्थित है। इसके उत्तर पश्चिम दिशा मे एक मील की दूरी पर यह मदिर स्थित है। इसके चारो तरफ एक चहारदीवारी और सामने की ओर एक तोरण बना है। विमलशाह के मदिर की तरह ही इसके अन्यान्य भागो की बनावट है। इसमे एक छोटा मदिर, गुधमडप (एक विशाल मडप) और दालान है। इसका शिखर गुर्जर ढग (लाट शैली) का है।”

दिलवाडा का जैन मंदिर -

नक्काशी आदि की दृष्टि से जैनियो की यह उत्कृष्टि कृति अत्यन्त प्रसिद्ध है। इसके दालान की छतो मे कमलपुष्पो पर आसीन देवी देवताओ की मूर्तिया उत्कीर्ण की गयी है।' यहॉ के विमलशाही और तेजपाल के मदिर महत्वपूर्ण स्थान रखते है। यद्यपि ये दोनो मदिर बाहर से तो साधारण ही दिखाई पडते है परन्तु भीतर इनके खम्भो, दीवारो एव गुम्बदों पर विलक्षण नक्काशिया की गयी है। फर्ग्यूसन के अनुसार इन मदिरो की तुलना मे अन्यत्र कही भी कोई मदिर नही उपलब्ध है।*

मदिर निर्माण के आधार भूत सिद्धान्त '-

मदिरो का निर्माण दिशाओं के क्रम से किया जाता था। इस विषय मे भोज ने दिशाओ के क्रम से देवताओं के स्थापन का निम्नलिखित उल्लेख किया है।*

[ 83 ]

दिशाये देवमदिर

पूर्व विष्णु, सूर्य, इन्द्र और धर्मराज आग्नेय सावित्री और हनुमान

दक्षिण गणेश, मातृकाये, भूत एव यमराज नेऋ्य भद्रकाली

पश्चिम वरुण और विश्वकर्मा

वायव्य कात्यायनी

उत्तर स्कन्द, सोम और कृबेर

ईशान लक्ष्मी और अग्नि

ये देवमदिर नगर के वाहय और आभ्यान्तर दोनो भागों मे निर्मित किये जाते हे |

वैदिक कालीन यशवेदियो ने ही कालान्तर मे हिन्दू मदिर का रूप

246

धारण किया |

[ 84 ]

७) (४०७0 चेे (४

पाद टिप्पणी

विशुद्धानद पाठक - उ0भ0 का राज०0 इतिहास, पृष्ठ 597 (-बाएप७ पाउइटाफएा।णापा [0०कपा ४०) णा ? 47-48 8 ५0, हा, ? 220, ए0ा, ह्वरापए ?60 ए४0ा, शा ? 5-53 ५७0, हार 7 349,00, हुए, ?ए 254, शा ५0, हाफ, ?-236 0०0, जणा,? 322,ए0 हछशा,?-44,७0, हएजशा।, ?-35 ०0, 0, ? 80, ५0, छता,? 590 ५४0, शा, ?-3], 80५.042 ५४0, एक. ], ? 472, 7088 ५४०0, शा, 736 परम भट्टारक महाराजधिराज परमेश्वर श्रीकष्णराजदेवपादानुध्यात परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री वैरिसह पादनुध्यात --- श्री सीयमदेव पादानुध्यात ---- श्रीमद्वागपति राजदेव ------ [७ ०0, हाए५, 7 60, ५४०0, शा, 9 5, 53 00. हाफ, 7 352, ०0, हा, 254, हा ४0, हए॒णा, 322, एण,॥, ए.48 ए0ा, 70.कऋता, 7? 55, प्लरार ए0, शा 73], ॥0$58.ए00 .शा, ? 736 [७ ०७0. जाए, ? 60 [99, ए0, श॒, ? 5, ए४0.ह5णा, ?ए 322 [५ ५0, >ा5, ?.349 [994 ए0ा, ऋण, 7? 60, 2 ए0.हाफ, ? 242 भूमि य. प्रतिग्रहणाति यस्य भूमि प्रयच्छति उमौ तो पुष्प कर्माणी नियतौ स्वर्ग गामिनौ | न्‍ हर्ता हारियता भूमि मद बुद्धिस्‌ तमोवृत वद्धौवारुणै पाशोस्तिर्यन्योनै प्रजायते | स्वदत्तां परदत्ता वायौ हरेतवसघरा षष्डि वर्षसहग्राणी विष्ट्यां जायते

कृति | सु.00, हएण, ?.255, छा, ५0, 5, ? 23

[85 ]

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[86 ]

9

20 2 22 23 24 23 20 27 28 29 30 34 32 33 34

35

वीरमित्रोदय, सस्कार प्रकाश, पृ० 322-25, मानसोल्लास-3 /42 /4284--86, ७80२2, ४0, #>ऋए४५, ? 362 3 7? ७व्ुपा7697 ? [49 छा ("रक्मातत8, ? 66-07 दृष्टव्य - इसी परिच्छेद मे “शिक्षण सस्थाये” ति0 म0, पृ0 9 | ति0 म0, पृ० 65 | श्रु0 म0, भूमिका, पृ0 42 विशेष विवरण के लिए दृष्टव्य, इसी परिच्छेद में तत्कालीन रचनाये | मानसोल्लास, 3 /42 /4286--4294, दृष्टव्य परिच्छेद (वर्ण एव जाति व्यवस्था) ५४०७४प ५४५0०7 ॥, ? 25 [994, ? 25 द्रष्टव्य, प्रथम परिच्छेद, (युवराजों की शिक्षा प्रशिक्षा) छा ४0. ४, ? 5] द्रव्टव्य इसी परिच्छेद मे भोज की रचनाये नीतिहीन नरेन्द्राणा नश्यन्ताशु सुसम्प्रद निर्दोष गुणवत्काव्यमलड्कारैरलकृतम्‌ | रसान्वित कवि कार्वन्‌ कीर्ति प्रीतिं विन्दति ।। स0 क0, परि0 4, पृ0 2

असाधु चाप्रयुक्त कष्टं चानपर्थक यत्‌ अन्यार्थक मपुष्टार्थससमर्थ तथेव च। अप्रतीतस्थ क्लिष्ट गूढ नेयार्थमेव च। सदिग्ध विरुद्ध प्रौक्तत्वयोजकम्‌ वैश्य ग्राम्यमिति स्पष्टा दोषा स्यु ।।

स०0 क0 परि0 4, पृ०0 3

[87 ]

36

कक

38

39

40 4]

एव पदाना वाक्याना वाक्यार्थानान्‍्व कवि | दोषान्‌ हेयतया वेनिस काव्य कतुमहिति | त्रिविधाश्च गुणा काव्ये भवन्ति कवि सम्मत | वाह्याश्चाभ्यन्तराश्चैव ये यैशेषिका इति।

स0०0 क0 परि0 4, पृ0 49 श्लेष प्रसाद समता माधुयर्य सुकमारता | अर्थव्यक्तिस्तथा कान्तिरूदारत्वमुदात्तता | | ओजस्तधान्यदोौजित्य प्रेयानथ सुशब्दता | तद्धत समाधि सौदयपन्न ग्राम्मीर्ययमथ विस्तर ।।| सक्षेप समितत्वन्द भाविकत्व गतिस्तथा | रीतिरूक्तिस्तथा प्रौढिस्थेषा लक्ष्यलक्ष्णौ |।

स0 क0, परि0 4, पृ० 50 | जतिर्गती रीतिवृत्तिच्छायामुदौक्ति युक्तय | मणितिर्गुम्फना शय्या पठितिय |मकानि च।। श्लेषानुप्रास चित्राणि काकोवाक्य प्रहेलिका। मूढ प्रश्नोत्तराध्यये भव्य प्रेक्ष्यभिनीतय ।। चतुर्विंशतिरित्युक्ता शब्दालकार जातय

स0 क0, परि0 2, पृ0 440--4 विशेष विवरण के लिए द्र॒ष्टव्य राघवन श्रृगार प्रकाश चार व्यजनो वाला श्लोक - जौ जो जा जि जि ज्जा जी ततो$तिततातितुत्‌ भा भौ भी भा भि भू भा भू रा रा रिररि रौ रर॒||360 ||

[ 88 ]

42

43 44 43

तीन व्यजनों वाला श्लोक-

देवाना नन्दनो देवो नादनौ वेदनिन्दिनाम्‌

दिय हुदाव नादेन दाने दानव नन्दिन ||364 ||

दो व्यजनो वाला श्लोक-

भूरिभिर्भारिमिर्मी रौ भूभारैरभिरैभिरे |

मेरीरेभिभिर भ्राभैरभी रुभिरिभिरिमा ||362 ||

एक व्यजनो वाला श्लोक -

नोननुन्नो नुन्‍नोनो ना नाइनानानना ननु

नुननो नुन्‍नो ननुन्नेनो नाइ्नेनानुन्न नुन्नननुन्‌ 363 | | - स0 क0, परि0 2, पृ 275-76,

हस्व स्वर वाला श्लोक -

ऊरुगु घुगुरू यूत्‌मु चुकूशुस्तुष्टुवु पुछु |

लुलुमु पुपुषुर्मुत्‌सु मुमुहर्त मुहर्मुहु [37।

दीघ स्वर वाला श्लोक-

वैधेरेनैरैशैरैन्दै रे जैरै ले जैन सै द्वध॑ |

मै त्रै ने के धैय|ये वै रै दै स्‍्वै स्वैरे दैवैस्तैस्ते [।378 || स0० क0 परि0 2, पृ० 280-84

द्रष्टव्य, द्वितीय परिशिष्ट

स0 क0, परि0 2, पृ०0 426-27 |।

जातिर्विभावना हेतुरहेतु सूक्ष्ममुत्तरम्‌ |

विरोध सम्भवौःन्योन्य परिवृत्तिनिर्दशनम ।|2।।

भेद समाहित भ्रान्तिविर्तकों मीलित स्मृति

[ ]89 ]

40 47 486

49 350 5] 52

53 54 33

306 37

56 39

00.

6] 02

भाव प्रत्यक्षपूर्णाणि प्रमाणानि जैसिन। ।|3।। स0 क0, परि0 3, पृ0 437 | स0 क0, परि0 4, पृ० 39, श्लो0 2-4 | राघवन, श्रुगार प्रकाश, पृ० 389 | वाक्य रसात्मक काव्य, साहित्य दर्पण, प्रथम परिच्छेद, पृ०0 49 स0 क0, परि0 5, पृ०0 538 | वही, पृ0 539--40, श्लो0 9-42 | स0 क0, पृ0 443-44 |

प्‌॥6 $ए0-05 दआए एक्‍9ता५३ धात िक्वावएशा।कला फटा €(००४)।।५

78809 [07 6 7706०7०॥ ०0 06 ४०788 306 (॥6 [ला25 076 37406. ॥छ98२७8 ४०. #४, ? 35]

ति0 म0, पृ0 479

वही, पृ0 57

उदाहरण के लिए द्रष्टव्य-युक्तिकल्पतरु, तिलकमजरी, समरागण

सूत्रधार, आदि |

770. १९० 657 ४/६४ंश7 (7026, 93, ? 55

89क्षातक्षाटक्ष'5 रि०००7स्‍ ॥6 5670०] 07 5975 50०75. 882,

? 220 है

छा ४0. शा, ? 0]

[882५4$8., ७०0, जुजझा, ? 34-45

8 ४0. शा ?. 0]

रेउ, राजा भोज, पृ0 89 |

]088, ४०... 5, 7.5 8, 2९४४5/, ]98-9, एव | ?-7

[ 90 ]

03. 04.

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82. 63.

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65. 66.

संदेह रासक, पृ0 80-82

400 0 ६)॥ 00 40 22 [52% द्वयाश्रव्य महाकाव्य सोलहवां, 75 जि. ५७०0.. #. 20.55

ति0 भं0, पृ0 55,

वही, पृ0 57,

5. ५०.. शा, ?. 243-60,

रेउ, राजाभोज, पृ0 88-89,

वही पृ0 88-89,

-. ४५७).. ५, ?.]0-22,

ति0 भं0, पृ० 245, ?.0, प४ज्ा००, ?. 63 (762 ४४०॥॥९०॥ 07709, ?.295 संदेशरासक, पृ0 80, 82, 89, 90

?(. 787५76९५, 7. 63 63-64 (जलवा 7४०7027॥0 0 770॥8, ?. 295

वही, पृ0 89--90

श्र मं0, पृ०0 42-5

श्र मं), पृ0 42-45

वही, पृ0 62

?(. ॥28एश॥९५, ?. 4-4]

?(. ॥०2एशए॥०५, ?. 6]

भोज प्रबन्ध, (बल्लालकृत्त), श्लो0 469--470, (पृ० 463)

वही, श्लो0, 468 (पृ० 64) 70. 289॥॥69, ?. 66-07

867 88

69 90 9] 92 93 94 95 96 97 96 99 00

0].

02 03 ]04

05

06

07. 086.

?( 99776५, ? 40

700 6काशणा, नाड0ठाए 6 एथाशक्षव >पजा4ढ0 , ? 63.

भारत के प्राचीन राजवश, पृ० 404-6 नाथूराम प्रेमी, एृ० 282 नाथूराम प्रेमी, पृ0 275

प्रमाण मजरी, पृ0 24

700 0थ्ाएपा, नीड0णएछ एी 6 रिक्रा]0३ 2श॥489, ? 265, 289 भारत के प्राचीन राजवश, पृ० 404, नवसाहसाक चरित प्रथम सर्ग 7000 6काएपा, नीडठतए 0 [6 रिक्ाशश4 72/7959, ? 282, 29], नाथूराम प्रेमी, पृ० 275

अपभ्रश जैनिग्रन्थ प्रशस्ति सग्रह, पृ० 286

अपगभ्रश जैनिग्रन्थ प्रशस्ति सग्रह, पृ0 7

भारत के प्राचीन राजवश, पृ0 445

वही, पृ0 455

पाइण ?क7479 29]889

भारत के प्राचीन राजवश, पृ0 459

ति0, म0, पृ0 6, श्लो0 53

छा ४0, , 7 340

580रा, 0४0 ..59, 63

भारत के प्राचीन राजवश, पृ० 59, अमरू शतक, एृ० 2

सर्वविद्याब्यिना श्री मुजेन ---+++: ;

नवसाहसाकचिरत, प्रथम 8 छा. ४0..], ? 235, ४०४७८ 8 बलल्‍लालकूत, भोज प्रबन्ध, पृ० 58, 64, 224, 239

[92 ]

09

0 ]]|

|2

43

8|4 ]5 [46

]7/ 48 [9 [20 (2] [22 423

साधित दिहित वत्त, ज्ञात तद्यन्न केनचित्‌ किमन्यत्कविराजस्य श्री भोजस्य प्रशस्यते | |48 | | - 34] ए0, ]7 235 अपभ्रश काव्यत्रयी, पृ० 33 वक्तृत्यौच्च कवित्व तयर्ककलन प्रज्ञातशास्त्रागम | श्रीमदवाक्पतिराजदेव इति सदभि सदा कीत्यते। 43 || - शा एए0ा, 7 235 अतीत विक्रमादित्ये गतेइस्त सातवाहने | कविमित्रे विशत्राम यस्मिन्‌ देवी सरस्वती |।93|। नवसाहसाक चरित्‌ ग्यारहवा सर्ग प्रति0 मू0 पाठ, पृ0 25, ?.८ ॥44ए9॥6५, ? 35, 73888१2५48७ ४०, <&<&7|, ? 35] ति0 म0, पृ0 85 | साशण-ए 076 86 0 पराक्षा40॥7) 00 ॥7 [70॥9, [7700प८075, ? 76 4 ।]--.50087, ४५०00, ], ? 26 भारत के प्राचीन राजवश, पृ0 444, सिधी जैनग्रन्थमाला, ग्रन्थाक, 42, पृ० 43, सिधी जैनग्रन्थमाला, ग्रन्थाक, पृ0 43 ति0 म0, पृ0 88 | (0॥80०2प5 08००2णणा7, ४0० 7, ? 46 यह ग्रन्थ तीन खडो मे प्रकाशित है। त्रिवेन्द्र सस्कृत सीरीज, ग्रन्थाक

447, 27, 440,

[93 ]

[24 23)

26 [27

286

[29

30

3]

32

काव्य माला सीरीज, ग्रन्थाक, 94,

यह ग्रन्थ अपने सभी प्रकाशो के साथ अभी पूर्णत प्रकाशित नही हुआ है| इसके कुछ ही प्रकाश यत्र तत्र प्रकाशित हुए है। प्रथम आठ प्रकाशो का सपादन जी0आर०0जोयसर महोदय ने 4955 मे इन्टरनेशनल एकेडमी ऑफ सस्कृत रिसर्च मैसूर से किया है। बाइसवे तेइसवे और चौबीसवे प्रकाश यतिराम स्वामी ऑफ मेलकोट (माउन्टरोड मद्रास 4926) द्वारा प्रकाशित हुए है। ग्यारहवा प्रकाश डॉक्टर सस्कृत ने “थीपरीज ऑफ रस एण्ड ध्वनि” नामक ग्रन्थ मे प्रकाशित हुआ है। डॉ० पी० राघवन ने अपने शोध प्रबन्ध “भोजम्‌ श्रूगार प्रकाश” पृ० 53-42 मे कुछ प्रकाशो का विस्तृत रूप से उल्लेख किया है

भारत के प्राचीन राजवश, पृ0 405,

सपादक के0 माधवकृष्णशर्मा, प्रकाशित - अड्यार लाइब्रेरी बुलेटिन

4940 |

सपादक - खेमराज श्री कृष्णराज, प्रकाशित श्री वेकटेश्वर प्रेस बम्बई, 4953 |

(90275 (४०/02007, ५४५५७), 4, ?. 48

महामहोपाध्याय कृपुस्वामी द्वारा सम्पादित, गवर्नमेन्ट ओरिएन्टल मैनुस्क्रिप्ट लाइब्रेरी, मद्रास की सस्कृत पुस्तकों की सूची, भाग, 3, खण्ड 4 बी, पृ0 370, 6-7 | हु

कृप्पुस्वामी द्वारा सम्पादित गवर्नमेन्ट ओरिएटल लाइब्रेरी मद्रास की सस्कत पुस्तको की सूची भाग 4, खण्ड 4 ए, पृ0 45, 62--63 | छ769रात्बा 5 २९००॥ णा 76 860० 707 8शाइतया क्षापए5००8 |883- 84, ?. 04-5.0

[ 94 ]

833 [34 [35 [36 37 38 39 40 [44 [42 43 [44 ]43 ]40

[47

[48 [49

50 5] [52

त्रिवेन्द्रम सस्कृत सीरीज, ग्रन्थाक 68,

हरिदास सस्कृत ग्रन्थमाला, ग्रन्थाक 83,

रेउ, राजाभोज, पृ० 237,

(धा0275 (2४०४020प07, ५0, ], 7 48,

नाथूराम प्रेमी, पृ० 475, टिप्पणी, 4,

वही, पृ0 279,

कलकत्ता ओरिएन्टल सीरीज, ग्रन्थाक 2,

रेउ, राजा भोज पृ0 236 |

सपादक ईश्वरचन्द्र शास्त्री, कलकत्ता, 497,

भारत के प्राचीन राजवश, पृ0 449,

रेउ, राजा भोज, पृ० पृ० 236 |

वही पृष्ठ - 264

नाथूराम प्रेमी, पृ० 280 |

भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी सस्था, 9 विश्वकोशलेन, बाघ बाजार, कलकत्ता 4922, से यह ग्रथ प्रकाशित हुआ है| नाथूराम प्रेमी, पृ० 40,

एह&8507'8 70फ २७०णा, 7704प८070, 62

भारत के प्राचीन राजवश, पृ0 457,

नाथूरामप्रेमी, पृ० 440, ?7८&507'5 70फ्7 २९००, दलाल 6; ? 57,4. ४0, हा, ? 255.

नाथूराम प्रेमी, पृष्ठ 440

रेउ, राजा भोज, पृष्ठ 263

सम्पादक, डॉ० कुमारी प्रिययालाशाह, बडौदा 4958,

| 95 |

53

34

55 56 57 568 59

60 [6] 62 63 [64 65 ]066 67 68 ]69 70

]/].

[72

/3.

यह ग्रन्थ गायकवाड ओरियन्टल सीरीज बडौदा से दो भागों मे 4924, 4925, में प्रकाशित हुआ |

नाथूराम प्रेमी, पृ० 475,

?&667507'$ 707 रि९००॥, 70870070707, ? 56,

नाथूराम प्रेमी, पृ० 290,

एलड0णा'5$ #0फ्पत 7९०००॥, ताशा00प्रताणा, ? 57.

भारत के प्राचीन राजवश, पृ० 406,

छा ७0, शा, ? 24]

सपादक - वासुदेव लक्ष्मण शास्त्री, पणशीकर, निर्णय सागर प्रेस, बम्बई 4997 |

काव्यमाला सीरीज, ग्रन्थाक 85 |

निर्णय सागर प्रेस, बम्बई 4957 |

चौखम्बा विद्याभवन सस्कृत ग्रन्थमाला, ग्रन्थाक 66, वाराणसी, 4963 | ला ए0, शा ?ए 96

गायकवाड ओरियटल सीरीज ग्रन्थाक 4,

भारत के प्राचीन राजवश, पृ0 420, रेउ, राजाभोज, पृ० 237 |

वही पृष्ठ 420, 237

सिधी, जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थाक 30 |

काव्यमाला सीरीज, ग्रन्थाक 82 | पु

भारत के प्राचीन राजवश पृ० 457।

भारत के प्राचीन राजवश पृ० 420 |

आयुर्वेदीय ग्रन्थमाला, ग्रन्थाक 4 |

भारत के प्राचीन राजवश, पृष्ठ 420, रेउ राजाभोज पृ0 237

(580 7९5८००॥९३, ४५0, ॥& 7. 76

[ 96 ]

|/4

/5 [76 [77

78

[79

80,

8] 82 83 84 85 86 [87 68 69 90 9] 92

93.

सरस्वती भवन प्रकाशन माला ग्रथाक 42 (प्रकाशन व्यूरो सूचना विभाग उत्तर प्रदेश, लखनऊ

डेकन कालेज पोस्ट ग्रेजुएट एण्ड रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूरा, 953, (0205 (४०0०2०७7, ५0, [ ? 48

श्री शादीलाल जैन, आर०सी0 एच0 बर्ड एण्ड को 239 अब्दुल रहमान स्ट्रीट, बम्बई--3, 4960 |

नाथूराम प्रेमी, पृ० 290, भारत के प्राचीन राजवश, पृ0 457, उिक्रातश्ारक्'5 7१९००४॥ णा 06 8९६० ४07 $क्याइदिता' क्ाप्रडण7795, 983-84, ? 04

नाथूराम प्रेमी, पृ० 290, भारत के प्राचीन राजवश, पृ० 457, भारत के प्राचीन राजवश, पृ0 457,

वही, पृ0 457,

नाथूराम प्रेमी, पृ० 346,

वही, पृ० 346,, भारत के प्राचीन राजवश, पृ० 457,

वही, पृ० 346, वही, पृ0 457,

भारत के प्राचीन राजवश, पृ0 457,

नाथूराम प्रेमी, पृ० 346,

नाथूराम प्रेमी, पृ० 346, भारत के प्राचीन राजवश, पृ० 457, नाथूराम प्रेमी, पृ० 289--90 |

वही, पृ0० 289--90 |

वही, पृ० 289--90

वही, पृ० 288 |

वही, पृ० 290 |

वही, पृ० 290 |

[97 ]

94 95 [96

97 98 99 200 20] 202 203

204 205

206 207 206 209 240 2] 22 23 24

वही, पृ० 290 |

रिशशाइ075 #0फ7 २९०००, [7007००१, ? 7,

उिक्षातक्ाटद्वा5 6००४ णा ग6 $९क०॥ ए0 $क्याइतता /ए5०००5. 882- 863, ? 3

रिशश्षाइ0ा5 #४0फग २6०००, [00प्रणाणा, ? 7.,

नाडशइं09 0 ॥6?क॥0/8 [0979889, 2? 283

00 ? 285

नाथूराम प्रेमी, पृ० 286,

वही, पृ0 287 |

काव्यमाला सीरीज, ग्रन्थाक 9 |

हरिदास सस्कृत ग्रन्थमाला, ग्रन्थाक 268 (चौरखम्बा सस्कृत सीरीज वाराणसी 4966) |

हरिदास सस्कृत ग्रन्थमाला, ग्रन्थाक 55,

सपादक एव प्रकाशित - जैकोबी, जेड0 डी0 एम0 जी0 32 (4878) पृ० 509-34 |

नाथूराम प्रेमी, पृ० 284,

अपभ्रश जैनिग्रन्थ सग्रह छठवा प्रशस्ति

नाथूराम प्रेमी, पृ0 475, ?ललाइणा'5$ #0फ7 7२९००४, [7006प्रण700, ? 56, ?रिहशडणा'5 70फप्र 7१९००॥, र709प८0०), ? 37,

नाथूराम प्रेमी, पृ० 290 |

वही, पृ० 275 |

नाथूराम प्रेमी, पृ० 286 |

[96००४॥ 00686 ?0अशा4वप8, थाते (९४९४० पाएं 00079, 4953 कविकण्ठाभरण, द्वितीय सधि।

[ 98 |

245 26 2 28 29 220 22 222 223 224 225 226

227 228

22%

230 23 232 233 234

औचित्य विचारचर्च, पृ० 434 |

मुद्राततिलक द्वितीय विन्यास, पृ० 37 |

सुभाषितावली, श्लोक-3444,

वीशंताए 0 6 एशशाशक्ाब 2ज़ा2ड०ए, ? 276

४353 ४0०, [४ 7? 548

4क्‍6 (थ्रापाब। त&ता426 ४३१७५७३ 5894, ? ]02

4॥6 आपड2]6 0 076, ? 603

नाशंठताए 006 शा) [097859, ? 26]

ठ7र057, ४0०, शा, ? 86

लाइ0०9 0706 एतवक्षा ॥00 5888०07 47०॥/6०८एा८ट, ४०! 7? 47 20 7२७७ ७७87, ४४८४८/आ (06 99, 7? 6-62

20 7२७?७ 5.89, ४८४०7 (०08४ 99, ? 62 ज्ञाशणए 0 एताशा थातं 85४67 4706० ए76, ५०, [., ? 42

सर्प के आकार मे रचनाये की गयी है।

2970 7२०१. 4897, ४४६३४&॥ (याटा8 99, 7? 62, ॥6 टपॉफावों छ&ता326 0 ७0099 39924 ? 33.

इसी मदिर की उत्तर पश्चिम दिशा की ओर समीप ही बल्‍लभेश्वर महादेव का एक छोटा मन्दिर है, इसका भी शिखर टूट गया था लेकिन कुछ समय बाद इसके स्थान पर गुम्बद का निर्माण कर दिया गया | 7970 7२७७. 39$, ४/८४०ा (06, 99, ? 62-63. 5:

[ 070, ? 63,

[ 906, ? 63,

[ 0970, ९. 63,

[70 7२९७. 895, ४४८४४7। (ाएं०, 92, ? 98-06

[ 070, ? 98-02

[ 99 ]

233 236 237 2386 239 240 24| 242 243 244 245 246

]006, ? ]02,06

?0 रक्का 387 ८३ (०6 920, ? 00-02,

[फ्ाओं 08206७ एता9, ४० शा, ? 42]

क्‍008 ४७०॥, शा, ? 35

270 7२७० 689 ४६४इाछा (06, 907, [२ 24-2>

]70706, ? 26

[964, ? 27

लि ए0ा, 7%&, ? 55, ४0, शा, ? 26

साइज णी पिवाक्षा रात 78567 #70ए7आ००ए८, ४७०7, वव, ? 4 ]

स0 सू0, दसवा अध्याय

स0 सू0, दसवा अध्याय

वैदिक कालीन यज्ञवेदी ने निम्नलिखित क्रम से आधुनिक मदिर का रूप धारण किया-

(0) (वैदिकी वेदी) (0) डालमेन (पाषाणपद््‌टिका) (7) अस्थायी देवम्‌ (७) गिरि (४) आधुनिक मदिर त्रिवेन्द्रनाथ शुक्ल, भारतीय स्थापत्य,

पृ0 244

[200 ]

परमार कालीन आर्थिक जीवन

आर्थिक उन्‍नति के बिना अपेक्षित सामाजिक एव सास्कृतिक विकास सभव नही है। वस्तुत आर्थिक समृद्धि सास्कृतिक विकास का आधार होती है। परमार शासको का प्रशासन मालवा, वागड, मेवाड के कुछ हिस्से उत्तरी गुजरात और बरार के विस्तृत भूमाग पर विद्यमान था। इन सकेतिक भूभागों मे असमान जलवायु होने के कारण आर्थिक दशा का स्वरूप भी असमान ही था।

प्रशासन एव सभयता सस्कृति के विचार के क्षेत्र मे नगर एवं ग्य्रमो का विशेष महत्व होता है। परमारों ने उज्जैन, धारा मान्डू उदयपुर, भिलसा, शेरगढ, अर्थुणा, जालौर ओर किराडू आदि अनेक नगरो का निवेशन किया था। तत्कालीन अभिलेखो पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उस समय के नगर एव ग्राम काफी उन्‍नत दशा में थे। इस उन्नति के आधार अनेक प्रकार के उद्योग थे।

उद्योग

देश की आर्थिक दशा मे उद्योग धन्धे रोढ का काम करते है। यह अवश्य है कि अपनी प्रकृति एव कार्यों की दृष्टि से आर्थिक विकास के साथ उद्योग धन्धो मे अनेक विविधताए है। भारत के कृषिप्रधान देश होने के कारण कृषि उद्योग को राज्य का प्रश्नय प्राप्त था।

4. कृषि उद्योग - परमार प्रशासन मे कृषि सर्वाधिक महत्वपूर्ण आजीविका थी प्राचीन परम्परा के अनुसार समाज मे वर्णव्यवस्था के साथ कार्य व्यवस्था भी अलग-अलग विभकत थी। यद्यपि धर्मशास्त्र के नियमो के अनुसार वैश्य जाति के लोगो को ही वाणिज्य एव कृषि करने का अधिकार प्राप्त था। परन्तु परमार युग मे कृषि कार्य वैश्यो के अतिरिक्त शूद्र भी करते

[20 ]

थे। ब्राह्मण वर्ग दान मे प्राप्त भूमि पर खेती करने के लिए अन्य जाति के लोगो को नियुक्त करता था। जो सम्भवत शूद्र वर्ग के होते थे।

साधारतया कृषि उद्योग के उपकरणो के विषय मे कुछ कहना कठिन है। कृषि मे जुताई के लिए हल बैलो जैसे पुराने साधनो का उपयोग होता था।

उपज - इस समय की मुख्य उपजो मे धान गेहूँ, जौ, मूग, मसूर, चना, उरद, कोदो (एक प्रकार का मोटा अन्न) और तिल की गणना की जाती थी। व्यापारिक दृष्टि से अफीम, नील, गन्ना और कपास की उपज महत्वपूर्ण थी ।' इसक अतिरिक्त नारियल, सुपाडी और मजिष्ठा आदि की भी उपज के उल्लेख मिलते है।*

सिचाई व्यवस्था - उपज की वृद्धि के लिए प्राकृतिक साधनो के अतिरिक्त कृत्रिम साधनो का भी उपयोग किया जाता था। परमार प्रशासक प्राचीन शासको की भाति तालाब, नहर, कुए आदि का निर्माण कराना अपना कर्त्तव्य समझते थे। इस कर्तव्य के मूल मे सिचाई व्यवस्था मुख्य रूप से निहित होती थी वाक्पतिराजमुज ने मुजसागर नामक एक तालाब, भोज ने भोजसागर तालाब तथा एक विस्तृत झील और उदयादित्य ने उदयसागर का निर्माण कराया था।* नरवर्मम के समय भी एक तालाब का निर्माण किया गया था। महाकुमार रहिश्चन्द्र ने बावली, कुये एव तालाबो से युक्त भूमि दान दी थी।” इसी प्रकार आबू क॑ परमार शासक पूर्णपाल की बहिन लाहिणी ने भी एक तालाब का निर्माण कराया था। राजाओं के अतिरिक्त जन सामान्य भी इस ओर पर्याप्त सक्रिय था। उदयादित्य के शासनकाल मे जनन नामक एक तेली (पटेल) ने एक तालाब का निर्माण कराया था। अन्य अभिलेखो मे थिमडाये (मारवाडी कुआ) और हरहटूट जैसे सिचाई के उपकरणो को दान देने के उल्लेख मिलते है|

2 स्थानीय उद्योग धन्धे - विदेश व्यापार के साथ स्थानीय उद्योगो को भी पर्याप्त प्रश्नय प्राप्त था। उपलब्ध साहित्य एव अभिलेखो के अनुसार उनका विवरण निम्नलिखित है -

[202 ]

वस्त्रोद्योगय - यह भारत का सबसे प्राचीन उद्योग माना जाता है। परमारकालीन उद्योगों मे भी इसका मुख्य स्थान था। भोज के विवरणो मे कौषेय, कर्पास वार्क्ष और दूकल नाम चार प्रकार के वस्त्रो के उल्लेख मिलते है। क्षीरस्वामी ने इन्हे दूसरे शब्दों मे रेशनी, सूती, और वृक्षो की छाल से बने हुए वस्त्रों के नाम से अभिहित किया है।” कच्चे माल, उनके प्रकार और स्थान विशेष एव अन्य भिन्‍नताओ के कारण उपर्युक्त वस्त्रो मे भिन्‍नताओ का होना स्वाभाविक था। इसी भिन्‍नता के कारण ही ये वस्त्र चार जाति के माने जाते थे। दक्षिण पूर्वी समुद्रतट पर रहने वाले कृमि सफेद तथा बारीक रेशे उत्पन्न करते थे। उन देशो से निर्मित वस्त्र ब्राह्मण जातीय कहलाते थे। पश्चिमी समुद्रतट के पीले और सफेद वर्ण के रेशो से निर्मित वस्त्र क्षत्रिय जातीय कहलाते थे। और सर्वसाधारण स्थानो पर पाये जाने वाले कृमियो के मोटे रेशों से बने रेशमी वस्त्र शूद्र जातीय माने जाते थे।” इसी प्रकार ऊनी वस्त्र भी चार प्रकार के होते थे।* ऊची नीची जातियो के कच्चे माल से बनने वाले वस्त्र उपयोगिता की दृष्टि से हेय माने जाते थे।” भोज ने तो यहॉ तक कहा कि ऐसे वस्त्र हानिकारक होते है।

काष्ठ उद्योग - अन्य प्रश्नय प्राप्त व्यवसायो की तरह काष्ठ व्यवसाय भी कम महत्वपूर्ण था। काष्ठ व्यवसायिओ का एक स्वतत्र वर्ग था जो उपयोगानुसार सिहसान, खटिया, पीठ और मचियाँ आदि बनाता था। सिंहासन - भोज के अनुसार उस समय राजाओ के लिए सामान्यतया चार हाथ लम्बे तथा चौडे और चार ही हाथ ऊँचे परिमाण के- शुद्ध काष्ठ के सिहासन बनते थे। उनमे सोलह मोढे (पाये) ओर चढने के लिए दो सीढियाँ बनी होती थी।* ये सिहासन आठ प्रकार के होते थे, जो सूर्य, चन्द्र आदि भिन्न-भिन्न ग्रहों की दशाओ में उत्पन्न राजाओ के लिए उपयोगी माने जाते थे| उनका नाम क्रमश पद्म, शख, गज, हस, सिह, भृग, मृग, और हय होता था |* इन सिहासनो का निर्माण सम्बन्धी विविध विधियो तथा नाप एव उनमे जटित होने वाले रत्नो आदि का विवरण निम्न लिखित है -

[203 ]

गृहदशा भेद से सिहासन निर्माण” _-

दशा | नाम कं गोडा | पुतलियाँ| धातु, | वस्त्र |चिहून | फल (पाया) पद्म | गाम्भारी सोना, | लाल | कमल | यशदायक | पद्मराग

सफेद सुखदायक लाल | गज | सातप्राज्य

मूगा दायक पीला | हस | अनिष्टका

पुष्पराज रक

क्र नीला

(| का कद & (का: 5

बक। (। कि से ब्ज्ज्के:

05) 0) रॉ डे

मग शाल

| || 48 ते मं

चन्दन

0)

बुध

|

वृहर | भूग | चम्पक सोना, भौरा | शत्रुनासक पति मरकतम

णि न्‍ शुक्र | मृग

सोना, | नीला | हिरण | विजय ड्न्द्र | दायक नील

सोना, विचित्र विजयदाय विविध | रग

|_$ -प 0) 0)

0) कक प्ण़

शनि | हय मेसर

खटिया - काष्ठ से बनी घरेलू उपयोगी वस्तुओ मे खटिया का विशेष महत्व है। परमारों के समय, विजया, पुष्टि, क्षमा, तुष्टि, सुखामन, प्रचण्डा, और सर्वतोभद्रा नामावली आठ प्रकार की खटियाओ का उल्लेख मिलता है।” ये प्रकार नाप की विभिन्‍नताओ के कारण होते थे।

सिरहाने की पाटी को व्युपथान और पैताने (पैर की ओर की पाटी) को निरुपक तथा बगल की दोनों पाटियो को आलिगन के नाम से सम्बोधित किया गया है चार-चार हाथ के आलिगन क्रमश दो-दो हाथ के व्युपथान और निरुपक तथा एक-एक हाथ के चार पायो वाली चारपाई होती थी। इन उपकरणो के नाप का आकलन करने पर इनसे बनी हुई खटिया सोलह हाथ की मानी जाती थी। इसके अतिरिक्त 48 से 30 हाथ तक के नाप वाली खटियाओ का भी उल्लेख मिलता है। विशेष विवरण अग्रलिखित विवरणिका द्वारा प्राप्त किया जा सकता है” -

आठ प्रकार की खटियाएं 0 8 8 मा

/ फट जा जा कि विज आजा / स्कीम _ जप

इन उपर्युक्त खटियाओ मे 46 हाथ वाली खटिया सर्वसाधरण के लिए उपयोगी समझी जाती थी और अन्य खटियाए सूर्य आदि ग्रहो की दशाओं मे उत्पन्न राजाओं के लिए ही उपयोगी होती थी।”

पीठ - पीठ निर्माण के लिए गाम्मारी, पनस, चन्दन, बबूल, और पलास की लकडियाँ उपयुक्त समझी जाती थी।“

डोली - सोना, चॉदी, तॉबा आदि धातुओं से जडी हुई विभिन्‍न प्रकार की डोलियो का निर्माण एव उनका विक्रय किया जाता था। परिमाणो की भिन्‍नता क॑ कारण ये विजया, मगला, क्रूरा आदि प्रकार की होती थी। जो निम्नलिखित तालिका में देखी जा सकती है|”

- चतुर्थ प्रकार की खटिया के गोडो की नाप का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। इस सम्बन्ध मे “सर्वविशतिका" मे इतना ही उल्लेख है परन्तु यह अनुपपन्न है। भोज द्वारा निर्दिष्ट प्रथम तीन प्रकार की खटियाओ के आधार पर गम्भीरता से विचार करने पर तीन हाथ होकर बाइस हाथ ही ठीक प्रतीत होती है।

- यद्यपि भोज ने आठ प्रकार की खटियाओ का निर्देश किया है परन्तु विवरण प्रकार के ही मिलते है। छठे और सातवे (सुखासन, प्रचण्डा) खटियाओ की नाम आदि का उल्लेख नही है। यहाँ उपर्युक्त अन्य खटियाओ के परिमाणो के आधार पर इनकी योजना प्रस्तुत की गई है।

डोली निमार्ण भेद

सख्या नाम मध्य का नाम दोनो फाश्वों का नाम 4 मगला 2.2 हें

_उन्‍्कक, ज्ब्क्क जम: ज्ब्य्ा

]

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इस विवरणिका से ज्ञात डोलियो की नाम के अतिरिक्त एक और विशेषता यह थी कि यात्रा के समय इनमे सकेत सूचक पट्ट लगाये जाते थे| जिससे डोलारुढ व्यक्ति के गम्य स्थल का सकेत मिलता था। भोज ने इन सकेत पटटो के सम्बन्ध मे कहा है कि प्रस्थान करने वाली दोलाओ मे हाथी, युद्ध मे सिह, भ्रमण मे हिरन, क्रीडा मे भ्रमर शत्रु राज्य में प्रवेश के लिए सर्प और दानकार्य मे जाने वाली दोलाओ मे बैल का चित्र अकित किया जाना चाहिए।”

इस प्रकार बनी हुई दोलाओ के छाजनवार और बिना छाजनवार होने के भेद से दो प्रकार होते थे। छाजनवार दोलाये वर्षा और युद्धस्थल आदि प्रतिकूल परिस्थितियो के लिए उपयुक्त होती थी।”*

पुन ये दोलाये भारवाहको की दृष्टि से कई प्रकार की होती थी। चार व्यक्तियो द्वारा वहन की जाने वाली दोला को चतुर्दोला और आठ व्यक्तियो द्वारा वहन की जाने वाली को अष्टदोला कहा जाता था।” डोला निर्माण के लिए चम्पक, पनस, नीम, चन्दन आदि की नकडियो का उपयोग किया जाता था

नौका - जलमार्ग से यात्रा करने के लिए नौकाओ की आवश्यकता सर्वविदित है। अन्य उद्योगों की तरह उस समय नौका निर्माण की कला भी खूब उन्‍नत अवस्था मे थी। राजा भोज ने नौकाओ के लिए निम्नलिखित काष्ठ भेद बताया है।”

इनमे क्षत्रिय वर्ण की लकडी से निर्मित नौका सर्वश्रेष्ठ मानी जाती थी मिश्रित वर्ण के काष्ठो से भी नौका बनाने का प्रचलन था किन्तु उसे श्रेष्ठ नही माना जाता था। किसी एक वर्ण की लकडी से बनी नौकाए ही उत्तम समझी जाती थी।”

बनावट की दृष्टि से नौकाये सामान्य और विशेष दो प्रकार की होती थी।

सामान्य - सामान्य नौकाए दस प्रकार की होती थी जो निम्नलिखित विवरणिका मे दृष्टव्य है -

सामान्य बनावट

कआ 0 ज्य 5 उधर [० कि | 0७ शा

इनमे कुछ और कुछ अशुभ मानी जाती। जैसे, भीमा अभया और

गर्भरा नामक नौकाए शुभ होती थी।

विशेष - विशेष प्रकार की नौकाओ के दो भेद होते थे। दीर्घा और उन्‍नता / दीर्घा नौका नाप भेद से दस प्रकार की होती थी। दो राजहस्त लम्बी, लम्बाई के आठवे हिस्से के बराबर चौडी तथा लम्बाई के दसवे हिस्से के समान ऊँची परिमाण की नौका दीर्घा कहलाती थी। इसी प्रकार एक-एक राजहस्त वृद्धि के क्रम से तरणि, लोला, गत्वरा, गामिनी, तरि, जपाला, प्लाविनी, धारिणी, और बैगिनी नामक दस प्रकार की नौकाए होती थी जिनका विवरण निम्नलिखित तालिका मे देखा जा सकता है, प्रत्येक राजहस्त 40 साधारण हाथ के बराबर होता था।

दीर्घा नौकाएं *

4 दीर्घिका 20 हाथ 2 4/2 हाथ 2 हाथ

हु की 3 ॥«म 2.0 मिड :आद बा. ६.8 ०« कक. ता बाबा > आन,

[209 ]

इनमे लोला गामिनी और प्लाविनी नौकाये कष्टकारक मानी जाती थी।* उन्‍नता नौका भी परिमाणो के क्रम से पॉच प्रकार की होती थी, परन्तु

उनकी लम्बाई, चौडाई और ऊँचाई समान होती थी। इसके पाच प्रकारों को निम्नलिखित तालिका मे देखा जा सकता है -

उनन्‍नता नौकायें

4 राजहस्त 40 हाथ

हि

कि [बा गा [ण' लि हक [बह [जाला [हब बा [बा

इनमे अनुर्द्धा और गर्भिणी नामक नौकाएं निकृष्ट श्रेणी की समझी जाती थी।*

उपरोक्त सभी प्रकार की काष्ठ नौकाओ को विभिन्‍न रगो एव सोना, चादी आदि धातुओं से अलकृत किया जाता था। चार मस्तूलो वाली नौका को सफदे रग से, तीन वाली को लाल, दो वाली को पीले और एक मस्तूल वाली नौका को नीले रग से रगा जाता था [ साथ ही नौकाओ के अग्र भाग मे सिह, वृषभ, सर्प, गज मेढक और मनुष्य के मुख की आकृतिया बनायी जाती थी।” आजकल भी नौकाओं के अग्रभाग में सिह, वृषभ, और मनुष्य की आकृतियाँ पाई जाती है।

[20 ]

उपर्युक्त सामान्य और विशेष प्रकार की नौकाओ के पुन दो भेद होते थे - सगृह और निगृह। सगृह नौकाये भी तीन प्रकार की होती थी - सर्वमदिर, मध्यमदिर तथा अग्रमदिर। जिस नौका के पूरे हिस्से मे कमरा बना होता था, उसे सर्वमदिर, जिसके मध्य भाग मे कमरा हो उसे मध्यमदिर और जिसका कंवल अग्रभाग मे कमरा हो उसे अग्रममन्दिर नौका कहा जाता था।” मध्य मन्दिर नौकाये आजकल भी पायी जाती है, जिन्हे “बजरा” के नाम से सम्बोधित किया जाता हे। काष्ठ से निर्मित कघी जैसी अन्य छोटी-2 वस्तुओ की भी चर्चाए प्राप्त होती है।*

शीशे का व्यवसाय - काच का भी एक स्वतत्र उद्योग होता था। गिलास और दर्पण इसके मुख्य निर्माण थे। दर्पण के विषय मे कुछ विशेष उल्लेख मिलते है। नापभेद से ये भिन्‍न-भिन्‍न नाम के होते थे। जिनका उपयोग वर्ण विशेष के लोग करते थे। एक वित्ता परिणाम का भव्य नामक दर्पण होता था। इस प्रकार चार-चार अगुल वृद्धि के क्रम से सुख, जय, क्षेम नामक दर्पणो का उल्‍लेख मिलता है। जिनका उपयोग ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यो के लिए विहित था। चार अगुल परिमाण वाला वर्गाकार विजया नामक दर्पण सभी वर्णो के लोगों के लिए उपयुक्त समझा जाता था।* इसके अतिरिक्त मनुष्य की लम्बाई के बराबर, उसकी आधी तथा चौथाई लम्बाई के शीशे (दर्पण) बनते थे।* काच की कघी का भी उल्लेख मिलता है।? जो इस युग की एक विशेषता थी।

धातु उद्योग - इस क्षेत्र मे भी पर्याप्त उन्‍नति हुई। लोहा, सोना, चॉँदी, पीतल, आदि धातुओ की विभिन्‍न चीजे बनती थी।

लोहे के कई प्रकार के औजारो का निर्माण किया जाता था। इनमे भाला, कवच, बर्छी, बाण और खड्ग मुख्य थे।' इस समय के खड़्गो की निर्माण विधि से सबन्धित कुछ विशेष बारीकियो का उल्लेख मिलता है। कलि, उन्ड्र आदि कई प्रकार के लौह भेद माने जाते थे। खड्ग निर्माण के

. 42]

लिए कंवल बज्र नामक लोहे का ही उपयोग किया जाता था। इतना ही नही इसके निर्माण मे सूक्ष्मातिसूक्ष्म दृष्टि रखी जाती थी क्योकि अग, रूप, जाति, नेत्र, अरिष्ट और ध्वनियो के अनुसार ही शुभ और अशुभ खड्गो की पहचान होती थी |

लोग आभूषणों के बडे शौकीन थे। स्त्री पुरुष दोनो ही उसका उपयोग करते थे। सोने, चॉँदी के विभिन्‍न प्रकार के आभूषण बनते थे जिन्हे शरीर के विभिन्‍न अगो मे धारण किया जाता था। ताबा, पीतल आदि का भी स्वतत्र व्यवसाय था। इससे विभिन्‍न प्रकार के बर्तन बनते थे। बर्तन व्यवसायी को ठठेरा कहा जाता था।

रत्नोद्योग - राजकीय प्रसाधनों मे रत्नों का विशेष महत्व होता है। विवेच्यकाल मे भी जौोहरी विभिन्‍न प्रकार के रत्नो का व्यवसाय करते थे। जिनमे से कुछ मुख्य रत्नो का विवरण निम्नलिखित है। हीरा - यह ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्र जाति के क्रम से क्रमश श्वेत रक्त, नील और पति वर्ण का होता था। मूगा - यह भी चार वर्णों का माना जाता था। लाल ब्राह्मण सिदूरिये रग का क्षत्रिय, पलास के फूल की तरह आभा वाला वैश्य और रक्‍त कमल के वर्ण का शूद्र जातीय मूगा समझा जाता था।” इसी प्रकार मोती, वैद्वर्य, इन्द्रनीलमणि, पुष्पाज और स्फटिकमणि के भी रगों के आधार पर कई प्रकार होते थे |”

हाथी दाँत का व्यवसाय - इससे पीठ और कघी जैसी वस्तुओ का निर्माण किया जाता था।”

सीगो की भी कंघधियाँ बनती थी जिनके लिए हिरण और भैस की सीगो का अधिक उपयोग किया जाता था।”

लोग श्रूगार मे अपने मुख्य रूप से इत्र का उपयोग करते थे[” जिससे स्पष्ट होता है कि लोग इत्र बनाने की कला से भली प्रकार परिचित थे।

[22 ]

बास का व्यवसाय - बास की डोलची, पिटारी जैसी वस्तुए बनती थी। किन्तु इनका निर्माण करने वाले शूद्र अथवा अन्त्यज थे और गावों से अलग रहकर अपना कार्य करते थे ।[*'

शिल्प व्यवसाय - विभिन्‍न शिल्पियो के अपने स्वतत्र वर्ग होते थे। भोज से ज्ञात गृहनिर्माण विधि को देखने से उस समय के लोगो की शिल्पकला मे निपुणता का ज्ञान प्राप्त होता है।

इन उपर्युक्त व्यवसायो के अतिरिक्त मोची, बढई, मालाकार, रगरेज, दर्जी, तेली, मछुये और धोबी आदि वर्गों के लोगो के अपने स्वतत्र व्यवसाय थे।

3. वाणिज्य

कृषि के अतिरिक्त वैश्य एव कुछ अन्य लोग व्यापार मे सलग्न थे जिन्हे बनिया या वेष्ठिन कहा था। व्यापार दो प्रकार का होता था। स्थानीय एव विदेशी /स्थानीय व्यवसाय के अतर्गत व्यवसायी राज्य के भीतर के गावो एव नगरो मे अपनी दुकाने खोलकर दैनिक आवश्यकता की वस्तुओ एव उस स्थान से सम्बन्धित अन्य वस्तु विशेष को खरीदते और बेचते थे।* छोटे-छोटे गावो मे जहाँ तहाँ साप्ताहिक या विशेष पर्वों पर बाजारे लगती थी जिनमे समीपवर्ती व्यवसायी भी भाग लेते थे। इस प्रकार की बाजारे स्थानीय प्रशासको के नियन्त्रण मे आयोजित की जाती थी। जिससे इनमे भाग लेने वाले व्यवसायी चुगी विक्रीकर आदि विभिन्‍न करो कों चुकाते थे।* तत्कालीन साहित्यिक प्रमाणो से यह भी ज्ञात होता है कि बडे-बडे व्यापारी देशी व्यापार के साथ-साथ विदेशी व्यापार भी करते थे। वे जहाजों द्वारा विदेशी व्यापार भी करते थे। वे जहाजो द्वारा सिहलट्दीप तथा सुवर्णभूमि जैसे अनेक सथानो में व्यापारिक वस्तुओ को खरीदने और बेचने जाते थे।” पेरीप्लस के अनुसार भडोच का बन्दरगाह इस दृष्टि से अत्यन्त महतवपूर्ण

[23 ]

माना जाता था। अपनी भौगोलिक स्थिति मे यह बन्दरगाह मालवा से होकर प्रवाहित होने वाली नर्मदा नदी एव समुद्र के सगम स्थल पर बना था। यहाँ से व्यापारी लोग भारत के भीतरी हिस्सो से लायी हुई अनेक वस्तुओं को विदेशो मे समुद्री मार्ग से भेजते थे। पेरीप्लस के अनुसार ओजैन (उज्जैन) से व्यापारिक वस्तुए भडोच भेजी जाती थी।” यहा उज्जैन से तात्पर्य मालवा से है। लाटदेश पर परमारो का पूर्णत अधिकार होने के कारण भडौच के बन्दरगाह पर भी इनका अधिकार था।” जिसे बनाये रखने के लिए कई बार परमार शासको को चालुक्यो तथा यादवो से मुठभेडे लेनी पडी थी।

मगध, सौराष्ट्र, कलिग नेपाल तथा वाराणसी से भी परमारो के व्यापारिक सम्बन्ध थे।” तत्कालीन साहित्य मे चीनशुक शब्द के प्रयोग से यह प्रतीत होता है कि इनका व्यापार क्षेत्र चीन देश तक विस्तृत था ['

व्यापारिक वस्तुए - मजीठ, गुड, नमक, जौ, चीनी, सूत, कपास, नारियल, मक्खन तिल का तेल, सुपाडी और पशुओ के चारे एव अन्य दैनिक उपयोग की वस्तुए व्यापार विनिमय मे प्रयुक्त होती थी। मगध, सौराष्ट्र, कलिग, नेपाल और वाराणसी से तलवारो का व्यापार होता था। एवं चीन देश से रेशमी कपडे आयात किये जाते थे ।*

व्यपार प्रणाली - विदेशो से व्यापार करने के लिए व्यापारी अपने अलग-अलग गिरोह बनाकर यात्रा करते थे।” शेरगढ शिलालेख मे एक तैलकराज का उल्लेख मिलता है जो तेली समाज का मुखिया था।” इसी प्रकार नाविको का भी अपना सगठन (श्रेणी) होता था। तारक चन्द्रकेतु द्वारा नाविको का मुखिया बनाया गया था।

_ख. मुद्रा व्यवस्था

मानवीय आवश्यकताओ की पूर्ति हेतु विनिमय के लिए मुद्रा का विशेष महत्व होता है। इसके परिज्ञान से ही किसी देश की आर्थिक नीति एव

[24 ]

उसकी दशा का पूर्ण ज्ञान हो सकता है। परमार कालीन समाज मे विनिमय के इस माध्यम को दीनार, द्रम, रूपक, कार्याषप्र और पण आदि कई नामो से सबोधित किया जाता था। ये मुद्राये धातु भेद से चार प्रकार की होती थी। - स्वर्णमुद्राये धातु भेद से चार प्रकार की होती थी - स्वर्णमुद्राये, रजत मुद्राये, ताम्र मुद्राये और मिश्रित धातु की मुद्राये। इन मुद्राओ के सापेक्षिक अनुपात मे अनेक भिन्‍नताये होती थी। ये भिन्‍नताए आर्थिक नीति के अनुसार धातुओ की मिलावट की दृष्टि से होती थी।

परमारयुग के उपलब्ध सिक्‍को का आनुपातिक दृष्झ्ि से विवरण प्रस्तुत किया गया है -

दीनार - मेरुतुग ने उज्जैन के विक्रमादित्य एव भोज के सदर्भ मे दीनार नामक सिक्‍के का उल्लेख किया है। ठयक्रपेरू के अनुसार यह सोने का एक सिक्‍का था। जो मूल्य मे चार माशों के बराबर होता था।*

पारुत्थद्रम - यह मुद्रा चॉदी की बनती थी।” नरवर्मन ने जैन विद्वान जिनवललभ की विद्वता पर प्रसन्‍न होकर पुरस्कार स्वरूप उसे तीन लाख पारुत्थद्रम दिया। किन्तु त्यागशील सन्‍्यासी ने केवल दो पारुत्थद्र लेना ही स्वीकार किया था।” सी0०डी0 दलाल के मतानुसार यह एक विशेष प्रकार का सिक्‍का होता था। जिसे श्रेष्ठ पारुत्थद्रम और श्रीमत पारुत्थद्रम के नाम से भी अभिहित किया जाता था।”

समीक्षात्मक दृष्टि से विचार करने पर पारुत्थद्रम का मूल्य आठ सामान्य द्रम के बराबर ज्ञात होता है।* चूँकि एक द्रम 65 ग्रेन का होता था, अत एक पारुत्थद्रम 65 » 8 520 ग्रेन का माना जाएगा।

द्रम -- परमार युग का सर्वप्रमुख सिक्का माना जाता था।” द्रम ग्रीक द्रम शब्द का ही शुद्ध रूप है जिसका वजन लगभग 65 ग्रेन होता था।* इस सिक्‍के की धातु के विषय मे पर्याप्त मतभेद है। इस सिक्‍के की धातु के

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विषय मे पर्याप्त मतभेद है। पुष्पानियोगी के अनुसार ने यह सोना चादी और ताबे का होता था।* अशोक कुमार मजुमदार और अल्टेकर के मत में यह कंवल साने ओर चॉदी से ही निर्मित होता था।” किन्तु डॉ0० डी0 आर0 भण्डारकर उसे केवल चॉदी का ही सिक्‍का मानते है।” लल्लनजी गोपाल एव मिराशी महोदय ने भी भडारकर के मत का समर्थन किया है।”

इस सन्दर्भ मे एक उल्लेखनीय बात यह है कि उस समय चांदी और ताबे क॑ सिक्‍को का खूब प्रचलन था। सोने के सिक्‍को के बहुतकम उल्लेख मिलते है। केवल उदयादित्य ने अपने शासन काल मे सोने के सिक्‍के चलाये थे। अत यह कहा जा सकता है कि द्रम चाँदी का सिक्‍का होता था। गणितसार के अनुसार एक द्रम का मूल्य पॉच रुपक के बराबर माना जाता

था [*

रूपक - यह चॉदी का सिक्‍का होता था।* जिसके मूल्य के बारे मे मतभेद पाया जाता है। बी0एन0 पुरी के अनुसार इसका मूल्य द्रम के चतुर्थाश से बीसवा हिस्से ((/4 से 4,/20) तक के बीच का होता था। गणितसार के अनुसार यह द्रम का पाचवा भाग ( द्रम 5 रुपक) होता था।* इस रूपक का ही एक भेद अर्द्धरूपक था जो मूल्य में रूपक का आधा माना जाता था। चूँकि एक द्रम मे बीस विशोपक होते है, और गणितसार के अनुसार रूपक एक द्रम के पाँचवे हिस्से के बराबर माना जाता था। अत एक रूपक का मूल्य चार विशोपक माना जाना चाहिए |

टंक - मेरुतुग ने भोज प्रबन्ध के सन्दर्भ में टक नामक सिक्‍के का उल्लेख किया है।” यह सिक्‍का चॉदी का होता थां तथा वजन मे 4728 ग्रेन के बराबर होता था।* अल्टेकर के अनुसार इसका वजन एक तोला होता था [”

कार्षापण -- भोज ने एक स्थलपर कार्षापण नामक सिक्‍के का उल्लेख किया है।” यह भी चॉदी की ही एक मुद्रा थी परन्तु मूल्य मे यह टक से छोटी होती थी |” इसका वजन एक कर्षण अथवा 80 रत्ती होता था

[7?4+<& 7

बराह -- शेरगढ शिलालेख मे इस सिक्‍के का नामोल्लेख है।” इसका वजन

60 ग्रेन के लगभग होता था|

विशोपक - जयसिह के पेन्हरा शिलालेख मे इस सिक्‍के का उल्लेख मिलता है।' डॉ0० भडारकर के अनुसार यह ताबे का सिक्‍का होता था, तथा मूल्य मे द्रम का बीसवा ((/20 द्रम 4 विशोपक) हिस्सा माना जाता था। छवकूुकपेरू ने भी बीस विशोपक को एक द्रम के बराबर माना है।* मीराशी के मतानुसार द्रम का बीसवा भाग होने के कारण ही इसे विशोपक के नाम से पुकारा जाता था। वागड के परमार शासक चामुडराज के अर्थुणा शिलालेख मे वृषविशोपक नामक एक सिक्‍के का उल्लेख मिलता है।* मालवा के शासक उदयादित्य के शेरगढ शिलालेख मे इसका केवल वृषभ के नाम से उल्लेख किया गया है। यह विशोपक का ही एक भेद होता था।

इसी कारण इसे वृषभ और वृषि वृषभशोपक के नाम से पुकारा जाता था।

पण - यह सम्भवत. ताबे का सिक्‍का होता था, जो विशोपक का ही एक भेद

माना जाता था। एक पण का मूल्य पॉच कौडी के बराबर होता था

कपर्दक वोडी - कपर्दक वोडी नामक अन्य सिक्के का उल्लेख शेरगढ़ शिलालेख में मिलता है। एक पर्णशाला मे धूप जलाने के लिए एक कपर्दक वोडी दान दिये जाने का उल्लेख है।” सम्मवत यह भी ताम्बे का ही सिक्‍का

होता था, जिसका मूल्य चार पण या बीस कौडी के बराबर होता था।*'

उपर्युक्त विवरण के आधार पर परमारकाल की मुद्रा व्यवस्था निम्नलिखित तालिका मे स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।

दीनार

प्य. कर का * | न्‍न्‍ल कि हल लि रू का कक

5 पण या 20 (0 कपर्दकवोडी ताम्बा कौडी

इनके अतिरिक्त ठवकुरपेरु” ने अपने द्रव्य परीक्षा नामक ग्रन्थ मे इस समय की कुछ विशेष प्रकार क॑ सिक्‍को का उल्लेख किया है जो मिश्रित धातु के होते थे। सम्भवत इनमे आनुपातिक दृष्टि से जितनी चादी होती थी उतना ही उनका मूल्य माना जाता था। वजन मे ये मुद्राये प्राय 4 टक 40 यव के बराबर होती थी।” पेरु द्वारा निर्दिष्ट मुद्राओं का विवरण निम्नलिखित सारणी मे देखा जा सकता है।

क्रम स0

[28 ]

शिवगुढा मुद्रा. (१) 400 सिक्‍के में 4 तोला 3 माशा

2 खाल्गा मुद्रा. () 400 सिक्‍के में 4 तोला 8 माशा

3 गलहुलिया मुद्रा (१) 400 सिक्‍के मे 4 तोला 8 माशा

4 जकारिया मुद्रा (4) 400 सिक्‍के मे 4 तोला 8 माशा

5 कोकदिया मुद्रा (2) 400 सिक्‍के मे 4 तोला 8 माशा

दियालपुरीय मुद्रा (3) 400 सिक्‍के मे 4

तोला 8 माशा

7 | कृण्डलिया मुद्रा (4) 00 सिक्‍के मे तोला 8 माशा

कौलिया मुद्रा (5) 400 सिक्‍के मे 4

तोला 8 माशा

छद्यलिया मुद्रा (5) 00 सिक्‍के मे 4

तोला 8 माशा

40 सैलदित्तोगद मुद्रा (0) 400 सिक्‍के मे 4 तोला 8 माशा

44 | जनिया चित्तौरी मुद्रा (8) 400 सिक्‍के में 4 तोला 8 माशा

हर कक.

इसमे प्रथम चार सिक्‍को के वजन बारे मे कोई स्पष्ट उल्लेख नही मिलता है।

इन मुद्राओ के अतिरिक्त ठवक्रपेरू ने इस समय की कुछ मुहरो का भी उल्लेख किया है, जिनके नाम थे- वापडा, मलीट, सिहमार, और चौरमार। ये चाँदी की होती थी तथा खजाने मे इनका सचय प्राय द्रव्य को एकत्र करने की दृष्टि से किया जाता था। उपयुर्क्‍त चारो मुहरो का मूल्य क्रमश 44 तोला, 44 तोला 3 माशा, 43 तोला और 43 तोला चॉँदी होता था। मलीट और चौरमार का वजन एक टक होता था। परन्तु वापडा एव सिहमारा के बारे में कोई सपष्ट ज्ञान नही है।”

ग. मापतौल और बाट

ऐतिहासिक पृष्टिभूमि मे समय विशेष एव स्थान विशेष के आर्थिक दशा को समझने के लिए मापतौल के प्रणाली का ज्ञान आवश्यक होता है। विभिन्‍न पहलुओं के माप तौल की योजना भिन्‍न समयो में भिन्‍न-भिन्‍न रही है। यहाँ परमार प्रशासनिक माप-तौल को दृष्टि मे रखते हुए उपलब्ध विवरणो का निर्देश दिया गया है।

माप दूरी नापने के माप - दूरी की नाप मे सर्वप्रथम रेणु का नाम आता है। रथ के चलने से उडने वाले कणो को रेणु कहते है। भोज के अनुशार - 4 रेणु बालाग्र ( बाल की नोक) 8 बालाग्र 5 लिज्ञा (सिर का एक विशेष प्रकार का जूँ (लीख) 8 लिक्षा 5॥१ यूका (बडा जूँ)

8 यूका 4 यवमध्य

[220 ]

बालाग्रो आदि का उल्लेख कौटिल्य ने भी किया है।” सामान्यतया आठ यवमध्यो (जौ का मध्य भाग) का एक अगुल होता है। किन्तु परमार समय मे अगुल के तीन प्रकार के मापो का उल्लेख मिलता है।”

8 यवमध्य ज्येष्ठ अगुल 7 - मध्यम अगुल 6 -- कनिष्ठ अगुल

अगुल के गणना भेद के अनुसार लम्बाई नापने के विभिन्‍न नाप निम्नलिखित है -

[कल

साकमा आल

आल विदा बिता तल

3 4 ही ए्‌।

करपाद

तु ते

हि

प्रादेश शयताल

प्रादेश

2

शयताल गोकर्ण

न्न्ऊ ने

ज्वमपैक न्ग्न्ग्मे न्न्न््गो -+3।| (>> | 8, श्र कक हा कक हम] ब्क कक है] | च्क ] हि] हक] कफ 0] शक

प्रादेश

|) >>

406 रायताल

[22 ]

चौबीस अगुल प्रमाण नाप को एक हस्त कहा जाता है। हस्त तीन प्रकार के होते थे

8 अगुल प्रमाण का प्राशय (ज्येष्ठ) हस्त

7 हु साधारण (मध्यम) हस्त

6 है मात्राशय (लघु) हस्त

पुरो एव ग्रामो आदि के देवमदिरो, भवनों आदि के निर्माण और गलियो आदि मे, विभागीकरण मे “प्राशय” नाम हस्त का प्रयोग किया जाता था। तलो की ऊँचाई, स्तम्भो, जलृहो और सुरगादि मे 'साधारण' तथा कूप और वापी के प्रमाणो को नापने के लिए “मात्राशय” नामक हस्त का उपयोग किया जाता था [९

हस्तमापो के अतिरिकक्‍त दूरी नापने की तीन और विधियाँ प्रचलित थी |

4. कृषि भूमि की नाप विधि

2 राज एव पुर निवेश की मापविधि

3 मार्ग मापन प्रणाली

(4) हल - परमार अभिलेखो में भूमि माप के रूप मे हल शब्द का उल्लेख मिलता है। इसे भूहल और हलबाह नामो से भी सम्बोधित किया जाता था।” भोज ने चार हल, यशोवर्मा ने दो भूहल तथा-आबू शासक धारावर्ष ने दो हलवाह भूमि दान दी थी।” पाणिनी” पतजलि' 7 और बाणभट्ट जैसे प्राचीन ग्रन्थकारों ने भी भूमि नाप के सम्बन्ध मे हल शब्द का उल्लेख किया है। पुष्पानियोगी के अनुसार एक दिन मे एक हल द्वारा जोती गयी भूमि को एक हल भूमि कहा जाता था।* परन्तु एक हल से कितनी भूमि जोती जाती थी, यह अस्पष्ट है|

[222 |

उपरोक्त कथनो की समीक्षा से यह बात स्पष्ट है कि एक ओर काणे महोदय के अनुसार 6 बैलो द्वारा एक दिन मे जोती गयी भूमि को एक निवर्तन कहा जाता था।* दूसरी ओर मिताक्षरा में 200 हाथ वर्गाकार भूमि को एक निवर्तन कहा गया है।'” पुष्पानियोगी के अनुसार एक हल यानी दो बैलो द्वारा जाती गयी भूमि को एक हल भूमि कहा गया है।*” इन कथनो की परस्पर सामन्जस्यपूर्ण समीक्षा से यह प्रतीत होता है कि -

6 बेैलो से - हल से - जोती जाने वाली भूमि - काणे

-- 200 हाथ वर्गाकार भूमि - मिताक्षरा

4 निवर्तन

चूँकि एक हल मे दो बैल होते है ओर एक हल से जोती गयी भूमि एक हल भूमि होती हे, इसलिए 200 हाथ वर्गाकार तृतीयाश 66 2/3 वर्गाकार हाथ भूमि दो बैलों वाले एक हल के लिए उपयुक्त है। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि एक हल भूमि 66 2,/3 हाथ होती थी निवर्तन - तत्कालीन अभिलेखो मे भूमिनाप के सदर्भ मे निवर्तन भूमि का

449

एक ब्राह्मण को दान दी।” निवर्तमान नामक यह नाप कोई नवीन नाप नही

था, बल्कि भूमि नाप के सदर्भ मे इसका उल्लेख पहले से ही पाया जाता है| कौटिल्य ने भी निवर्तमान शब्द का उल्लेख किया है। तद्नुसार” -

4 अरत्नि दण्ड 40 दण्ड रज्जु 3 रज्जु निवर्तन होता था।

बोधायन धर्मसूत्र मे भी भूमिनाप के लिए निवर्तन का उल्लेख मिलता है। काणे महोदय के अनुसार 6 अथवा 8 बैलो ,द्वारा एक दिन मे जोती गयी भूमि को एक निवर्तन कहा जाता था। निवर्तन शब्द की व्युत्पत्ति की

[223 ]

ओर सकेत करते हुए उन्होने कहा है कि “नि” उपसर्ग “वृ” धातु से निष्पन्न निवर्तन शब्द का अर्थ एक दिन मे जोती जाने वाली भूमि है।“ मिक्षरा के अनुसार 200 हाथ वर्गाकार भूमि को एक निवर्तन कहा जाता है। अन्य प्रमाणो से भी स्पष्ट होता है कि एक निश्चित नाप वाली वर्गाकार भूमि को निवर्तन कहा जाता था।*

(2) भोज ने पुर एव ग्राम निवेश की दृष्टि से भूमि नाप की एक अन्य विधि निर्दिष्ट की है। जो निम्नलिखित है -

24 अगुल ॥4 हस्त” 40 हाथ 4 राजहस्त” 40 राजहस्त 4 राजदण्ड 40 राजदण्ड - 4 राजछत्र 40 राजदण्ड - 4 राजकाण 40 राजदण्ड - 4 राजपुरुष 40 राजदण्ड राजप्रधानी 40 राजदण्ड - राजक्षेत्र (3) मार्ग आदि की दूरी नापने के लिए निम्नलिखित सकेत मिलते है। 400 धनु क्रोश 2 क्रोश गव्यूति 4 गव्यूति - योजन

बाट - विवेच्य काल में वस्तुओ को तोलने के लिए विभिन्‍न प्रकार के बाटो के उल्लेख मिलते है।

[224 ]

कर्ष - आबू शासक चमुडराज के अर्घुणा शिलालेख मे कर्ष का नामोल्लेख मिलता है।” सस्कृत साहित्य मे इसका उल्लेख सोना, चादी और ताबा तालने के बाट के रूप मे मिलता है। कार्षापषण नामक सिक्‍के का वजन एक कर्ष होता है।” शुक्रनीतिसार के अनुसार कर्ष का वजन जैसा कि अधोलिखित विवरण से स्पष्ट है। 40 माशा होता था -

40 गुजा माशा

40 माशा 4+ कर्ष

40 कर्ष पदार्थ

40 पदार्थ प्रस्थ

परमारकाल मे कर्ष नामक बटखरे का उपयोग सोना चादी आदि धातुओ को तोलने के लिए नही बल्कि मक्खन और तेल तौलने के लिए

433

किया जाता था।

पालिका - तत्कालीन अभिलेखो मे पालिका नामक एक दूसरे बटखरे का भी उल्लेख मिलता है। इसे “पल” के नाम से गरी अभिहित किया जाता था। प० गौरी शकर हीराचन्द ओझा के अनुसार यह तोला वजन का तेल तौलने वाला एक बाट होता था।” इसका उपयोग तेल, घी, और

मक्खन तौने के लिए किया जाता था[* घटक - यह भी मक्खन, घी और तेल नापने का एक पात्र था [35

द्रोण -- द्रोण नामक मात्रा माप का भी उल्लेख मिलता है।* इसका उपयोग विशेष अन्न तौलने के लिए किया जाता था|? इसके वजन मे बारे मे मतभेद है। मनु” के अनुसार द्रोण आठ सेर वजन का एक बटखरा होता था। परन्तु कौटिल्य” ने भिन्‍न वजन वाले चार प्रकार के द्रोणो का उल्लेख किया है। जो निम्मलिखित है -

[ 225]

200 पल आयमान द्रोण (राजकीय आय को मापने योग्य)

487 4/2 पल -> व्यवस्थित द्रोण (सर्वमान्य के लिए उपयोगी)

475 पल - भावनीय द्रोण (क्षत्यमोगी)

462 4/2 पल अत पुर भाजनीय द्रोण (अन्त पुर के लिए उपयोगी)

कौटिल्य ने उपर्युकत चारो प्रकार के द्रोणो का विभाजन साढ बारह पल के अतर से किया है। परमार कालीन पार-नारायण शिलालेख के

443

सम्पादक विश्वेश्वरनाथ शास्त्री ने द्रोण का वजन 32 सेन आका है।

खारी - आबू शासक प्रताप सिह के पारनारायण शिलालेख मे खारी का उललेख मिलता है।” कौटिल्य के अनुसार एक खारी का वजन सोलह द्रोण के बराबर होता था। परन्तु उपर्युक्त चार प्रकार के द्रोणो मे यहाँ उन्होंने जिस द्रोण कस सकेत किया है इसका स्पष्टीकरण नही है। बानेर्ट महोदय ने एक खारी का वजन चार द्रोण के बराबर माना है। उपर्युक्त पारनारायण लेख के सम्पादक प0 विश्वेश्वरनाथ शास्त्री ने खारी को 36 सेर वजन का बाट माना गया है।

कुडव -- तत्लकालीन अभिलेखो मे कुडव का उल्लेख मिलता है।” जो बारह मुट्ठी का अन्न नापने वाला एक पात्र होता था।*

से - यह भी एक प्रकार का बाट था जिसका उपयोग प्राय. अन्न तौलने के लिए ही किया जाता था।” पंडित रामकरण के अनुसार से 45 सेर वजन का एक बाट था।“ परन्तु भडारकर महोदय ने इसका वजन चार माणा आका है।/*

माणी“ - इसका भी उपयोग सभवत अन्न मापने के लिए ही किया जाता था। यह आठ पल वजन वाला एक बाट था। परन्तु श्रीधर के अनुसार एक माणी का वजन चार हारी के बराबर माना जाता था [*

[226 |

हारक, वाप, मूटक - अर्घणा शिलालेख मे हारक, वाप और मूटक नामक बाटो का उल्लेख जौ तौलने के सन्दर्भ मे मिलता है।* किन्तु हारक और वाप के वजन के बारे मे विशेष विवरण अप्राप्त होने के कारण कुछ कहना कठिन है। मूटक से जौ के अतिरिक्त नमक भी तौला जाता था।

भरक - नामक बाट नारियल, गुड, मजील, सूत और कपारा तौलने क॑ लिए उपयोग में लाया जाता था। प्राकृत कोश मे इस बाट का भर के नाम से उल्लेख मिलता है। जिसका अर्थ “बोझ” माना गया है।*

मानक - अर्घ्णा शिलालेख मे नमक तौलने के सन्दर्भ मे इस बाट का उल्लेख मिलता है।* डॉ0 गागुली के अनुसार यह मानक आधुनिक मन (40 सेर) के बराबर होता था।” डॉ०0 भण्डारकार के अनुसार -.

4 पैल 4 पाव

4 पैल ॥4 पैली (4 सेर)

5 पैली 4 माशा (5 सेर)

4 माणा 4 से (20 सेर)

2 से 4 मन (40 सेर)

श्री धरकृत गणितसार” में भी कुछ सूची मिलती है। तदनुसार -

4 पावल 4 (सवा सेर)

4 पावल 4 पाली (सवा सेर)

4 पाली ८१ मणा ( सेर)

4 मणा ८5१ से (20 सेर)

[ 227 ]

42 मणा ८5 पदक < (60 सेर 4 मन 20 सेर)

4 पदक -“ 4 हारी (240 सेर 6 मन)

4 हारी ८5 ॥१ माणी (24 मन)

गणितसार में वर्णित यह बाट व्यवस्था उस समय मालवा में प्रचलित थां क्योंकि इस ग्रन्थ के टीकाकार ने कहा है कि यह बाट व्यवस्था कन्नौज, मालवा, और गुजरात में पायी जाती है।

उपर्युक्त भंडारकर और श्रीधर के विवरण तालिका में कोष्टावृत्त मन, सेर आदि आधुनिक बाटों का संकेत अलग से किया गया है। इस संकेत का आधार गांगुली ने एक मन - 40 सेर, और भंडारकर ने अपनी तालिका में 2 से - 4 मन का निर्देश किया हैं। इस प्रकार इस आधार को मान लेने पर परमारकालीन बाटों का आधुनिक माप स्पष्ट हो जाता है

घ. कर व्यवस्था

पुराकाल में राजस्व का क्षेत्र आज के राजस्व की तरह व्यापक नहीं था, परन्तु प्रशासनिक व्यय वहन के लिए राज्य कातिपय आर्थिक आय के

स्त्रोतों को अपनी नीति के द्वारा निर्धारित करता था। इसे ही एक शब्द ने

राजस्व के नाम से कहा जाता है। परमार शासक भेज ने कहा है कि राजकीय कोष ने कहा है कि राजकीय कोष राजा की आत्मा है, वही राजा का शरीर है और वही वास्तविक शासक भी है। धर्म की उच्नति और देश की रक्षा उसी पर निर्भर करती है। धर्म सुख और भृत्यां के पालन तथा आपत्तियों को दूर करने के लिए कोष की अत्यधिक आवश्यकता होती है धन से ही कुल संरक्षण और धर्म की वृद्धि होती है।” राज्य की आय के तीन मुख्य स्त्रोत थे- राजकीय कर, अर्थदंड और उपहार आदि |

[228].

राजकीय कर - कर की विविधता की ही तरह इस सम्बन्ध मे विद्वानों के मतो की भी विविधाताए है। करो एव कर निर्धारण की नीति का एक स्वतत्र इतिहास है जो एक अतिरिक्त विषय है। कर शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख उत्तरवैदिक काल मे भूमिकर के रूप मे मिलता है।

465

परमार अभिलेखो मे भाग भोगकर शब्द का उल्लेख मिलता है। फलीट के अनुसार भागभेग को मनोरजन कर के नाम से अभिहित किया जाना चीहिए।” परन्तु कुछ विद्वानो ने इसे एक स्वतत्र कर मानकर भाग, भोग और कर नामक तीन वर्गों मे विभकत किया है।*

भाग - घोषाल, अल्टेकर, एव कीलहार्न महोदय के अनुसार अन्न के रूप मे राजा को दिये जाने वाले उपज के अश को भाग कहते थे।” यह दूसरी बात है कि राज्य को दिये जाने वाले इस अन्न का अश विभाजन किस अनुपात मे हो। भिन्‍न-भिन्‍न समयो मे इस कर की मात्रा भिन्‍न-भिन्‍न नहीं है। इतिहास की गति के साथ-साथ आनुपातिक अश विभाजन मे अनेक भिन्‍नताये आई या अन्न प्राकृतिक साधनों के आधार पर भिन्न-भिन्न अशो का आनुपातिक विभाजन होता रहा हो। धर्मशास्त्रो के अनुसार उपज का 4/4 से 4/42 हिस्सा राजा को कर के रूप मे देय होता था।” शुक ने कहा है कि नदी द्वारा सिचित भूमि की उपज का 4,//2, तालाब और कुओ के जल से सीची जाने वाली भूमि का 4/4 और असर तथ पहाडी भूमि की उपज का 4/6 भाग राज्य को कर के रूप मे दिया जाता था।” सोमेश्वर के अनुसार उपज का 4,/6, 4/8 और 4,/42 भाग अन्न कर के रूप मे देय होता था।” सोमेश्वर के अनुसार उपज का 4,/6, 4,/8 और 4 /42 भाग अन्न कर के रूप में देय होता था। एव सिचाई के श्रम को ध्यान मे रखकर अपनायी गयी थी। पाल शासक धर्मणाल के एक लेख मे इस कर को वसूल करने वाले अधिकारी को षष्ठाधिकृत कहा गया है। *“बषष्ठाशवृतेरपिधर्म एषा””* जैसे कथनो से तथा

|72

सम्भवत ये भिन्‍नताये उत्पादन

[229 ]

ऊपर के विवरणों मे 4/6 अनुपात वाले कर के सर्वनिष्ठ होने से ऐसा प्रतीत होता है कि परमार प्रशासन मे भी उत्पत्ति का 4/6 अश मे ही कर के रूप में राजा को देय रहा होगा।

भोग - यह कर का दूसरा वर्ग है जो कि समयानुसार फल, फूल, लकडी आदि वस्तुओ के रूप मे प्रतिदिन वसूल किया जाता था |॥75 इसकी वसूली के लिए स्थानीय अधिकारी नियुक्त किये जाते थे। जो वस्तुओ के रूप मे प्रतिदिन कर वसूल करते थे |” आरए0 के0० दीक्षित” और ए0 के0 मजूमदार के अनुसार भोग कर आठ प्रकार का होता था।” - (4) निधि (खजाना), (2) निक्षेप (भूमि मे रखा हुआ धरोहर) (3) पाषाण (खनिज), (4) सिद्ध (उपजाऊ भूमि), (5) साध्य (अति परिश्रम से उत्पन्न की ययी उपज), (6) जल (जलाशय, कुण्ड, बावली आदि) (7) अक्षिणी (वर्तमाआमदनी) और (8) आगामी (भविष्य मे प्राप्त होने वाला धन)। इन अष्ट भोगों का उल्लेख स्मृतियों मे भी मिलता है।” जहाँ तक परमार शासको का सम्बन्ध है निधि, निक्षेप और सिद्ध नामक तीन प्रकार के भोग करो का उल्लेख मिलता है।” सम्भवत परमार प्रशासन में उपर्युक्त आठो प्रकार रहे हो, किन्तु परिस्थिति विशेष क॑ कारण उनमे से केवल तीन का ही निर्देश किया जा सका हो। या उस समय इन तीनो का ही प्रचलन रहा हो।

कर - राज्याश का तीसरा वर्ग कर के नाम से रूड था। आर० के0 दीक्षित के अनुसार स्थानीय कर को ही कर कहा जाता था, किन्तु इस मत की ग्राहयता के विषय में साधारणतया कुछ कहना कठिन है 484 लक्ष्मी धर के अनुसार कृषकों से धन की जो निश्चित राशि वसूल की जाती थी उसे कर कहा जाता था।” हेमचन्द्र के अनुसार कृषकों से धन की जो निश्चित राशि वसूल की जाती थी उसे कर कहा जाता था। वास्तविक स्थिति जो भी हो यह तो कहा ही जा सकता है कि करो की विविधता को वर्ग विभाजन की दृष्टि से देखने पर कर एक विशेष विभाजन सा प्रतीत होता है। जहॉ तक

[230 ]

परमार अभिलेखो का सम्बन्ध है कर शब्द का कर के रूप मे स्वतत्र अभिलेख अप्राप्त है। इसका प्रयोग केवल हिरण्य-भाग भोग आदि शब्दो के साथ ही मिलता है।*

हिरण्यकर - परमार अभिलेखो मे हिरण्यकर का उल्लेख मिलता है।£ हिरण्य का अर्थ होता है - सोना, किन्तु हिरण्यकर के अर्थ के बारे मे पर्याप्त मतभेद दृष्टिगोचर होता है। वेणी प्रसाद, आर0० डी0 बनर्जी, और पी० नियोगी - अनुसार सोने आदि की खानो से लिए जाने वाले कर को ही हिरण्यकर कहते थे | एन0सी0 बन्दोपाध्याय के अनुसार लोगो की एकत्रित सम्पत्ति पर वार्षिक कर के रूप मे मे दिये जाने वाले कर को हिरण्य, दूसरे शब्दों में आयकर कहा जाता था।” किन्तु यू06 एन0 घोषाल के अनुसार विशेष प्रकार की उपजो पर नकद पैसो के रूप मे दिया जाने वाला कर ही हिरण्यकर कहलाता था।*

किन्तु परमार शासको के शासनधिकृत क्षेत्रों मे सोने की खानों का कोई स्पष्ट परिचय नही मिलता। अत यह सभावना करना अनुपपन्न होगा कि साने की खानो से मिलने वाले कर को हिरण्यकर कहा जाता था। एकत्रित सम्पत्ति के ऊपर या उपज विशेष के ऊपर अथवा अन्य वस्तुओ के ऊपर कर के रूप मे देय धन को भी हिरण्य कहना असगत प्रतीत होता है। क्योकि यदि उपर्युक्त अर्थों को दष्टि में रखते हुए इसके लिए (इस कर के लिए) किसी शब्द का व्यवहार करना होता तो कोई आवश्यकता नही थी कि उसे हिरण्य ही नाम दिया जाय। हिरण्य का अर्थ होता है सोना, और हिरण्यकर नाम देने से ऐसा प्रतीत होता है कि सोने से सम्बन्धित व्यवसाय पर लगाया जाने वाला कर ही हिरण्यकर नाम से अभिहित किया जाता था।

उपरिकर - डॉ घोषाल के अनुसार भूमि को अस्थायी रूप से जोतने वालो से लिया जाने वाला कर ही उपरिकर था।* फलीट हानले और कीलहार्न महोदय के अनुसार भी दूसरे की भूमि पर कृषि करने वाले लोगों से यह कर

6 ?2२।7]

लिया जाता था।” परमार अभिलेखो मे इसका उल्लेख मिलता है।” जिससे यह प्रतीत होता है कि अन्य अनेक राज्य की तरह मालवा में भी यह कर लागू था।

विक्रीकर - बाजार मे होने वाली आय का यह एक मुख्य अग था। बिकने वाली वस्तुओ के ऊपर एक निश्चित कर राज्य को देय होता था। जो वस्तु और द्रव्य दोनो रूपो मे वसूल किया जाता था। इसे वसूल करने का कार्य मडपिका नामक सस्था करती थी। कही-कही इस सस्था के लिए वणिक

92

मडपिका शब्द का उल्लेख मिलता है।

इस सस्था का प्रधान कर्मचारी होता था।* बागड के परमार शासक चामुडराज के एक शिलालेख से बाजार मे बिकने वाली अनेक वस्तुओ पर लगाये जाने वाले करो की दरो के निम्नलिखित विवरण मिलता है --

[ 232 |

बिक्री की वस्तु कर मात्रा

सख्या क्स्तु मात्रा रूप मात्रा नारियल 2 3 4 2 नमक एक भरक नारियल एक 3 सुपाडी एक हजार सुपाडी एक्‌

4 मक्खन, तिल का एक घटक | मक्खन, तिल का एक पलिका तेल तेल

5 सूत (वस्त्र) एक कोटिक रूपक डेढ

6. फल एव कलियो. एक जाल | फूल एव कलियो दो पूलक का गुच्छा का गुच्छा

7 सोने, चादी की एक लगडा | सोने चादी के दो गत्ता

छ्ड छ्ड 8 तेल एक कर्ष तेल एक पाणक भा भूसा एक बोझ वृषविशोपक एक 40 ईख एक गदठर द्र्म एक 44 अनाज बीस बोझ अनाज _. एक मारक 42 अनाज एक मारक अनाज एक मारक 43 मदिरा एक बुम्बुक रूपक चार

[ 233 ]

ये कर प्रत्येक मास वसूल किये जाते थे। विक्री की वस्तुओ के अतिरिक्त व्यापारिक सस्थाओ से भी कर वसूल किये जाते थे। अर्चुणा शिलालेख से ज्ञात होता है कि प्रत्येक बर्तन व्यवसायी (ठठेरा) एव व्यापारिक सस्था एक-एक द्रम कर राजा को देती थी।*

कल्याण धन - महाकुमार उदयवर्मा के गुवाडाघद्ट ताम्र पत्र मे कल्याण धन नामक कर का उल्लेख मिलता है।” डॉ०0 बार्नेट के अनुसार यह वैवाहिक कर होता था।” डॉ० लललनजी गोपाल ने शुभ अवसरो पर प्रजा से वसूल किये जाने वाले कर को कल्याण धन माना है|

च्ृतकर - नगर में जुआ खेलने वालो के लिए अलग स्थान निश्चित हाता था। जिससे कर के रूप मे राजा को भी धन प्राप्त होता था। अर्घणा लेख के अनुसार प्रत्येक द्यूतगगृह से दो-दो रूपक राजा को कर स्वरूप दिये जाते थे।

भवन कर - राज्य मे स्थित प्रत्येक गृह से एक-एक द्रम कर स्वरूप लिया जाता था।” इसकी चर्चा अर्जुन वर्मा के एक लेख के भी मिलती है। आधुनिक शब्दावली में इसे सम्पत्ति कर कहा जा सकता है।

निर्यात कर - निर्यात के सामानो पर भी कर लिया जाता था जो राज्य की आय का एक प्रमुख साधन था [7'

जल कर - अर्जुन वर्मा के भोपाल शिलालेख मे इस कर का उल्लेख मिलता है।” सम्भवत नदी से पार उतरने वाले व्यापारियो से यह कर वसूल किया जाता था। बागड के परमार शासक चमुडराज के समय प्रत्येक रहट पर एक हाटक कर राजा को देय होता था।” इस कर को वसूल करने वाले कर्मचारी को घट्टपति के नाम से सबोधित किया जाता था।”

| 234 |

205

मार्ग कर - इस कर को कभी-कभी मार्ग दाय भी कहा जाता था। जयसिह के पेन्हरा शिलालेख के अनुसार सडक से गुजरने वाले प्रत्येक बैल के लिए एक विशोपक मुद्रा कर के रूप मे देनी पडती थी। ऐसा प्रतीत होता है कि एक बैल एक बार जितना सामान ढो सकता हो, उसी हिसाब से सडक से ले जाये जाने वाले सामानो पर कर लगता था।” यह कर वसूलने वाला कर्मचारी मार्गदायी कहा जाता था।” शेरगढ शिलालेख के अनुसार मार्गदायी कौप्तिकवरग ने सोमनाथ मदिर के लिए धूप निमित्त मार्गदाय से पाच वृषभ (मुदा) दान की थी।“

चोपलिका - आबू के परमार शासक प्रतापसिह के पाटनारायण शिलालेख के अनुसार राजसूत्रगग और करमसिह ने मडौली गॉव के मदिर का खर्च चलाने के लिए चोपालिका कर दिया था?

उपर्युक्त कर सम्बन्धी इन विवरणो से ऐसा प्रतीत होता है कि शासक वर्ग शासितो से तीन प्रकार के अश (कर) प्राप्त करता था। प्रथम था राज्य मे होने वाले उत्पादन का एक निश्चित अश, जिसके अंतर्गत कृषि कर आते थे। इन्हे ही राजा का अश या भाग भी कहा जाता था। राज्याश का दूसरा प्रकार शासित वर्गों की मनोरजन की वस्तुओ, शुभ कार्य के अवसरो अथवा आरामदायक और विलासिता सम्बन्धी वस्तुओ से प्राप्त होता था। इनसे प्राप्त राज्याश को ही भोग कहा जा सकता है। इस वर्ग के अंतर्गत फल-फूल आदि पर लगाये जाने वाली उत्पादन सम्बन्धी कर कलयाण धन और चद्यूतकर सम्मिलित थे। करो का तीसरा वर्ग वह था जो प्रजा की सुख-सुविधा की दृष्टि मे किये गये कार्यो के बदले प्रजा से वसूल किया जाता था| उसे ही कर के नाम से सबोधित किया जाता था। इसके अतर्गत मार्गदाय और जलकर आदि गिने जा सकते है।

| 235 |

अर्थ दड - राजकीय कोष की वृद्धि का दूसरा साधन अभियुक्तो पर लगाये जाने वाले अर्थ दडो से बनता था। समकालिक साक्ष्यों मे इस प्रकार के दण्ड को दशापराध दण्ड के नाम से सबोधित किया गया है।*

आय कं अन्य साधन

स्वामीहीन सम्पत्ति - सामान्यतया प्रजा का सरक्षण राजा पिता के रूप मे या स्वामी के रूप मे करता था। जीवन यापन की सुविधाओ से पूर्णत हीन व्यक्तियो को जीवन निर्वाह की सुविधाए प्रदान की जाती थी। दूसरी और स्वामीहीन सम्पत्ति का राजा वैधानिक रूप से अधिकारी होता था। और वह सम्पत्ति मानी जाती थी। अत राजकीय कोष की वृद्धि का यह भी एक प्रमुख साधन था|

अतत यह भी निर्देश्य है कि वार्षिक या अन्य उत्सवो का आयोजन होने पर सामत एव नगर के प्रतिष्ठित लोग बहुमूल्य वस्तुए उपहार के रूप मे राजा के पास पहुँचाते थे।” राजकीय कर, दड कर एव स्वामीहीन सम्पत्ति के ऊपर अधिकार सम्बन्धी आय के स्रोतों को घटाने या बढाने मे शासक वर्ग अवसरानुकूल स्वतंत्र होता था। परन्तु उपहार तो देने वालो की इच्छाओ पर निर्भर रहता था और उसकी मात्रा निश्चित नही होती थी।

[236 ]

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[237 ]

2.2 23 24 25 26

2202

28 22 30

3]

32. 33. 34. 2 36, 2/५ 36. 39. 40.

4]

वही, पृ० 54-55, श्लो0, 383-92 | वही, पृ० 54-55, श्लो0 383, 92 | युक्ति0, पृ० 55, श्लो0 393 | वही, पृ0 59 | वही, पृ० 247, श्लो0 23, 24 | युक्ति0, पृ० 247, श्लो0 27-28 | वही, पृ० 249, श्लो0 48 | युक्ति, पृ० 224 | वही, पृ० 249, श्लो0 49, भोज ने अन्यत्र इन लकडियो का बजवारण के नाम से उल्लेख किया है। युक्ति, पृ0 65, श्लो0 474 |

लघुयत्‌ कोमल काष्ठ सुघट ब्रह्मजाति तत्‌ | दृढाडण्ग लघधुयत्‌ काष्ठ मधटं क्षत्र जाति तत्‌। कोमल युद्ध यत्‌ काष्ठ शूद्र जाति तदृच्यतौ | दृढ्सड्ण्ग गुरू यत्‌ काष्ठ शूद्रजाति तदुच्तो |

युक्0ि पृ० 224, श्लो 84, 85 | वही, पृ० 224, श्लो0 86 | युक्ति, पृ० 225 | वही, पृ 23 | वही, पृ० 225, श्लो0 94 | युक्ति, पृ० 23 | युक्ति0, पृ0 225 | युक्ति, पृ० 225, श्लो0 400| वही, पृ० 226 | वही, पृ० 226, श्लो0 7। युक्ति, पृ० 227, श्लो0 9-40 |

[238 ]

42 43

43

46

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486 49 50

3]. 20 कम

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55. 56. कह कम 024 00. 04.

02

63.

युक्ति, पृ०0 227, श्लो0 44, 42|

वही, पृ० 228, श्लो0 20-23 |

युक्ति, पृ० 78--79 |

वितस्ति सम्मिती भव्यौ रसाढूय सुखवर्द्धन |

भव्य सुखौ जय क्षेमश्च तुरगु लिवर्द्धनात्‌ ।।

आयाम परिणाहाम्या चतुरड्ण्गुलि सम्मित |

सर्वेशा भुपयुज्येत विजयोनाम दर्पण |। युक्ति0, पृ० 80, श्लो0 6-8 |

युक्ति, पृ0 80, श्लो0 8, 9|

वही0, पृ० 79, श्लो0 93 |

युक्ति, पृ० 439, श्लो0 28 |

वही, पृ0 474, श्लो0 33।

द्रष्टव्य, परिच्छेद (शस्त्रास्त्र) |

द्रष्टव्य, परिच्छेद (वस्त्राभूषण) |

छा ०0. जाए, ?. 302-3

युक्ति, पृ० 97, श्लो0 48 |

वही, पृ० 405, श्लो0 22-25 |

वही, पृ0 407--438 |

युक्ति, पृ0 79।

वही, पृ0 76--79 |

ति0 म0, पृ0 498 |

वही, पृ० 54 |

स0सू0, दसवा, अद्ठारहवा अध्याय

छा. ५0, जाफ, 7. 76.

[990, 7. 76

दृष्टव्य, इसी परिच्छेद मे, पृ० 57 “राजय की आय के साधन" |

[ 239 |

04.

65

00. 07.

08 09 70

है के /42५

3

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75 76 ह।

78. 49, 80.

8. 82.

83 84 85

86

श्र0 म0, पृ028--29, ति0म0, पृ० 42, 403 |

?. ।साए02, ? 34.

[006, 7? 34

विशेष विवरण के लिए दृष्टव्य -

साश0तए णए 6 एथ्लवक्ाका३ 09389, ? 209, 29, 223

युक्ति, पृ० 470, श्लो0 24 |

ति0म0, , पृ० 46, 239 |

छा ४०, <&ै०४, ? 309-0

युक्ति0, पृ० 470, श्लो0 24, ति0म0, पृ0 46, 239 |

ति0म0, पृ0 447 |

छा, ४७7, &>&]7!!, 2? 37

ति0म0, पृ0 406 |

?2( ॥2ए786५, ? 8, 04, 2, 63, 67, 83-84

द्रव्यपरीक्षा, श्लो0 64 |

.. (07०४, ?. 99

खरतरगच्छवहदगुर्वावली, पृ० 43, [0 ४0, ह़ऋणा ? 224 [&ता2942000थ7, ? ]4

पुरातन प्रबन्ध सग्रह, पृ0 53,

0 ५७०. ७४४०७, ? 224, 7.ए, 4, उप] ४7, &०एा, 75२7], ? 64

(धाा., ल्‍,22ट0फए865, ?. 207 हु

जि. ५०0, &५, ? 302-3, ५0, &»%, ?. 69, [8.४0) . < ५, [?, 77, 3०0०ा एव्ट, ४०0 7, ?47, 7? 474

(भा. ॥.6टॉप्रा8३$, 70. 207.

?. [राए0९, ? 260.

&५ थह्घांपराठशआ, ?. 273, उरठा, ए७0. ४५७, 9? 77, पति थात [था वत्रत65, 0? 364

(7), ।,९८प्आा283, ? 207

[ 240 |

67 886 89 90 9] 92 93 94 95 96 97. 98 99, 00 0]

02. 03. ]04.

05

06. 07. 408. 09.

0 4| ]2 ]3 4

[, 00799, 7? 93-94, उ]एछा ५४०! 7, ? 25, 3070क्ञशू)आ9 पताशा (णा$, ?थ। 7, ? 96 पषछा, ४0, &ए०, ? 44

57 ४0०0, &४ 7? ३302-3

[, (079०, ? 206

6 पस्ाशठतफ णी ॥06 ठफ्ाध्षा4 ?िक्ञाधवा9, 0 ]36 अप, ४७0०0, शा, ? ]44

लाइ09 6 एथशा॥यपाः53 29859, 7? 243

[0 502779, ? 39

720 799४7९6५, ?.8, 04, [2!, 63, 67, 83-4 90ए7092707 0776 /प्रषयग रिपा8 09, ? 264 गा ७७०... ? -4

युक्ति, पृ०0 95, श्लो0 27-34 |

[.. (0(0९6॥ ., ? 207-8

पर, ४०, ॥, ? -]4

जा. ०७0, &&, ? 7.

[00, ?. 38-39.

090, 7. 438-39,.

छफात ४७०. &&], ?. 48, 3[

[2 89779, ?. 39.

(, ४७१, ॥५, ?. 89, 5.४ 7.

7 ५५७. &ै७, ?. 302.

[00, ४७०॥.. &&]॥, 7 ]40

[, 509०, ? 205,

युक्ति, पृ0 95, |

2 शिक्षुपरागात्वा, ? 272

छा ४0, &5तत, ? 440, ॥]५४85 6

[एए0 ४0! .. &<&, 7, 38-39, |.. (009०४ ?. 23.

5

6

]7

8.

49.

20

208

422

23.

424.,

(25

ठवकुरपेरु अलाउद्दीन की टकसाल का मालिक था। गरडश घ४0ा, 5, ? 28. द्रव्यपरीक्षा, श्लो0 94-7 | (0). द्रव्य परीक्षा, श्लो0 98-400 | (9) वही, श्लो0 94 | (7) वही, श्लो0 94 | ((9) वही, श्लो0 95 | (7) वही, श्लो0 95| (श) वही, श्लो0 96 | (शा) वही, श्लो0 96 | (शा) द्रव्य परीक्षा, श्लो0 97 | द्रव्य परीक्षा, श्लो0 98--400 | रेण्वष्टकेन बालागृ लिक्षास्यादष्ञ मिस्तु तै | भवेद्‌ चूकाष्ट किस्तामिर्यवमध्य तदष्टकात्‌ ||

स0सू0 9,/4, समरागणीय भवन निवेश, पृ0 49 | कौटिलीय अर्थशास्त्र, 2,//36 / 20, अष्टाभि सप्तमि बउमिरड्ण्गुलानि युवौदरै | ज्येष्ठमध्य कनिष्ठानि तच्चतर्विशति कर.।।

स0सू0 945,

स0सू0, 9,/ 40-47, समरागणीय भवन निवेश, पृ० 54 | स0सू0, 9,// 27-29, समरागणीय भवन निवेश, पृ० 54 | ; [8& ए0, जज, 7 348, ए0..,एण, ? 50, ०0. हा गा, ? 93. [0 ४0. णा, ? 3] पाए. एण. शा ए.322,86 ५0. हा ता, ? 94, 0७0. जाए, ए. 349, ए५0,.ण. ?. 5. पाणिनी, अष्टाध्यायी, ? ५०४ ?. 84, ]४ 25. ? शसापए02, ? 85, ए. 28.

[ 242 ]

26 27 28 [29 30

3|. | 8 5

33 34 35 36

0000

38

39.

40

[44. [42. ]43.

45 46

47.

]46 [49

50.

5] ]352 53

(-०9९!!, स्वा$80०॥४779, ? 99

? साए02, ?. 83

साशंतफएफ 4779580४73, ४(), ॥, ? 46 मिताक्षरा, पृ0 2।

? सए020 ? 83

[3७ ए0छा, &», 7? 349, छा ४0, डाड ? 72, ५0, ४, ? 62. ४७०, #४&, ? 82

कौटिलीय अर्थशास्त्र, 2/36 / 20,

बोधायन धर्मसूत्र, 3/2,/2-4 |

लाइगणफए 0 [ाक्रा358873, ४५7, ता, 2? 45

मिताक्षरा, पृ0 2|

? [स५ए0727, ? 97-8

स0सू0, 9,/ 27 |

युक्ति पृ0 23 |

वही, पृ० 23, श्लो0 448--54 |

स0सू0, 9,/40 |

ल. ए0.,. ४५, ? 302,

कौटिलीय अर्थशास्त्र, 2/ 35 // 48, मनु0 8,/436,

7. [राए0०2, ? 408.

»प्रात3, ॥, 775-8

जि ४0०0. ४५, 0. 302, ५८४४८ 76

डा. ए0, &५, 7. 302, ४८४८ 7]

33588. ४०) .. &, ? 242

थ. ४0. #&9५, ? 76.

[00, ?. 302

[50, 7. 302.

8., ४५, &7,५, ?. 77, 807. 02, ४0 ..4, एका !, ? 472 [6. ४0... & ५, ?. 77,

[54 55 56 57 58 ]59 60 5] 62 63 ]64 65 06 67 68& 69

70.

7/] ]7/2 73 /4 [75 ]76 ]78 /9

मनु0 7 /426,

कौटिल्य अर्थशास्त्र, 2/ 35 ,/ 49, पृ० 247-48 [७. ए0, जा ०9७, ? 77

[6 ५७०0, हा .ए9७, ? 77

कौटिलीय अर्थशास्त्र, 2 / 35 / 49,

0.77 (णएा९५ 0 7709, ? 208

[७ ७0, जा५, 77

8558 ५०0, शा, ? 738,

वृहद हिन्दीकोश, पृ० 287,

[७ ५0, जाए, 7 79

[एछ60 ५0, जा, 7. 85

हा ४७०, &, ? 4!

3558 ५०0, शा, ? 738.

वृहद हिन्दीकोश, पृ0 4024,

गिरा ४०, शा, ? 36

छा. ४0, &५, ? 303, ५2586 78-8] एफ, ४0. &7ए, ? 302 ४८४४८ 7].

छा ए0ा. जाप 7. 302, पाडूअसद्दमहण्णवी, पृ0 646,

डा. ४0. जाए. 7. 302

साशं0णज 6 श्ायक्षव 7/29748४79, ?. 243 स. ए0. जा, ?. 4

गएरश, ए0. णा, ?. 38.

[90, 7. 48.

कोषो महीपतेर्जीवों नतप्राणा कथन्वन || द्रव्य हि राजा भूपस्य शरीर मितिस्थिति | धर्म्म हेतो सुखार्थाय भ्ृत्याना भरणाय च। आपदर्धन्ध सरक्ष्य कोष कोषवता सदा। धनात्‌ कुल प्रमवति धनाधर्म प्रवर्त्तते |

साधनस्य भवेद्धर्म कामाश्चैव कथन्वन | युक्ति0, पृ० 5।

[ 244 ]

80 84

82 83

84

85

86 87

86. 89.

90

9] 92

2328

94

95

]96.

क्र

? [राए0ए, ? ]77, # ए।

|8. ४0... &#& 7? ३48, ४0... &५, ? 60, ५७, ? 255

जि ७0, #&जात, ?ए 322, ४५0, &, ? [!2, ४५0! का, ? 49 एज, <&2, ? 83, [80 ४0, शा, 7? ३32

(, ४0, शए, ? 254, 4

लाश0तज &वावप], ? 348, उश््त5 ४७0, <<&77, ? 243 #.0णा768 0 76 (क्चा॥०09 896, 0? 67-69, हा ४०7, &&6> ?-9, #

साए्तप् २९एथापह 3 एटा) ? 24, 290, 776 7२०५४॥४/९प/७५ 270 पका वतर765, ? 2]4-6, ४७०, शा, ? 60.

मनु0, 7/430, आपत्तिकाल मे उपज का 4,//3 या 4/4 भाग राजा को कर के रूप में दिया जाता था। मनु0 40,//2|

? ]सज020 ? 79, 528 370 (00एथय।एशा 4॥टाशा। 7709, 2? 96 5एांत्9, 7ए, ॥. 227-30 (? 48)

मानसोल्लास, 2,/3 /463-64,

ला. ५७0, ५, ?. 243.

अभिज्ञान शाकुन्तल, अक 5, श्लो0 4।

मनु0, 7 / 48,

१76 7९२४४॥॥॥92६07॥95 270 ॥70070 77.78658, ?? 24-]6

लाइएणए णए 7ध्या788४73 ४७07 हक, ?. 9

[, (7099४, ?. 32.

जफएछछ5, ४0, &«7, 7? 243.

3... शर[पा09, ? 248,

मिताक्षरा, 2434--35,

लाएतप्र २९०४पढ८ 58५8४67, ? 48-22.

36583, ४७. शा, ? 7386, छा, ५७७. &, ? ।]2, ४५५०७, 4»,

? 422, 70 ४07. &(४७॥, 7? 255, ४०0, &%&, ? 353,

7305, ४0०0 .. शा, ? 25-33

गश्श़ाड ४0, &<&॥|, 7 243, ।, (002, 9 37

| 245 |

97 96

[99 200 20]

202

203 204

205.

206

207.

208.

209 20

244.

22 243 24 2]5 26 2[7

क्‌0० क0, गृहस्थकाण्ड, पृ0 255 |

द्वयाश्रय महाकाव्य, तीसरा, 48 |

88 ४0, &ा#& 7? 348, ४०0, ५, ? 60,

ए०, &शा, 7 3222, ४५0, झएा, 7 255 ५०, (5, ? 2 [0 २७0, &»%, 7? 348, ४५७०7, ४५७], 7? 255, ४07, ५०, ? 60 ४५०, ०, ?ए 323, ४० , 7&, ? !2, [80 ४७०!, शा,

? ३2, 3558 ४५४0०0, ५, ? 738

जधा8 7टाक्ा 09, 7? 302, 2 ४०7, #&[५ 7? 324,

330, ४५७०१॥, &०, 7? 293 ? [शाए099 9 82-83

2प77५०9, ? 439-40

जा. ४७०, शा, 7? 60 (?३णगशल्यां एण ४00०9), ४५00, शा, ? 6-62 (95 7 ०7९०५) &॥7॥070प॥6३$ 0 6 (7धा708 3$882, 2? 67/-69 (9०४ 7 ०285॥)

लाएव0 २८एथए८ 599५986०४, ? 62

[00, ९. 20,

(., ४0, , ? 98, ए.रए ।, 7558 ४७५०॥..,ए०7, ? ]28.

(प्राण साइ09 ०0 35807. ?. 8]

[& ५0ा, &%&, ? ३348, ४0, ाए 7 60 ५४0. &०, ? 255, ७४0०, <णा।, ?ए. 323, ४/07..&, ? 42 ४0०0! #«&, ? 83

0 ४0छठा. शा 7? ३32

थे ४०]. &०५, ? 302,

जा ४७० .,. &#&, ?. 69, ? [सा902 7? 94

जि. ४७0, ५०, 7. 302-3

छा ४0ा.. &५, ?. 302, ४८६४८ 74.

[8 २५0. &ए०7, 7. 255.

? ॥२9४७०४, ? 206

[, (0079५, ?. 65.

जा, ४७0, &५, ?. 302-3

[09, ? 309, ५४०४८ 75.

246 29 220 22 22222 223 224 2235 226

227 228 229

8805$, ए0. शा, ? 27 [७. ४0, जाए, 7 80 8005, ए0. शा, ? 27 छा ए0ा, जाए, 7 30 0ा, ए0, [५, एक ॥, ? 42 छा ए0ा, जता, 37 छा ए0, हछठा, 7 48, ५८४८ 44-5 एा06, ए0, जा, 7 73 सोमनाथ देवाय चन्दनधूपनिमित्त भाग्गादाये कौप्टिकवरगेण मार्गादायात्‌ दसा वृषभ 5 आचन्द्रार्क यावत्‌ | झा एणा, ऋ़धा, ? 38, 40 [6 ५0, जाए 7? 78 0, ५०, पा, ?. 89, 2!8 ति0म0, पृ0 57 | [7

| 247 |

उपसंहार

पूर्व अनुच्छेदों के अध्ययन के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि परमार प्राचीन क्षत्रिय वश के वशिष्ठ गोत्रीय क्षत्रिय है। जिनके लिए पुराणों मे 'ब्रहमक्षत्र” शब्द का प्रयोग हुआ है। ब्रहमक्षत्र शब्द का प्रयोग उन क्षत्रियो के सन्दर्भ मे किया जाता है जो ब्रहमगुण से युक्त थे अर्थात जिनका सम्बन्ध वैदिक ऋषियों से था। अपने गोत्रोच्चार मे परमार स्वय का वशिष्ठ गोत्रीय मानते है। परमारो की उत्पत्ति आबू पर्वत से ऋषि वशिष्ठ की क्रोधाग्नि अग्निकुण्ड से हुई। आबू पर्वत से होते हुए परमार मालवा (अवन्ति) आये और यहा परमार उपेन्द्र ने अपने शौर्य से साम्राज्य की स्थापना की। परमारों की मालवा के अलावा 4 अन्य प्रमुख वश शाखाये थी -आबू शाखा, वागड शाखा, जालौर शाखा और भिनमाल शाखा। परमार उपेन्द्र से आरम्भ हुआ परमार राजवश का साम्राज्य महान भोज तक आते-आते एक ऐसे विशाल साम्राज्य मे परिवर्तित हो गया जिसने कैलाश पर्वत से मलयागिरि तक उदयाचल से लेकर अस्ताचल

तक सारी पृथ्वी का भोग किया।

पिछले आठ अध्यायो के विवरणो के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सभ्यता एव सस्कृति की दृष्टि से परमारयुग का पूर्व मध्यकालीन इतिहास मे एक विशिष्ट महत्व है। प्रशासनिक दृष्टि से इसकी विशेषता थी, कि शासक देवत्व की भावनाओं से ओततप्रोत होते हुये भी स्वतन्त्र और निरकुश नही थे। युवराजो की शिक्षा-दीक्षा की और विशेष रूप से ध्यान दिया जाता था। शासको के अनिवार्य और ऐच्छिक

दो प्रकार के कर्त्तव्य होते थे, जिनका वे समुचितरूप से पालन करते थे |

[ 248 ]

शासन के सुचारू सचालन के लिये मत्रिमडल शासको का एक अविमेघ अग होता था, जिसका सगठन, एव कार्यवाही अपने ढग पर निराली ही थी। मत्रीमडल आधुनिक व्यवस्थापिकाओ की तरह उत्तरदायित्व का वहन सामूहिक रूप से नहीं करता था, बल्कि मत्रिगण व्यक्तिगत दायित्व और विचारो में राजकार्य मे राजा को सलाह देते थे। मत्रीमडल के साथ साथ सामतगण भी प्रशासन मे कम सहायक थे। वे सम्राटों की तरह पूर्ण स्वतन्त्र नही थे। किन्तु आन्तरिक स्वतन्त्रता का माग करते हुये वे सम्राट के प्रति सर्वात्मना अपेन अधिकारो एव कर्तव्यों की श्रृखला में बधे हुये थे, जिनका वे उचित रूप से उपयोग और पालन करते थे |

सम्पूर्ण साम्राज्य प्रशासनिक दृष्टि से मडल, भोग, विषय, पृथक, प्रतिजागरण और गावो मे विभक्त था जिनके अलग-अलग व्यय स्थापक होते थे। तत्कालीन साहित्य मे मडल, योग ओर विषय के पारस्परिक सम्बन्धों का कोई स्पष्ट उल्लेख तो नहीं है, परन्तु समकालिक वाक्यो के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है, कि मडल शब्द का उपयोग आधुनिक प्रान्त, योग को मिला और विषय शब्द का प्रयोग जिला के उपविभागो के लिए होता होगा। दूसरी विशेषता यह थी कि नगर केन्द्रीय या मडलशासन से सम्बद्ध और उपर्युक्त श्रेणीक्रम (मडल, योग, विषय, पथक, प्रतिजागरण और गाव ) मे उपनिषद होकर अपने अधिकार क्षेत्र मे स्वतन्त्र होते थे। भूविस्तार की दृष्टि से नगर प्रशासन को प्रतिजागरण से पहले या बाद दोनो ही स्थानों मे रखा जा

सकता है।

[249 ]

सैन्यव्यवस्था प्रशासन का महत्वपूर्ण अग थी। तत्कालीन साहित्यिक साक्ष्यो मे सेना के तीनो अगो- स्थल, बल और नवसेना - का उल्लेख मिलता है, परन्तु व्यवहार रूप मे केवल स्थल सेना का ही प्रयोग था। परमारो के शासन क्षेत्र मे नर्मदा सबसे बडी नदी थी, किन्तु उनमे रखी जानेवाली किसी नौसेना का कही कोई उल्लेख नहीं मिलता। इसके अतिरिक्त परमार साम्राज्य की सीमा किसी भी दिशा मे समुद्र तक विस्तृत नही थी। जलसेना के सम्बन्ध मे जो विवरण मिलते है वे केवल सैद्धान्तिक है। इसी प्रकार मौज द्वारा वर्णित नवसेना सम्बन्धित विवरण भी केवल विवरणमात्र ही है, उसका प्रायोग नही था भोज ने स्वय अपने इस विवरण के अन्त मे कहा है कि सर्वसाधारण को शुलभ हो सकने के कारण ही यान (वायुयान) की मशीनो की बनावट के ढग को गुप्त

रखा गया है।

सेना के शस्त्रास्त्रो का भी बडे ही सूक्ष्म ढग का विवेचना मिलता है। विभिन्‍न प्रकार के शब्त्रास्त्रो को, उनके गुणदोषो की सूक्ष्मातिसूक्ष्म परीक्षण करके ही, उपयोग मे लाया जाता था। सैन्य प्रयाण के समय शुभ नक्षत्र, तिथि आदि का विचार किया जाता था परन्तु अचानक अथवा असमय में प्रस्थान की आवश्यकता उपस्थित हो जाने पर शुभ शकूुनो का विचार नही किया जाता था। इस संदर्भ में इस विशेषता की और भी ध्यान देना चाहिए कि विजय प्राप्ति के लिये अन्य साधनो के

अतिरिक्त युद्धभूमि तन्त्र मनन्‍्त्रों का भी उपयोग किया जाता था|

[250 ]

इस समय के समाज मे कुछ परिवर्तन परिलक्षित होते है | कायस्थो की गणना परमारकाल से पूर्व किसी जाति के रूप मे नही की जाती थी, बल्कि अपने लेखनकार्य के अनुसार ही ये इस नाम (कायस्थ) से पुकारे जाते थे, परन्तु इस समय कायस्थो की एक अलग जाति ही बन गईं। इस कल मे उन्हे समानजनक स्थिति प्राप्त हुई। इनमे अनेक जातियो और उपजातियाँ हो गई थी। शूद्र कई वर्गों मे विभक्त हो गये थे जिनमे एक वर्ग अन्त्यज के नाम से विख्यात थी। वह गाव अथवा नगर के बाहरी हिस्से मे निवास करता था। एक अन्य विशेषता यह थी कि जहाँ प्राचीन स्मृतियो मे स्त्रियों के लिये वेदाध्ययन का निषेध किया गया है, वहॉ परमारकाल मे स्त्रियो को अन्य विद्याओ के साथ वेदाध्ययन का

भी अधिकार प्राप्त था।

स्त्रियों की सम्पत्ति के अधिकार के बारे मे परमार साक्ष्य विस्तृत व्याख्या देते है। पुत्रियों का पुत्रो की तुलना मे चौथाई सम्पत्ति एव विधवा के आजीवन भरणपोषण का दायित्व उसके पति की सम्पत्ति

पाने वाले व्यक्ति पर अनिवार्यत था।

जीविकोपार्जन में लोग स्थानीय उद्योग धन्धों -एव वाणिज्य के साथ-साथ विदेशी व्यापार भी करते थे। इस दृष्टि से भडौच का बन्दगाह बडा ही महत्वपूर्ण स्थान था। मगध, सौराष्ट्र, कलिग, नेपाल और वाराणसी से विभिन्‍न वस्तुओ का आयात निर्यात होता था। तत्कालीन व्यवसायिको की यह विशेषता थी कि बनावट की दृष्टि से बारिकियो की ओर विशेषरूप से ध्यान देते थे। शीशे के व्यवसायी दर्पण आदि अन्य

[25[ |

उपकरणो के अतिरिक्त शीशे की कघियो का भी निर्माण करते थे, जो इस युग की अपनी एक विशेषता थी। विनिमय मे चार प्रकार की - स्वर्ण, रजत, ताम्र और मिश्रित-धातु की मुद्राओ का प्रचलन था। मिश्रित मुद्रा में धातुओं की मिलावट आनुपालिक ढग से की जातीथी। इस समय नकद पैसो के अतिरिक्त वस्तुओ को भी कर के रूप मे वसूल

किया जाता था।

धार्मिक दृष्टि से परमारयुग की सबसे बडी विशिष्टता यह थी कि समाज में किसी एक देवता की पूजा प्रधान होकर अनेक सम्प्रदायो एव देवताओ की पूजाये प्रचलित थी। शिव, विष्णु, शक्ति (दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी, इष्टदेवी) सूर्य, गणेश, हनुमान आदि देवी देवताओं की पूजा उपासनाये होतीं थी। देवों की पूजा हेतु मदिरों का निर्माण एव जीर्णोद्धार कराया जाता था। अनेक परमार शासको ने विभिन्‍न मन्दिरो के खर्चों को चलाने की व्यवस्थाये की थी। जैनधर्म इस समय उत्तरी भारत मे पतनोन्मुख प्राय हो चुका था। परन्तु परमार शासकों की छत्रछाया मे वह उनन्‍नति के पथ पर अग्रसरित हुआ। देवताओ की उपासना के अतिरिक्त, अनेक प्रकार के व्रत एव उत्सव भी मनाये जाते थे। इस समय के समाज की सबसे बडी विशेषता यह थी कि शासक एव प्रजा दोनो ही वर्ग अपने व्यक्तिगत धर्मों के अतिरिक्त अन्य सम्प्रदायो एव धर्मों की भी प्रश्रयात्मक महत्व की दृष्टि से देखते थे |

शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र मे प्रचुर उन्‍नति हुई। काव्य

रचना के क्षेत्र मे काव्य के गुण दोषो रसो एव अलंकारों पर विशेष ध्यान

[252 ]

दिया जाता था। विन्दुमती श्लोको की रचनाये भी प्रचलित थी, जिनमे व्यजन या स्वर वर्णों के स्थान पर विन्दुओ का प्रयोग होता था और मात्राये व्यजन या स्वर वर्णों के स्थान पर विन्दुओ का प्रयोग होता था और मात्राये ज्यो की त्यो रहती थी भोज स्वय अलकार शास्त्र का पण्डित, पारखी और समालोचक था। इतना ही नही, साहित्य गोष्ठियो एव शात्त्रार्थों के माध्यम से भी शिक्षा को विकसित किया जाता था एव वाद-विवाद प्रतियोगिता एव विजेताओं को पुरस्कृत भी किया जाता था।

वास्तुकला के क्षेत्र मे परमारो की विशेष देन थी। धार्मिक दृष्टिकोण से तो एक और चाहर दीवारियो द्वारमडप, सभामडप, उतुगाशिखर, गर्भगृह ओर उपगृह से युक्त सुन्दर-सुन्दर नक्काशीदार देवमदिरो का निर्माण होता था। दूसरी और लौकिक दृष्टि से नगरो, झीलो एव भवनों आदि के निवेशन तथा निर्माण प्रमुख थे। नगरनिवेशन मे सुरक्षात्मक दृष्टि प्रमुख होती थी। उसमे परिखा, दृढाप्र, प्रकार, और गोपुर विशेषरूप से प्रकल्पित किये जाते थे। भवननिर्माण के क्षेत्र मे इस समय दीवाराो की चुनाई व्यवस्था का विशिष्ट स्थान है। दीवारों की चुनाई ठीक और विशिष्ट प्रकार की हो इस हेतु तत्सम्बन्धी नियमो की एक सहिता (0००७) ही तैयार की गई थी। विभिन्‍न प्रकार की पुतलियो से युक्त गोल, चौकोर अष्टकोण और पेडाशात्री खम्मभो पर अवलम्बित, खिडकियो और झरोखो से युक्त भवनो का निर्माण किया जाता था

इस युग में राजपूत मूर्तिकला विकास के अपने चरमोत्कर्ष

पर थी। विभिन्‍न प्रकार के अलकाराो से अलकृत पत्थरो एव मिट॒टी की

[ 253 |

प्रतिमाओ का निर्माण किया जाता था। इस युग की यह विशेषता थी कि प्रतिमाओ के विभिन्‍न अगो के निर्माण में अगविशेषों की लम्बाई, चौडाई (अगमाप) की और सूक्ष्मरूप से ध्यान दिया जाता था। उपरोक्त विवरणो से स्पष्ट है कि परमार-युगीन शासन प्रबन्ध, सभ्यता एव सस्कृति अपनी

निजी व्यक्तित्व के कारण विशिष्ट है|

सक्षेप मे-- परमार राजवश भारतवर्ष प्राचीन काल के बाद अतिम हिन्दू राजवशों मे आदरणीय स्थान रखता है जिसने मालवा (अवन्ति), गुजरात, दक्षिण राजस्थान एव भारतवर्ष का हृदय कहे जाने वाले मध्य भारत पर लगभग चार सदी तक शासन करते हुए सम्पूर्ण मध्य कालीन भारत को गौरवान्वित किया। अपनी उन्‍नति की चरम अवस्था मे परमार भोज ने उत्तर भारत और दक्षिणापथ की शायद ही कोई सत्ता रही हो जिसे पद दलित किया हो। अपनी सस्कृति उपलब्धियो के कारण यदि परमारकाल को पूर्व मध्य कालीन भारतीय इतिहास का स्वर्ण

काल कहा जाय तो यह अतिश्योक्ति नही अपितु सर्वदा सत्य है।

वास्तव में परमार राजवश वह प्रकाशपुज है जो सदियो

तक भारतीय सभ्यता एव सस्कृतिकीौ प्रकाशित करता रहेगा |

[254 ]

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अभिलेख स्टेन कोनो

गिरजाशकर वललभजी

श्रीराम गोयल पूर्ण चन्द्र नाहर आर, नोली, विजयमूर्ति

दुर्गा प्रसाद काशीनाथ पाण्डुरग

एफ0जे0 फलीट बी0बी0 मिराशी, मुनिजयन्तविजय डी0सी0 सरकार साहित्य अर्थशास्त्र

उदयसुन्दरीकथा

सदर्भ ग्रन्थ - सूची

कार्पस इन्स्क्रिप्शनम्‌ इण्डिकेरम 2, कलकत्ता

हिस्टोरिकल इन्स्क्रिप्शन्स आफ गुजरात, 4-3, बम्बई

भारतीय अभिलेख सग्रह, 4 जयपुर, 4980

जैन लेख सग्रह, 4-3 कलकत्ता, 4948

नेपालीज इन्स्क्रिप्शन्स्‌ इन दि गुप्त कैरेकटर्स, रोम 4956 जैन शिलालेख सग्रह, 3

प्राचीन लेख माला , 4 बम्बई 4982

कार्पस इन्स्क्रिप्शन्स इण्डिकेरम, वाराणसी, 4963 कार्पस इन्स्क्रिप्शन्स इण्डिकेरम, दो भाग, वाराणसी, 4964 अर्बुदाचल प्रदक्षिणा जैन लेख सदोह, सौराष्ट्र, 4948

सलेक्ट इन्स्क्रिप्शन्स बीयरिंग आन इण्डियन हिस्टरी एपण्ज सिविलिजेशन, कलकत्ता, द्वितीय सस्करण |, 4965

जी0ओ0०0एस0 4927, ले0कौटिल्य (कागले द्वारा सम्पादित और अनुदित) बम्बई, 4960,

जी0ओ०एस0 बड़ौदा, 4920

[255]

उपमितिभवप्रपचकथा कपूरमजरी कान्हडदेप्रबन्ध काव्यमीमासा कीर्तिकौमुदी कमारपालचरित कमारपालदेवचरित कवलयमालाकहा खरतरगच्छपट्टावली तिलकमजरी द्रयाश्रयमहाकाव्य द्रव्यपरीक्षा नवासाहसाकचरित पृथ्वीराजविजय प्रबन्धकोष प्रबन्धचिन्तामिणि

प्रशस्तिस ग्रह

ले० सिद्वर्षि, सम्पा0 एच0 जेकोबी, कलकत्ता, 4899--4944 ल0० राजशेखर, अनु0 लेनमान, केम्ब्रिज, 4904

ले0 पद्मनाथ, सम्पा0 के0बी0 व्यास, जयपुर, 4953 ले0 राजशेखर

ले0 सोमेश्वर, बम्बई, 4883

ले0 हेमचन्द्र, पूरा 4936

ले0 सोमतिलक, एस0जे0जी0

ले0 उद्योतनसूरि, एस0जे0जी0, बम्बई

ले0जिनपाल, सम्पा0 मुनिजिनविजय, कलकत्ता, 4932 ले0 धनपाल, काव्यमान सिरीज, बम्बई 4938

ले0 हेमचन्द्र, बम्बई, 945

ठक्‍कर फैरू

ले0 पद्मगुप्त, बीएएस0एस, 4895

ले0जयानकभट्ट सम्पा० जी0एच0 ओझा और जी0एस0 गुलेरी, अजमेर, 4947

ले0 राजशेखर, एस0जे0जी0 4935 ले0 मेरूतुग, एस0जे0जी0 4933

अमृतलाल शाह, अहमदाबाद वि0स0 4993

[256]

पुरातनप्रबन्धसग्रह मनुस्मृति मानसोल्लास रघुवश राजतरगिणी लेखपद्दति विक्रमाकदेवचरित विविधतीर्थकल्प समराइच्चकहा सुरथेत्सव स्मृतिचन्द्रिका शिशुपालवच

डा0 एस0पी0० व्यास हर्ष चरित आधुनिक ग्रन्थ

(अग्रेजी) अल्तेकर, एस0एस0

एस0जे0जी0, 4936

एन0एस0पी0 4935

ले0 सोमेश्वर, जी0के0 गोडेकर, जी0ओ0एस बडौदा 4925 4939 कालिदास ग्रन्थावली, सम्पा0 सीताराम चतुर्वेदी, अलीगढ, 4962 ले०0 कल्हण, सम्पा0 रामतेज शास्त्री, वाराणसी, 4960 जी0ओ0०0एस0 4925

ले0 विल्हण, वी0एस0एस0, 4835

ले० जिनपालसूरि, एस0जे0जी0 4934

ले0 हरिभद्र, बम्बई 4938

ले0 सोमेश्वर, बम्बई, 4902

ले0 देवभट्ट, सम्पा0 जे0?आर0घरपूरे, बम्बई, ॥948

ले०माघ, एन0एस0पी0, 4923

राजस्थान के अभिलेख का सास्कृतिक अध्ययन

ले०बाण सम्पा० पी0वी0 काणे, दिल्‍ली, 4965.

जोजीशन आफ विमेन इन हिन्दू सिविलिजेशन, बनारस, 4938

एजूकेश्न इन इन्श्येन्ट इण्डिया, बनारस, 4948

[257]

राजकमार अरोडा

इलियट एण्ड डाउसन

डी0सी0 गागूली

लललन जी गापात,

एस0आर० गोयल के0 एस0 रामचन्द्र एस0पी0 गुप्त (सम्पा0)

यू एन घोषाल, जी0सी0 चौधरी के0सी0 जैन जेम्स टॉड एस0के0 दास देवहूति

आर नियोगी,

बुद्ध प्रकाश

स्टेट एण्ड गवनंमट इन एन्श्येण्ट इण्डिया, वाराणसी, 4955

हिस्टोरिकल एण्ड कल्चरल डेटा फ्राम दि भविष्य पुराण दिल्‍ली, 4934

दि हिस्टरी आफ इण्डिया एच टोल्ड बाई इटस ओन हिस्टोरियन्स, 4-3 लनन्‍्दन, 4866-67

हिस्टरी आफ परमारज, ढाका, 4933 दि इकोनामिक लाइफ आफ नार्दन इण्डिया, दिल्‍ली, 4965 हिस्टरी आफ दि इम्पीरियल गुप्तज, इलाहाबाद, 4966

ओरिजन आफ ब्राहमी, दिल्‍ली, 4980

कण्ट्रिब्यूशन टू हिस्टरी आफ हिन्दू रेवेन्यू सिस्टम, कलकत्ता, 4929

पोलिटिकल हिस्टरी आफ नार्थ इण्डिया फ्राम जैन सोर्सेज, अमृतसर, 4954

जैनिज्म इन राजस्थान, शोलापुर, 4963 एन्श्येष्ट सिटीज एण्ड टाउन्स आफ राजस्थान, दिल्‍ली, 4972

एनाल्स एण्ड एन्टिक्विटीज आफ राजस्थान, 4920 इकानामिक हिस्टरी आफ इन्श्येण्ट इण्डिया, कलकत्ता, 4925 हर्ष, आक्सफोर्ड, 4970

दि हिस्टरी आफ गहडवाल डायनेस्टी, कलकत्ता, 4950

आस्पेक्टस आफ इण्डियन हिस्टरी एण्ड सिविललेशन, आगरा, 4965

[258]

वी0एस0 पाठक

पराणनाथ

वी०एन0 पुरी एस0सी बैनर्जी प्रतिपाल भाटिया

आरए्सी0 मजूमदार

ए0क0 मजूमदार

बी0पी0 मजूमदार

आर0०सी0 मजूमदार एण्ड एस0डी0 पुसालकर

बी0बी0 मिश्र आर0के0 मुकर्जी

कं0एम0 मुन्शी

एन्श्येण्ट हिस्टोरियन्स आफ इण्डिया, दिल्‍ली 4966 हिस्टरी आफ शैव कल्टस इन नार्दन इण्डिया, वाराणसी, 4960

स्टडी इन दि इकानामिक कण्डीशन आफ इन्श्येण्ट इण्डिया, लन्दन, 4924

दि हिस्टरी आफ गुर्जर प्रतिहार, बम्बई, 4957

राजपूत स्टडीज, कलकत्ता, 4944

दि परमारज, दिल्‍ली, 4970

कोरपोरेट लाइफ इन एन्श्येण्ट इण्डिया, कलकत्ता, 4922 हिस्टरी आफ बगाल 4, ढाका, 4943

चौलुक्याज आफ गुजरात, बम्बई, 4965

सोश्यो-इकानामिक हिस्टरी आफ नार्दन इण्डिया, कलकत्ता 960

दि क्लासिकल एज, बम्बई, 4954

दि एज आफ इम्पीरियल कन्नौज, बम्बई, 4955 दि स्ट्रगल फार एम्पायर बम्बई, 4955 गुर्जर प्रतिहारज एण्ड देयर टाइमन, दिल्‍ली, 4966

एन्श्येण्ट इण्डियन एजूकेशन, लन्दन, 4047

- दि ग्लोरी वाज गुर्जर देश, बम्बई, 4954

[259]

एस0के० मैती,

बी0एन0एस0 यादव

एच0सी0 राय एच0सी0 राय चौधुरी सी0पी0 वैद्य

बी0एन0 शर्मा

दशरथ शर्मा

एच0वी0 शारदा शुक्ल डी0सी0 अशोक श्रीवास्तव

डी0सी0 सरकार

|

इकानामिक लाइफ आफ नार्दन इण्डिया इन दि गुप्त पीरियड, दिल्‍ली, 4970

सोसायटी एण्ड कल्चर इन नार्दन इण्डिया इलाहाबाद, 4973

डायनेस्टिक हिस्टरी आफ नार्दन इण्डिया, 4-2 कलकत्ता, 4924, 4936

पोलिटिकल हिस्टरी आफ इन्श्येण्ट इण्डिया, 5वा सस्करण, कलकत्ता, 4953

हिस्टरी आफ मेडीवल हिन्दू इण्डिया, 4-2 पूना

सोशल एण्ड कल्चरल हिस्टरी आफ नार्दन इण्डिया, दिल्‍ली,4972 अर्ली चौहान डायनेस्टीज, दिल्‍ली द्वितीय सस्करण 4975 राजस्थान भ्रूदि एजिज, बीकानेर, 4966

लेक्चर्स आन राजपूत हिस्टरी एण्ड कल्चर, दिल्‍ली, 4970 स्पीचेज एण्ड राइटिगस, अजमेर, 4935

अर्ली हिस्टरी आफ राजस्थान, दिल्‍ली, 4980

इण्डिया एज डेस्क्राइब्ड बाई दि अरब ट्रेवेल्स, गोरखपुर, 4967 सकक्‍सेसर्स आफ दि सातवाहनज, कलकत्ता, 4939

जयरी

स्टडीज इन ज्योग्राफी आफ इन्श्येण्ट इण्डिया, एण्ड मेडीवल इण्डिया, दिल्‍ली, 4960--64

गुहिलज आफ किष्किन्धा, कलकत्ता, 4965

दि शाक्त वीटज, दिल्‍ली, 493

[260]

गोपालचन्द्र सरकार इ0सी0 साचउ जी0पी0 सिन्हा आर0०सी0पी0 सिह आरण0बी0 सिह बी0ए0 स्मिथ एन0एस0 सुब्बाराव रामवल्लभ सोमानी, आरए0एस0 त्रिपाठी आधघुनियक ग्रन्थ

(हिन्दी) अग्रवाल वा0श0

गौ0ही0 ओझा

ट्रिग्टाइज आन हिन्दू ला, कलकत्ता, 4927

अलबरूनीज इण्डिया, 4-2, लन्दन, 4888

पोस्ट गुप्त पालिटी, कलकत्ता 4972

किग्शिप इन नादर्न इण्डिया, यूनिवर्सिटी आफ लन्दन, 4957 हिस्टरी आफ दि चाहमानज, वाराणसी, 4964

अर्ली हिस्टरी आफ इण्डिया, आक्सफोर्ड, 4924

इकानामिक एण्ड पालिटिकल कण्डीशन इन इन्श्येण्ट इण्डिया, मैसूर, 497

पृथ्वीराज चौहान एण्ड हिज टाइम्स, जयपुर, 4984 हिस्टरी आफ कन्नौज, बनारस, 4937

पाणिनिकालीन भारतवर्ष, वाराणसी। हर्षचरित एक सास्कृतिक अध्ययन, पटना, 4953

कादम्बरी एक सास्कृतिक अध्ययन | मध्यकालीन भारतीय सस्कृति, इलाहाबाद, 4928 उदयपुर राज्य का इतिहास, अजमेर, 4928 जोधपुर राज्य का इतिहास, अजमेर, 4938 सिरोही राज्य का इतिहास, अजमेर, ॥94॥

डूगरपुर राज्य का इतिहास |

[26]

पी0वी0 काणे - धर्मशास्त्र का इतिहास 4-5 अनु0 अर्जुन चौबे काश्यप, लखनऊ

एस0आर गोयल, - प्राचीन भारत का राजनीतिक एव सास्कृतिक इतिहास, इलाहाबाद

969

एस0आर०0 गोयल एव. - मागध साम्राज्य का उदय, दिल्‍ली, 4980 एस0के0० गुप्त (सम्पा)

प्रेमसुमन जैन - कुवलयमालाकहा का सास्कृतिक अध्ययन बिहार, 4975 वी0एन0 पाठक - उत्तर भारत का राजनीतिक इतिहास लखनऊ, 4973

आरएजी0 भण्डारकर वैष्णव, शैव और अन्य धार्मिक मत, हिन्द अनु0 वाराणसी, 4970 जयशकर मिश्र - प्राचीन भारत का सामाजिक इतिहास, पटना 4974

राजस्थान का इतिहास, आगरा 4980 राजस्थान के इतिहास के स्रोत पुरातत्व 4, जयपुर, 4973

गोपीनाथ शर्मा

दशरथ शर्मा चौहान सम्राट पृथ्वीराज तृतीय और उनका युग जयपुर, 4972

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रामवललभ सोमानी _- वीर भूमि चितौड, जयपुर, 4969 इतिहासिक शोध सग्रह, जोधपुर, 4970 आरक्योलाजिकल रिपोर्टस-

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[262]

एन्वल रिपोर्ट आफ दि आरक्योलाजिकल सर्वे आफ इण्डिया एन्चल रिपोर्ट आफ दि राजपूताना म्यूजियम

प्रोग्रेस रिपोर्ट आफ आरक्योलाजिकल सर्वे आफ वेस्टर्न सर्कल

शोध पत्रिकाए -

इण्डियन एण्टिक्वेरी, बम्बई

इण्डियन कल्वर कलकत्ता

इण्डियन हिस्टोरिकल क्वार्टली, कलकत्ता

जर्नल आफ एशियाटिक सोसायटी बेगाल, कलकत्ता

जर्नल आफ ओरियण्टल इन्स्टिट्यूट, बडौदा

जर्नल आफ ओरियण्टल रिसर्च, मद्रास

जर्नल आफ गगानाथ झा रिसर्च इन्स्टिट्यूट, इलाहाबाद जर्नल आफ बिहार रिसर्च सोसायटी, पटना

जर्नल आफ बोम्बे ब्राथ आफ रायल एशियाटिक सोसायटी, बम्बई जर्नल आफ बोम्बे यूनिवर्सटी, बम्बई

जर्नल आफ न्यूमिस्मेटिक सोसायटी, बनारस

एन्श्येंट इण्डिया, दिल्‍ली

एनाल्‍स आफ भाण्डारकर औरियण्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट, पूना एपिग्राफिया इण्डिका

दि क्‍्वारटली रिव्य आफ हिस्टोरिकल स्टडीज कलकत्ता

न्यू इण्डियन एण्टीक्वेरी, बम्बई

[263]

नागरी प्रचारिणी पत्रिका, बनारस

भारती, उज्जेन

भारतीय विद्या बम्बई

मरूभारती, पिलानी

प्रोसीडिग्ल आफ इण्डियन हिस्टरी कांग्रेस प्रोसीडिग्ज आफ राजस्थान हिस्टरी कांग्रेस राजस्थान भारती, बीकानेर

रिसर्चर, जयपुर

वरदा, बिसाऊ

विश्वम्भरा, बीकानेर

शोध पत्रिका, उदयपुर |

[264]

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४०प्राग्व रण ॥86 807793५ 8ाध्याएी (6 रि09व/ /89॥0 50089

-30०प्रागात एी ॥6 एथ्मघागाशा ०एणी शॉशा5ड, (था0पाँध् (॥॥॥४७४७॥५

३०प्रवात्वा ०णए 6 भैंव्ती५४ स80885॥ (355 रिध्वा।550, 8॥0]|28/। हु

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